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वराङ्ग
चरितम्
शिल्पैरनल्पैः परिकर्मशुद्धैरपुण्यवन्तो वहुदुःखभाजः । परान्वराकाः परितोषयन्तो धनाशयात्क्लेशगणान्भजन्ते ॥ २६ ॥ संसर्गतो ये च निसर्गतो वा लोभाद्भयाद्वा दुरिताञ्चितानि । कर्माण्यकुर्वस्त्वपरा मनुष्या जीवन्ति ते प्रेष्यकराः क्रियार्ताः ॥ २७॥ पुण्यान्यकृत्वा स्फुटितानपादाःक्षुत्पीडिताः कार्पटिनः कृशानाः। भूमौ शयानाः खरकर्कशायां दीना ह्यभीक्ष्णं' खलु भिक्षयन्ति ॥ २८॥ धर्मे मति यन्न करोति धीमान्विद्वाज्जनो यद्वसुना विहीनः । रूपान्वितो दुर्भगतामुपैति तत्कर्मणां पापवतां विपाकः ॥ २९ ॥
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आदि विशेष विभागोंको भलीभाँति जान लेनेके बाद भी अनेक मलीनमन मनुष्य प्राचीन मठोंमें पड़े रहते हैं और सुखोंसे वंचित होकर किसी प्रकारसे समय काटते हैं ।। २५ ।।
धन पानेके प्रलोभनसे हो कितने ही पुण्यहीन तथा दुःख सागरमें पड़े व्यक्ति दूसरोंको प्रसन्न करनेके प्रयत्नमें लगे रहते हैं। उनकी अनेक विशाल कलाएँ जो कि प्रयोग द्वारा निर्दुष्ट और लाभप्रद सिद्ध होती हैं, वे भी दूसरोंके उपयोगमें आती हैं और । उनके भाग्यमें अनेक क्लेश ही पड़ते हैं ।। २६ ।।
जो व्यक्ति अपनी रुचिसे, अथवा संगति और सहवासके कारण, किसी प्रबल प्रलोभनकी प्रेरणासे, या किसी भीषणताके आतंकसे पापमय कार्योंको करते हैं वे ही निकृष्ट मनुष्य दूसरोंके आज्ञाकारी दास होकर व्यर्थ ही अनेक आरम्भोंमें व्यस्त रहते हैं ॥ २७ ॥
पुण्यहीन जीबन पुण्यकर्म न करनेके कारण मनुष्योंके पैरोंके अग्रभाग रोगोंके आक्रमणसे फूट जाते हैं, तब वे पंगु होकर अत्यन्त कठोर। कंकरीली भूमिपर पड़े रहते हैं, भूखके मारे चिल्लाते हैं, वस्त्रके अभावके कारण एक टुकड़ेसे अपनी लाज ढकते हैं । इन कष्टोंके कारण उनका शरीर सूख जाता है, यह विपत्तियाँ उन्हें इतना दोन कर देती हैं कि विचारे दिन-रात भीख मांगते रहते हैं ॥२८॥
विद्वान् और शास्त्रज्ञ होनेपर भी मनुष्य जो धर्मकार्योंमें रुचि नहीं करता है, अनेक शास्त्रोंका पंडित होनेपर भी निर्धन होता है तथा कामदेवके समान सुन्दर होनेपर भी लोग उसे अपशकुन मानते हैं यह सब पापमय कर्मोंका ही विपाक है ।। २९।।
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१. म दीनान्यभीक्ष्णं ।
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