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वराङ्ग
चरितम्
पुनस्तद्विविधप्रकारमपात्रपात्रप्रविभागमाहुः ।
मिथ्यादृशोऽपात्रमसंयताश्च पात्रं तु सद्दृष्टिसुसंयता ये ॥ २८ ॥ अपात्रदानेन कुमानुषेषु सुपात्रदानेन च
भोगभूमौ ।
दानशीलास्तस्मादपात्रं परिवर्जनीयम् ॥ २९ ॥
फलं लभन्ते खलु श्रद्धान्वितो भक्तियुतः समर्थो विज्ञान वल्लोभविवर्जितश्च । क्षान्त्यान्वितः सत्वगुणोपपन्नस्तादृग्विधो दानपतिः प्रशस्तः ।। ३० ।। सुदृष्टयस्तप्त महातपस्का' ध्यानोपवासव्रतभूषिताङ्गाः । ज्ञानाम्बुभिः संशमितोरुतृष्णाः प्रतिग्रहीतार उदाह्रियन्ते ॥ ३१ ॥
दानं
वस्तुकी शुद्धि और उपयोग, देय वस्तुको जुटानेके उपाय तथा ग्रहीता पर उसका फल इतनी बातोंकों भलीभाँति जान लिया है । तथा विवेकपूर्वक जो दान देते हैं वे जीव निस्सन्देह भोगभूमिको जाते हैं ।। २७ ।
पात्र-अपात्र
यहाँ दान ग्रहण करनेवालेकी सत्पात्रता और अपात्रताकी अपेक्षा से ग्रहीता प्रधान दो विभागोंमें बँट जाता है। मिथ्यादृष्टी और असंयमी जीवोंको अपात्र कहा, है तथा सत्यदेव, गुरु और शास्त्र में श्रद्धा करनेवाले सम्यग्दृष्टी सत्पात्र हैं ||२८|| मिथ्यादृष्टी अर्थात् असंयमी और भ्रान्तलोगों को दान देते हैं वे मनुष्य गतिकी कुत्सित योनियों में उत्पन्न होते हैं । सम्यक्ज्ञानी, संयमी, सद्धर्मी आदिको दान देनेसे भोगभूमि की प्राप्ति होती है और वहाँके सुखोंके रूपमें वे अपने दानका फल पाते हैं, अतएव जिनका स्वभाव दान देनेका है उन्हें प्रयन्न करके अपात्रोंसे बचना चाहिये ॥ २९ ॥
वाताका स्वरूप
दाताओंकी सर्वप्रथम योग्यता है उसकी गाढ़ श्रद्धा, श्रद्धा होनेपर भी यदि उपेक्षासे दिया तो वह निरर्थक ही होगा इसलिए दाताको भक्तियुक्त होना चाहिये । दान देनेकी सामर्थ्य भी अनिवार्य योग्यता है । दानविधिके ज्ञाता होनेके साथ दाताका निर्लोभी होना भी आवश्यक है। उसके स्वभावमें शान्तिके साथ-साथ सात्त्विकता होना भी अनिवार्य है । फलतः जिसमें ये सब गुण हैं वही श्रेष्ठ दाता है ॥ ३० ॥
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उत्तम पात्र
सम्यकदृष्टी, दुर्द्धर तपस्याओंको तपनेवाले तपस्वी, जिनके शरीरपर उत्कृष्ट ध्यान, उपवास, यम, नियम आदिक आभा चमकती है तथा सत्य ज्ञानरूपी जलसे जिन्होंने भोग और उपभोगोंकी उत्कट अभिलाषारूपी प्यासको पूर्ण शान्त कर दिया है, वे ही आदर्श प्रतिग्रहीता कहे गये हैं ॥ ३१ ॥
१. क क्षान्त्याद्यतः । २. म सुदृष्ट बस्सप्त । ३. कबभूरिसारा: ।
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सप्तमः
सर्गः
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