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म्यान्म
बरान चरितम्
अष्टमः सर्गः
शय्यासु मृद्वीषु सुखं शयानो भोगानुरक्ताभिरमा प्रियाभिः । विमानपृष्ठेषु रतेविचित्रं पृण्यानुभावादिवलसन्त्यभीक्ष्णम् ॥ ४४ ॥ वीणामृदङ्गप्रतिवोधितानि वंशानुनादक्रमरज्जितानि । गेयानि श्रृण्वन्नतिवल्लभानि रात्रंदिवं क्रोडति पुण्यकारी ॥४५॥ सभ्रविभङ्गाभिनयोपपन्नं वादित्रयालापलयानकारि । नृत्यं प्रपश्यन्नयनातिकान्तं सुकृत्प्रियाभिमुंदमभ्युपैति ॥ ४६ ।। अपक्व जम्बूफलरागकान्तं कान्तोपनीतं मणिभाजनस्थम् । मध्वासवं सत्सुरतोत्सवाढयं पिबन्सपुण्यो रमते सुखेन ।। ४७ ॥ भोगान्विताः शास्त्रसनाथवाचो गोष्ठीषु सत्काव्यकलाविदग्धाः । मान्याश्च पूज्याश्च नरा नराणां पुण्यैरुपेताः सततं भवन्ति ।। ४८ ।।
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SAIRATRIKEचमान्चामाचरन्याचा
पुण्यके प्रतापसे ही लोग मकानोंकी उत्तम छतोंसे ऊपर कोमलसे कोमल रमणीय शय्याओंपर सोते हैं तथा अत्यन्त अनुरक्त, मनवाञ्छित भोगोंके लिये सदैव उद्यत प्रिय नायिकाओंके साथ दिन-रात अद्भुतसे अद्भुत प्रेम-लीलायें करते हैं ।। ४४ ॥
पूर्वभवोंमें पुण्यकम करनेवाले व्यक्ति अगले जन्मोंमें वीणा और मृदङ्ग आदि बाजे बजाकर नींदसे जगाये जाते हैं, वाँसुरी आदि मनोहर यन्त्र बजाकर सदा ही उनका मनोरञ्जन किया जाता है तथा अत्यन्त मधुर हृदयहारी गाने आदि सुनते हुए वे दिन-रात क्रीड़ा करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं ।। ४५ ॥ ।
पुण्यात्मा जीव अपनी प्राण प्यारियोंके साथ, आनन्द सागरमें आलोडन करते हैं जिसमें गायकके आलाप और लयके अनुसार समस्त बाजोंकी ध्वनि रहती है तथा नर्तकी या नतंकके नेत्र भ्र विक्षेप, कटाक्ष आदि अभिनयोंके कारण वे राग अत्यन्त ॥ सुन्दर हो जाते हैं ।। ४६ ॥
ऐसे नृत्योंको देखते हुये, न हरे और न पके जामुनके फलकी लालिमाके समान लाल तथा कान्ताओंके द्वारा मणियोंके प्यालोंमें भरकर लायी गयी मधु मदिराको, जो कि कामाचाररूपी उत्सवमें सबसे श्रेष्ठ समझो जाती है, पीते हुए, केवल भोगोंकी इच्छासे पुण्य करनेवाला जीव सुखसे रमण करते हैं । ४७ ।।
पुण्यरूपी निधिके स्वामो सदा ही यथेच्छ भोगोंसे घिरे रहते हैं । उनका अध्ययन इतना गम्भीर होता है कि गोष्ठियोंमें आगम प्रमाण सहित वार्तालाप करते हैं, काव्य, संगीत आदि ललित कलाओंमें भी पारंगत होते हैं तथा समस्त मनुष्योंके मान्य और पूज्य होते हैं ।। ४८ ॥ १.क वादित्रयोल्लाप, [वादित्रमालाप°]। २. क सुपुण्यो ।
चामा
१३.1
S.
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