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वराङ्ग चरितम्
या गतिदुःखभूयिष्ठा वर्णिता मुनिपुङ्गवैः । तां गतिं ये प्रपद्यन्ते तान् वक्ष्यामि विशेषतः ॥ २५ ॥ हिंसायां निरता मित्यं मृषावचनतत्पराः । परद्रव्यस्य हर्तारः
परदाराभिलङ्घिनः ॥ २६ ॥
मिथ्यातिमिरसंछन्ना
बह्वारम्भपरिग्रहाः । कृष्णलेश्या परिणताः श्वाश्रीमधिवसन्ति ते ॥ २७॥ पञ्चानामिन्द्रियाणां हि पञ्चार्था रतिहेतवः । तेषां प्राप्तिनिमित्ताय कर्म चिन्वन्ति दारुणम् ॥ २८॥ अयःपिण्डो जले क्षिप्तो नादं प्राप्य न तिष्ठति । कर्मभारसमाक्रान्ता जीवाश्च नरकालये ॥ २९ ॥ पिष्टपाकमुखेष्टिके (?) उष्ट्रिकास्वपरे पुनः । उत्पद्यन्ते ह्यधोवक्त्राः पापिष्ठा वेदनातुराः ॥३०॥ उत्पद्य हि दुराचारा अत्युष्णात्परिपीडिताः । पतन्त्युत्पत्य तत्रैव तप्तभ्राष्ट्र तिला इव ॥ ३१॥
व्याप्त कहा है, उसी गति में कौनसे जोव
मुनियोंके अग्रणी केवली आदि ऋषियोंने जिस गतिको भयंकर रुद्र दुःखोंसे मर कर पहुँचते हैं उन्हींके विषयमें अब मैं विस्तारपूर्वक कहता हूँ ।। २५ ।।
नरक गतिके कारण
जो हर समय दूसरोंकी द्रव्य वा भाव हिंसामें लगे रहते है, जिन्हें झूठ वचन बोलने में कभी कोई हिचकिचाहट ही नहीं होती है, दूसरे की सम्पत्तिका चुराना जिनकी आजीविका हो जाती है, दूसरेकी स्त्रियोंकी लज्जा और सतीत्वको ले लेना जिनका स्वभाव हो जाता है ॥ २६ ॥
विपरीत या भ्रान्त श्रद्धा जिनके विवेकको ढक लेती है, अत्यधिक आरम्भ और परिग्रहको करना जिनका व्यापार हो जाता है और जिनकी लेया ( विचार और चेष्टा ) अत्यन्त कृष्ण ( कलुषित ) हो जाती है, ये ही लोग नरकगतिमें जाकर बहुत समयतक दुःख भरते हैं ॥ २७ ॥
स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियोंका अत्यन्त आकर्षक और सुखदायी जो स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द, पाँच भोग्य विषय हैं इनको प्राप्त करने के उद्देश्यसे ही जो लोग निर्दय और नीच काम करते हैं ।। २८ ।।
वे लोग अपने दुष्कर्मों और अकमोंके भारसे इतने दब जाते हैं कि वे धड़ामसे नरकमें वैसे ही जा गिरते हैं जैसे लोहेका भारी गोला पानीमें फेंके जानेपर जोरकी आवाज करता है और रसातलको चला जाता है ऊपर नहीं ठहरता है || २९ ॥ इस प्रकार नरकमें पहुँचकर कुछ जीव तो भट्ठियोंके समान अत्युष्ण स्थानोंमें पैदा होते हैं तथा दूसरे उन स्थानोंपर उत्पन्न होते हैं जिनकी तुलना ऊँटकी आकृतिके बने भाड़ोंसे की जा सकती है। वे वहाँपर नीचे मुख किये हुए उत्पन्न होते हैं ।। ३० ।।
नारकी जन्म और जन्मके क्षणसे असह्य वेदनासे व्याकुल रहते हैं वे दुराचारी उत्पन्न होते ही वहाँकै प्रखर तापसे असह्य कष्ट प २. [ नाघ: ] ।
१. क कृष्णलेश्याः परिणता ।
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पञ्चमः सर्गः
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