________________
वराङ्ग चरितम्
वनस्पतीनां दश वर्णयन्ति द्वे द्वे पुनस्ते विकलेन्द्रियाणाम् । चत्वारि तिर्यक्सुरनारकाणां मनुष्यवर्गस्य अनेक योनिष्वतिदीर्घकालं
चतुर्दशाहुः ॥ ५० ॥ परिहीन सौख्याः ।
परिभ्रमन्तः
अहो वराका दुरितानुबन्धा दुःखस्य नान्तं बत यान्ति जीवाः ॥ ५१ ॥ क्रमेण यान्तः कुलकोटिजालान् जाति 'जरा मृत्युमनेकरोगान् । समनुवानाः कुटिलस्वभावास्तिर्यग्गतौ नैव सुखं लभन्ते ॥ ५२ ॥ शारीरदुःखं खपरैरवाप्य तन्मानसं कैश्चिदवाप्यते च । तथोभयं प्राप्यत एव कैश्चिद्दुःखं परं जन्तुभिरप्रमेयम् ॥ ५३ ॥ अथैवं तिरश्च महादुःखकालं कुलं जीवितं चेन्द्रियाणां [' -] 1 गति कायभेदं फलं कारणं च बभाषे यतोशो यथावन्नृपाय ॥ ५४ ॥
वनस्पतिकायिक जीवोंकी योनियोंका प्रमाण दशलाख केवली प्रभुने कहा है तथा विकलेन्द्रिय [ दो, तीन और चार इन्द्रियधारी जीव ] जीवों में प्रत्येकको योनियाँ दो, दो लाख प्रमाण हैं । तिर्यञ्च, देव और नारकियोंकी गणना चार लाख प्रमाण है तथा मनुष्यवर्ग की योनियोंका प्रमाण चौदह लाख आगममें कहा है ।। ५० ॥
बड़े शोकका बिषय है कि बिचारे पापबन्ध करनेवाले संसारी जीव सुखोंसे सदा के लिए बिछुड़कर अनेक योनियों में लम्बे-लम्बे अरसे तक चक्कर काटते हैं। वे जितना अधिक दुःख भरते हैं उसका अन्त भी उतना अधिक दूर चला जाता है और उन्हें दुःखक्षयकी कभी प्राप्ति नहीं होती है ॥ ५१ ॥
दुःख - उपसंहार
क्रमश: सबही
और योनियोंके करोड़ों भेदों में वे जन्म लेते हैं और वहाँपर भी जन्म, जरा, मृत्यु आदि अनेक रोगोंको भरते हैं । कुटिल स्वभावयुक्त संसारी यह सब दुःख सहकर भी तिर्यञ्च गति में तनिकसा भी सुख नहीं पाते हैं। कुछ जीवोंको दूसरोंके उपद्रवोंके कारण शारीरिक दुःख प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥
Jain Education International
दूसरोंको अपने आप या दूसरों द्वारा मानसिक दुःखका संयोग पड़ता है तथा अन्य लोगोंके द्वारा शारीरिक और मानसिक दोनों दुःख सहे जाते हैं। यह सब ही दुःख इतने अधिक होते है कि कोई जीव इनका अनुमान नहीं कर सकता है ॥५३॥ इस प्रकार मुनिराज वरदत्तकेवलीने महाराज धर्मसेनको तिर्यञ्च गतिका स्वरूप, भेद, कायभेद, तिर्यञ्चगतिके कारण, १. म जरामृत्य° । २. [संख्याः ] ।
For Private Personal Use Only
षष्ठः
सर्गः
[१११]
www.jainelibrary.org