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वराङ्ग चरितम्
अनेकजात्यन्तर संकटत्वादज्ञानतः कर्म गुरुत्वदोषात् । संसर्गतो दुःश्रुतिदुर्जनानां न लभ्यते मानुषजातिराशु ॥ ५ ॥ सामान्यभूते च मनुष्यलोके काम्बोजकाश्मीरक बर्बराणाम् । म्लेच्छाद्वहुत्वादतिदुर्लभं तं सुमानुषत्वं विबुधा निराहुः ॥ ६ ॥ तत्रापि भोज्यं हि कुलं न लभ्यं पुलिन्दचाण्डालकुलाकुलत्वात् । तथैव रूपं मतिरिन्द्रियाणि आरोग्यमर्थित्वमुदारधर्मम् ॥ ७ ॥ लब्ध्वापि सद्धर्ममती च कृच्छ्रात्सुदुर्धरं घोरतपोविधानम् । कषायघोरा विषयारयश्च कुर्वन्ति विघ्नं बहुभिः प्रकारैः ॥ ८ ॥
पुरोहित, सेनापति, दण्डनायकादि सव ही आर्य थे, क्योंकि इन्हें सत्धर्मं अत्यन्त प्रिय है फलतः इनका आचरण भी अनार्यों के असंयममय चरित्रसे सर्वथा विपरीत ( संयत ) होता है ॥ ४ ॥
मनुष्यगतिकी कर्मभूमियाँ अनेक वर्गोंके स्वरूपका शुद्ध ज्ञान नहीं है, आर्योंका आचरण मनुष्यको दुर्जनों की संगति, कुशास्त्र और कुज्ञान नहीं होता है ॥ ५ ॥
मनुष्य तथा आर्यत्व
पुरुषोंसे ठसाठस भरी हैं, मनुष्यको आर्यत्व और अनार्यत्वके साधनों तथा और विचार दोनों ही विशाल हैं अतः उसका निर्दोष पालन दुष्कर है, सरलतासे प्राप्त हो जाते हैं, यही कारण है जो आर्यकुल सरलता से प्राप्त ही
सामान्यरूपसे आकृति तथा वेश भूषा देखनेसे सब ही मनुष्य एक समान प्रतीत होते हैं इसके अतिरिक्त साधारणतया काम्बोज, काशमीरकी ओरये आये ऋषिक, तुखा [षा] र, शक, हूण आदि म्लेच्छ वर्ग के लोगोंकी संख्या अत्यधिक है कि इन कारणोंका विचार करके ही विद्वानोंने कहा था कि शुद्ध आर्यत्व इस पृथ्वीपर अत्यन्त कठिन हैं ॥ ६ ॥
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भोज कल
इसी प्रकार आर्यों में भी शुद्ध भोजकुलको पाना तो एक प्रकारसे असंभव ही समझिये, क्योंकि समय-समय पर आक्रमण करनेवाले पुलिन्द, चाण्डाल, आदिके कुत्सित कुलोंके लोग भी उसमें समा गये हैं। शुद्ध और कल्याणकारिणी बुद्धि, शुभ कर्मरत इन्द्रियों, घृणित रोगहीन स्वास्थ्य, न्यायसे अर्जित संपत्ति और वीतराग प्रभुसे उपदिष्ट जिनधर्मंकी भी यही ( दुर्लभतम ) अवस्था है ॥ ७ ॥
यदि किसी प्रकार कल्याणपथकी ओर चलनेवाली सुमति प्राप्त हो जाय तथा अनेक कष्ट झेलनेके बाद शुद्ध तपस्या की
१. क बुद्धवापि ।
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अष्टमः
सर्गः
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