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वराङ्ग चरितम्
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मनुष्यजातिवं सशीलयुक्ता तिर्यङ्नराणामशुभं निहन्ति । दुःखान्यमेयानि च नारकाणामुन्मूल्य सिद्धि नयति क्रमेण ॥ १३ ॥ सैवेह दानेन समायुता चेद्विशिष्टभोगान् कुरुषूपभोज्य । देवत्वमापादयति क्रमेण अतो विशिष्टा नृपतेऽद्वितीया ॥ १४ ॥ सद्दृष्ठिसज्ज्ञानतपोन्विता चेच्चक्रेश्वरत्वं च सुरेश्वरत्वम् ।
प्रकृष्टसौख्या महमिन्द्रतां च संपादयत्येव न संशयोऽस्ति ।। १५ ।। सैकावधी 'नारकविशतिस्तु एकास्य जन्तोरबुधैर्मतोऽर्थः । मनुष्यलोकं ह्यपरैर्निराहुः केचित्समर्थं न जगत्त्रये च ( ? ) ।। १६ ।।
यही मनुष्य पर्याय यदि अहिंसा, सत्य आदि व्रतोंको धारण कर सकी और सामायिक, अतिथिसंविभाग आदि शीलोंसे सम्पन्न हुई तो तिर्यञ्चगति और कुमानुष योनिकी सब ही विपत्तियोंको समूल नष्ट कर देती है और तो कहना ही क्या है नरकगतिके अपरिमित अनन्त दुःखोंका विध्वंस करके वह क्रमशः मोक्ष महापदकी ही प्राप्ति करा देती है ॥ १३ ॥
इसी मनुष्यपर्यायका यदि किसी तरह दानकी प्रवृत्तिसे गठबंध हो गया तो यह उत्तम भोगभूमि, देवकुरु और उत्तरकुरुके लोकोत्तर भोगोंका भरपूर रस पिलाकर वहींसे देवपदकी ओर ले जाती है । अतएव, हे नरेश ! मनुष्य पर्याय सब पर्यायों से बढ़कर है; इतना ही नहीं अपितु कहना चाहिये कि अन्य भवों और उसमें कोई तुलना ही असम्भव है ॥ १४ ॥
यदि मनुष्य जन्मको सम्यक दर्शन, ज्ञान और तपका सहारा मिल गया तो फिर कहना ही क्या है ? क्योंकि ऐसी अवस्था में उसका परिणाम या तो चक्रवर्ती पदकी प्राप्ति होता है अथवा देवोंकी प्रभुता इन्द्रपना होता है, नहीं तो संसार के सुखोंको चरम अवस्था अहमिन्द्र पद होता है ऐसा आप निश्चित समझिये ॥ १५ ॥
यही मनुष्य पर्याय एक मात्र ऐसी योनि है जो मानवको सृष्टिका उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकारी बनाती है ऐसा अज्ञ ( जगत्कर्तृत्ववादी ) लोग मानते हैं । किन्तु सार यह है कि मनुष्यजन्म तीनों लोकोंमें सबसे अधिक समर्थ है ऐसा ( उनमेंसे ) भी कितने ही लोग मानते हैं ' ॥ १६ ॥
१. की १. मूल में यह पद्य अत्यन्त अशुद्ध है ।
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। २. ह्यपेरनिराहुः ।
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अष्टमः
सर्गः
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