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अष्टमः सर्गः
स्वामिन्प्रभो नाथ तवास्मि भत्य आज्ञाप्यतां कि करवाणि तेऽद्य। इति ब्रुवाणा बहबः पुमांसो व्रजन्ति भूत्यत्वमपेतपुण्याः ॥ २१ ॥ केचित्परेषां धनजीवितानि लेखप्रयोगैरथ वञ्चयित्वा । 'गत्यापपाकादद्रविणं परैस्तु (?) हत्वा स्वयं ते निधनं व्रजन्ति ॥ २२॥ प्रचण्डवातोद्धततुङ्गचञ्चत्तरङ्गभङ्गस्फुरदुग्रमत्स्यम् अगाधमम्भोनिधिमर्थलोभात्प्रविश्य केचिन्मरणं प्रयान्ति ॥ २३ ॥ अधीत्य विद्याश्च महाप्रभावाः संश्रुत्य तत्वार्थगुणानवेत्य ।। स्वेष्टावता न्यायकृता फलेन भिक्षांभ्रमन्तोऽपि न तां लभन्ते ।। २४ ।। आजीवशास्त्राणि बहन्यधीत्य ज्ञात्वा क्रियायोगविभागतां च ।। दुराशया जोर्णमठेष्वपुण्या व्यपेतसौख्या गमयन्ति कालम् ॥ २५ ॥
नामाचारपानामा
'हे स्वामि ! हे प्रभो! हे नाथ ! मैं आपका किंकर हूँ, आज्ञा दीजिये, मुझे आज क्या करना है ?' इत्यादि वचन कहते हुए अनेक पुण्य हीन पुरुष उन लोगोंको दासताको स्वयं स्वीकार करते हैं जिनका उत्साह धार्मिक कार्यों में दिन-दूना और रात चौगुना बढ़ता है ॥ २१ ॥
पापमूल परिग्रह कुछ व्यक्ति झूठे साँचे लेख लिखकर दूसरोंकी सम्पत्ति और कभी-कभी जीवनको भी ले लेते हैं, अथवा किसी और कूटक्रियासे दूसरेको सम्पत्ति छीनते हैं । किन्तु समय बीतनेपर जब इन कर्मोंके फलका उदय आता है तो वे स्वयं अत्यन्त निर्धन होते हैं ।। २२ ॥
अन्य कुछ लोग धनके लोभसे प्रचण्ड आँधीके कारण फुकारते हये समुद्र में घुस जाते हैं; ( यात्रा करते ) जिसमें उठती ॥ हुई लहरें थपेड़े मारती है और बड़े भयंकर मगरमच्छ हरते रहते हैं तथा जिसकी गहरायी अपरिमित होती है । फल यह होता है कि वहीं मर जाते हैं ।। २३ ॥
समस्त विद्याओंका अध्ययन करनेके कारण जिनका प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाता है तथा सातों तत्त्वों और पदार्थोकी चर्चा सुनकर जो उनके विशेषज्ञ बन जाते हैं वे लोग भी अपने परम इष्टके रक्षक और समुचित न्याय करनेवाली फल व्यवस्थाके कारण काफी घूमते हैं तो भी शरीर यात्राके लिये आवश्यक कुछ ग्रास भिक्षाको भी नहीं पाते ।। २४ ।।
जीव शास्त्र पर्यन्त अनेक शास्त्रोंमें पारगंत हो जाने तथा विविध प्रकारको क्रियाओं, विधियों और समयकी उपयोगिता १. [ गत्या विपाकात् ] ।
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