________________
बराङ्ग चरितम्
सप्तमः सर्गः
गति तृतीया शृणु संप्रवक्ष्ये समासतो मानुषजातिरेका । तामेव भूयो द्विविषां वदन्ति भोगप्रतिष्ठामथ कर्मसंस्थाम् ॥ १ ॥ पचोत्तरास्ते कुरवः प्रदिष्टा यथैव राजन्नथ देवसंज्ञाः । हैरण्यका हेमवताच रम्या हयाह्नवर्षा अपि पञ्च पश्च ।। २ ।। क्षेत्रस्वभावप्रतिवद्धसौख्या संख्यातस्त्रिशद 'धो भवन्ति । विशेषान्पृथग्लक्षणतोऽभिधास्ये ॥ ३ ॥ सुवर्णधातुप्रविकीर्णशोभाः । स्त्रीरिव भूविभाति ॥ ४ ॥
पुनर्भोगभुवां जाज्वल्यमानोत्तमरत्नचित्रा वैडूर्यमुक्तावरवज्ज्रसारैरलङ-कृता
तासां
सप्तम सर्ग
हे राजन् ! तीसरी गति ( मनुष्यगति ) के विषय में सावधानीसे सुनिये अब मैं कहता हूँ । मनुष्यत्व सामान्यकी दृष्टिसे विचार करने पर मनुष्य जाति एक ही प्रकारकी है, तो भी सुखप्राप्ति के द्वारोंकी अपेक्षासे विचार करनेपर इसी मनुष्य जाति के दो भेद हो जाते हैं; जहाँपर मनुष्य साक्षात् श्रमके विना भोगों को प्राप्त करता है वह भोगभूमि है और कर्मभूमि वह है; जहाँ मनुष्यको पुरुषार्थं पर ही विश्वास करना पड़ता है ॥ १ ॥
Jain Education International
भोगभूमि
मध्यलोकका विभाग बताते समय आगममें पाँच उत्तरकुरु ( जम्बूद्वीपमें एक, घातकीखण्डद्वीपमें दो और पुष्कराद्ध में भी दो) तथा इसी प्रकार हे राजन् ! सुमेरुको दूसरी ओर स्थित देवकुरुओं की संख्या भी पाँच है। इनके साथ-साथ हैरण्यक, हैमवत, रम्यक और हरि नामके देशोंका प्रमाण भी उक्त प्रकारसे पाँच, पाँच ही है ॥ २ ॥
इन सब देशोंकी रचना और वातावरण ही ऐसा है कि यहाँ उत्पन्न हुये जीवोंको एक निश्चित मात्रामें बिना परिश्रम के ही सुख प्राप्त होगा, इन सब सुखोंका प्रमाण गिननेपर तोस प्रकारका होता है। इन भोगभूमियोंके विशेष वर्णनको अब मैं अलगअलग लक्षण, आदि बताकर कहता हूँ ॥ ३ ॥
भोग भूमिको भूमि
भोगभूमियोंका धरातल सोने आदि धातुओंसे बना है अतएव इसकी छटा चारों ओर फैली रहती है । जाज्वल्यमान एकसे एक बढ़िया रत्नोंसे व्याप्त होनेके कारण वह चित्र-विचित्र होती है और भोगभूमियोंमें अत्यन्त सुलभ नीलम, मोती, उत्तम १. क संख्यावत । २. [ शोभा ] ।
१५
For Private Personal Use Only
सप्तमः सर्गः
[११३]
www.jainelibrary.org