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वराङ्ग चरितम्
पञ्चमः सर्गः
अनन्त सर्वमाकाशं' मध्ये तस्य प्रतिष्ठितः । सुप्रतिष्ठितसंस्थानो लोकोऽयं वर्णितो जिनैः ॥ १ ॥ वेत्रासनाकृतिरधो मध्यमो झल्लरोनिभः । ऊर्ध्वो मृदङ्गसंस्थानो लोकानामियमाकृतिः ॥ २ ॥ तिर्यग्लोकप्रमाणेन रज्जुरेका प्रमीयते । तया चतुर्दश प्रोक्तास्त्रिलोकायामरज्जवः ॥ ३ ॥ अचलेन्द्रादधः सप्त ऊर्ध्वं सप्त विभाजिताः । ऊर्ध्वाधोलोकयोराहुर्मध्यमष्टप्रदेशिकम् 118 11 घनोदधिर्घनवातस्तनुवातश्च त्रयः । वायवो घनसंघाता लोकमावेष्ट्य धिष्ठिताः || ५ ॥
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पंचम सर्ग लोक पुरुष
दुर्धर तप करके केवल पदको प्राप्त सब हो कर्मजेता तीर्थंकरोंने कहा है कि आकाश द्रव्य सब जगह व्याप्त है और अनन्त है । इसी व्यापक आकाशके मध्य में यह जीवलोक स्थित है । जीवलोकका आकार और स्थिति दोनों अत्यधिक सुव्यवस्थित हैं ॥ १ ॥
जीवलोकका नीचेका भाग जिसे पाताललोक या अधोलोक नामसे पुकारते हैं, वह बेतसे बनाये गये मूढे ( स्टूल ) के समान है अर्थात् नीचे काफी चौड़ा और ऊपर अत्यन्त संकीर्ण, बीचका भाग या मध्यलोक झांजके आकारका है । यो समझिये उथला और गोल तथा ऊपरका भाग स्वर्गलोक या ऊर्ध्वलोककी बनावट खड़े मृदङ्गके समान है। संक्षेपमें यही तीनों लोकोंके आकार हैं ।। २ ।।
लोक प्रमाण
तिर्यंचलोक या मध्यलोकके विस्तारको माप मानकर उसे एक राजु प्रमाण माना है। इस राजु प्रमाणके अनुसार तीनों लोकोंकी सम्मिलित ऊँचाईको चौदह राजु प्रमाण कहा है ॥ ३ ॥
मध्यलोकके केन्द्र बिन्दुपर स्थित गिरिराज सुमेरुसे नीचेकी तरफके लोककी ऊँचाई सात राजु प्रमाण है, इसी प्रकार ऊपरके भागका प्रमाण भी सात ही राजु है । फलतः सुमेरुके मूल में स्थित आठ प्रदेश ही ऊर्ध्व और अधोलोकके बीचका ठीक केन्द्र स्थल है ।। ४ ।
लोक- अवलम्ब
इस सम्पूर्ण जीवलोकको घनोदधि वातवलय, घन वातवलय और तनुवातवलय इन तीनों वातवलयोंने हर तरफसे भलीभाँति घेर रखा है। यह वायुसमूह भी स्वयं अत्यन्त भारी और घनाकार ठोस है ॥ ५ ॥ १. [ अनन्तं सर्वमाकाशं ]
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पञ्चमः
सर्गः
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