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बराङ्ग चरितम्
PART-नाममा
षष्ठः सर्गः अथैवमुर्वीपतये मनीन्द्रः प्रारब्धवान्वक्तुमतस्तिरश्चाम् । गतेविभाग बहुदुःखघोरमीषल्लधुत्वं नरकादसह्यात् ॥१॥ तिर्यक्त्वसामान्यत एकमेव स्थानप्रभेदाच्चा चतुर्दशाहुः।। कायातषडेवेन्द्रियतश्च पञ्च गुणाश्चर पञ्चैव वदन्ति तज्ज्ञाः॥२॥ एकेन्द्रियाः स्थूलतमाश्च सूक्ष्माः पर्याप्तकास्तद्विपरीतकाश्च । द्वित्रीन्द्रियास्ते चतुरिन्द्रियाश्च पर्याप्त्यपर्याप्तियुतास्त्रयस्तु ॥ ३ ॥
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षष्ठ सर्ग
तिर्थञ्चप योनि इसके उपरान्त तपोधन मुनियोंके गुरु श्रीवरदत्तकेवलीने पृथ्वीके पालक राजा धर्मसेनको निम्न प्रकारसे तियंञ्च-गति' और उसके भेदोंको कहना प्रारम्भ किया था। तिर्यञ्चगति भी विविध प्रकारके अनेक दुःखोंके कारण अत्यन्त भयानक हैं तथा उन । असह्य दुःखोंके आयतन (धर ) नरकोंसे प्राणियोंको पीड़ा देनेमें थोड़ी ही कम है ।। १ ।।
सामान्यरूपसे केवल तिर्यञ्चपने ( तिर्यक्त्व ) की अपेक्षासे विचार करने पर तिर्यग्गतिका एक हो भेद होता है, जहाँ छ तिर्यञ्चोंका निवास या जन्म है उन स्थानोंकी अपेक्षा चौदह भेद होते हैं, कायकी अपेक्षा तिर्यञ्च छह प्रकारके हैं, इन्द्रियोंको प्रधानता देनेसे तिर्यञ्चोंके पांच ही भेद हैं । इस प्रकार तिर्यग्गतिके विशेषज्ञ गुणोंकी अपेक्षा भी तिर्यञ्चोंको पाँच ही राशियोंमें धिभक्त करते हैं ॥२॥
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चाचELESALA
स्थान भेद
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स्थानकी प्रधानतासे चौदह भेद ये हैं :-एकेन्द्रिय तिर्यञ्च, इसके भो दो भेद, स्थूल-एकेन्द्रिय और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, यह दोनों भी दो प्रकारके होते हैं पर्याप्त और इसका उल्टा अर्थात् अपर्याप्त । दो इन्द्रिय, तोन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय धारी ये तीनों प्रकारके तिर्यञ्च भी, पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं ।। ३ ।।
१. क प्रभेदश्च । २. [ गुणाच्च ] । १. नारकी, मनुष्य तथा देवोंको छोड़कर शेष प्राणिजगत मोटे तौरसे पशुपक्षी योनि ।
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