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वराङ्ग
सप्तमः सर्गः
चरितम्
-RELEचय
सुपात्रदानात्सुरमानुषाणां विशिष्टगात्रेन्द्रियसौख्यभोगाः। सज्ज्ञानसत्त्वातिधीर्यशांसि भवन्त्ययत्नात्स्वयमेव तानि ॥ ४९ ॥ व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूयाः सत्यव्रताः क्षान्तिदयोपपन्नाः । संतुष्टशीलाः शुचयो विनीता निर्ग्रन्थशूरा इह पात्रभूताः ॥ ५० ॥ ज्ञानं तु येषां हि तपोधनानां त्रिकालभावार्थसमग्रदशि । त्रिलोकधर्मक्षपणप्रतिज्ञो' यान दग्धुमीशो न च कामवह्निः ।। ५१ ॥ येषां तु चारित्रमखण्डनीयं मोहान्धकारश्च विनाशितो यैः।।
परीषहेभ्यो न चलन्ति ये च ते पात्रभूता यतयो जिताशाः ॥ ५२ ॥ सुपात्रको दिये गये दानके फलका अवसर आते ही देवों ओर विशिष्ट मनुष्यों तुल्य अनेक सद्गुणोंका आगार शुभ शरीर प्राप्त होता है, इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति भी कल्याणकारी होती है, सुख और भोग भी शुभबन्धके ही कारण होते हैं, स्वभावसे ही उनका ज्ञान सत्यमय होता हैं बिना प्रयत्नके ही, उवकी शक्ति और बुद्धि इष्ट कार्यों में लगी रहती है तथा उनकी शारीरिक कान्ति और सुयश दिनों दिन बढ़ता ही जाता है ।। ४९ ।।
पाणिपात्र ही उत्तमपात्र सांसारिक प्रलोभनों और बाधाओंके सम्मुख अकेले ही जूझनेवाले निग्रन्थ मुनि ही सर्वोत्तम पात्र हैं, क्योंकि उन्हें दूसरोंका अभ्युदय देखकर बुरा नहीं लगता है अहंकार और ईर्ष्या तो उनके पास भी नहीं फटकते हैं, वे सत्यकी मूर्ति होते हैं, क्षमा, तथा दया गुणोंके तो वे भण्डार होते हैं, उनका स्वभाव संतोषसे ओतप्रोत होता है, हृदय और शरीर दोनों ही परम पवित्र होते हैं तथा ज्ञानवीर्यके पुज होते हुये भी वे विनम्रताकी खान होते हैं ।। ५०॥
जिन तपोधन ऋषियोंका ज्ञान तीनों कालों और लोकोंके समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको हथेलीपर रखे हुये आँवलेके समान देखता है, जो तीनों लोकोंमें धर्मका प्रचार करनेके लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, जिन्हें कामदेवकी ज्वाला जलाना तो कहे कौन में आंच भी नहीं पहुंचा सकती है ।। ५१ ॥
जिनका चरित्र किसी भी प्रकारके प्रलोभन, भय और बाधाओंसे खण्डित नहीं किया जा सकता है, मोहरूपी आध्यात्मिक अन्धकारको जिन्होंने समूल नष्ट कर दिया है तथा क्षुधा, तृषा आदि अठारह परीषह भी जिन्हें आत्म-साधनासे विचलित नहीं कर सकते हैं तथा आशारूपो नदीके उस पार पहुँचे हुये वे ऋषिराज ही सत्पात्र हैं ।। ५२ ।।
TAGRAMIRRITATE
१.मांत्रियोककर्म । Jain Education international
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