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वराङ्ग चरितम्
शास्त्राणि निःश्रेयसकारणानि आहारदानाभयभेषजानि । चत्वारि तान्यप्रतिमानि लोके देयानि विद्वद्धिरुदाहृतानि ॥ ३२ ॥ शास्त्रेण सर्वज्ञमुपैति दाता आहारदानादुपभोगवान्स्यात् । दयाप्रदानान्न भयं परेभ्यो व्यपेतरोगस्त्वथ भैषजेन ॥ ३३ ॥ कन्यासभहेमगवादिकानि
केचित्प्रशंसन्त्यनदारवत्ताः । स्वदोषतस्तानि विजितानि व्यपेतदोषैर्ऋषिभिविशेषात् ॥ ३४ ॥ कन्याप्रदानादिह रागवृद्धिषश्च रागाद्भवति क्रमेण । ताभ्यां तु मोहः परिवृद्धिमेति मोहप्रवृत्ती नियतो विनाशः ॥ ३५ ॥
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AIRavinायनाममा
दान शास्त्रके पंडितोंने मोक्षप्राप्तिके प्रधान कारण शास्त्र, शरीर स्थितिका निमित्त आहार, निर्विघ्न रूपसे तपस्यामें साधक औषधि तथा संसारमात्रको सुखो बनानेका अमोघ उपाय, अभय ये चारों अनुपम वस्तुएँ ही इस संसारमें देने योग्य बनायी हैं ॥ ३२॥
दान-भेद शास्त्रदानमें वह शक्ति है, जो एक दिन दाताको भी सर्वज्ञ पदपर बैठा देती है, सत्पात्रमें दिये गये आहार दानके हो । प्रतापसे लोग प्रचुर भोगोपभोगोंको प्राप्त करते हैं । जो दूसरोंको अभय देते हैं वे स्वयं भी दूसरोंके भयसे मुक्त हो जाते हैं। औषध दान देनेका ही फल है, जो लोग पूर्ण स्वस्थ होते हैं ।। ३३ ॥
कन्यादान कुछ संकुचित मनोवृत्ति के लोगोंका कहना है कि कन्याको भूमि, गृह, स्वर्ण, गाय, भैंस, घोड़ा आदि गृहस्थीमें आवश्यक वस्तुएँ देना भी सुदान है और प्रशंसनीय है। किन्तु उक्त प्रकारके दानसे हुए दोषोंके कारण, वह छोड़ने योग्य ही है। विशेषरूपसे उन साधुओंके द्वारा जिन्होंने गृहस्थी अदके दोषमय आचरणको छोड़ दिया है ।। ३४ ।।
[१२०] जब किसीको लड़की दी जायेगी तो उससे उन दोनोंमें राग हो बढ़ेगा, उस रागभावको कार्यान्वित करनेमें नाना । प्रकारकी परिस्थितियोंके कारण क्रमशः द्वेष उत्पन्न होगा। रागद्वेषसे मोहनीय दिन दूना और रात चौगुना बढ़ेगा और जब मोहका आत्मापर पूर्ण अधिकार हुआ तो विनाश निश्चित ही है ।। ३५ ।।
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