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बराङ्ग
चरितम्
क्षुद्व्याधिदारिद्यवधोनबन्धैराक्रोशभीर्भनितारनाद्यैः दुःखैविबाधामुपयान्ति सत्त्वा यत्तत्फलं पापकृतं निराहुः ॥ ३० ॥ अनागसामप्यपराधभावं नृणां समारोप्य समाश्रितानाम् । यत्स्वामिभिर्दण्डवधाः क्रियन्ते तस्कृतानां फलमामनन्ति ॥३१॥ विबान्धवास्त्यक्तकलत्रपुत्रा विलेपनत्र परिवजिताश्च । मलीमसाः क्षामकपोलनेत्रा दुःखेन जीवन्ति जना विपुण्याः ।। ३२॥ दरिद्रतां नीचकुले प्रसूति मौख्यं विरूपत्वमभवतां च । अकल्पतां वापि समाप्नुवन्ति प्रायः पुमांसः सुकृतेरभावात् ॥ ३३ ॥ निराशयास्ते विभवैविहोनाः संश्लाघयन्तः परगेहभोगान् । पुण्यैरपेताः स्वकराग्रपात्रा देशादिवदेशं परिसंचरन्ति ॥ ३४॥
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मनुष्यको मुख-प्यास और रोगोंके कारण जो पीड़ा होती है, निर्धनताके कारण जो आपत्तियाँ सहनी पड़ती हैं, वध, बन्धन आदि जो अनेक कष्ट भरने पड़ते हैं, गालो, अभिशाप, भर्त्सना और मारपीटके जो दुःख और अपमान सहने पड़ते हैं यह सब भी पूर्वकृत पापोंकी करतूत हैं ॥ ३० ॥
पूर्णरूपसे निर्दोष आश्रित व्यक्तियों पर बलपूर्वक झूठे अभियोग लगाकर स्वामियोंके द्वारा जो उन्हें कठिन-कठिन कारावास आदि दण्ड तथा शूली आदि पर चढ़ाकर जो वध किया जाता है, इन समस्त यातनाओंको विद्वान् आचार्य कुकर्मोका ही फल कहते हैं ।। ३१ ।।
पुण्यहीन मनुष्य अपने जीवनको दुःखपूर्वक व्यतीत करते हैं, उनके कुटुम्बी भी उनका साथ नहीं देते हैं, और तो क्या, पत्नी औरस पुत्र-पुत्रियाँ भी उन्हें छोड़ देते हैं । इतना ही नहीं, उनकी शारीरिक आवश्यकतायें भी पूर्ण नहीं होती हैं-यथा, न तो वे कभी उबटन ही पाते हैं और न माला आदि सुरभि शृंगार फलतः शरीर मलिन हो जाता है तथा गाल और आँखें धंस जाती है ।। ३२॥
- पूण्य संचय न करनेके ही कारण अधिकतर मनुष्य निर्धन होते हैं, लोक निन्द्य नीच कुलोंमें उत्पन्न होते हैं, कूरूपता । और अशिष्टताको वरण करते हैं, तथा ऐसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं जिसमें न तो दूसरे हो उन्हें कुछ समझते हैं और न स्वयं उनमें बढ़नेको सामर्थ्य रह जाती है ।। ३३ ।।
___ इन अवस्थाओंमें पड़कर वे सर्वथा निराश और निर्णयहीन हो जाते हैं, परिणाम यह होता है कि सदाके लिये निर्धन १. म पुण्यरुपेता।
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