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बराङ्ग चरितम्
ते कल्पवृक्षाच दशकारा व्यालिङ्गिताः कामलतावतानैः । स्वभावशुद्धाः प्रतिभान्ति शश्वत्प्रियाङ्गनाङ्गे रमणा यथैव ॥ २३ ॥ भुवां तृणानां सरसां तरूणां विभुक्तिरुक्ता खलु भोगभूषु । ये तत्र गन्तुं प्रभवन्ति सन्तः समासतस्तानिह कीर्तयिष्ये ॥ २४ ॥ भद्राः प्रकृत्या विनयान्विता ये मायामदक्रोधवधेषु मन्दाः । सत्यार्जवक्षानृत्यतिदानशूरास्ते संभवन्त्युत्तमभोगभूमौ ॥ २५ ॥ तिष्ठन्ति यशांसि लोके । तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥ २६ ॥ ह्युपायं च फलप्रपञ्चम् ।
दानेन भोगाः सुलभा नराणां दानेन दानेन वश्या रिपवो भवन्ति दानं च दाता प्रतिसंग्रहीता देयं एतानि दानेऽधिकृतानि राजंस्ते यान्ति जीवाः खलु भोगभूमिम् ॥ २७ ॥
केतकी आदि सुविकसित पुष्पोंकी पाँच प्रकारकी माला अपने आप निकलती हैं, जिन्हें वे वृक्ष 'वरप्रसंग' करनेके इच्छुक भोगभूमियोंको लगातार देते रहते हैं ॥ २२ ॥
ये दशों प्रकारके कल्पवृक्ष चारों ओर उगी सुन्दर लताओंके समूहसे पूर्ण रूपसे घिरे हुए हैं। लताओंसे युक्त और अपने आप पवित्र और स्वच्छ वे कल्पवृक्ष ऐसे मालूम देते हैं जैसे कि सदा ही प्रेमिकाओं के बाहुपाशसे वेष्टित प्रेमी लगते हैं ||२३||
इत प्रकार भोगभूमि में उत्पन्न दूब, जलाशय, वृक्ष तथा भूमिकी शोभा और विभूतिको मैंने आपको बताया है। अब संक्षेपमें उनके विषय में कहूँगा जो भले मानुष मर करके वहाँ उत्पन्न हो सकते हैं ॥ २४ ॥
भोगभूमिके कारण
जो स्वभावसे ही सर्वसाधारणके हितैषी होते हैं, जिनकी प्रकृतिमें विनम्रता समायी रहती है, छलकपट, अहंकार, क्रोध और हिंसा करनेकी जिन्हें कभी इच्छा नहीं होती है, सत्य बोलने, सीधेपन, क्षमाशीलता तथा प्रचुर दान देने के समय ही जिनकी वीरता प्रकट होती है, ऐसे सज्जन उत्तम भोगभूमि (विदेहों में ) में उत्पन्न होते हैं ॥ २५ ॥
दान देने से मनुष्यको यहाँ और परलोकमें समस्त भोग सरलतासे स्वयं प्राप्त होते हैं । संसारमें उन्हींकी कीर्ति चिरकाल तक रहती है जो निस्वार्थ भावसे दान देते हैं । और तो और दान (क्षमा, आदि का दान ) के द्वारा रिपु भी वशमें हो जाते हैं, अतएव प्रत्येक मनुष्यको विधिपूर्वक सुपात्रको दान देना ही चाहिये ।। २६ ।।
हे राजन् ! दानके प्रसंग में जिन भद्रपुरुषोंने निरतिचार दानक्रिया, दाताकी योग्यता, ग्रहण करनेवालेकी सत्पात्रता, देय
१. मा पावक्ष्य प. लप्रदं च ।
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सप्तमः
सर्गः
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