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बरान
तृतीयः
चरितम्
सर्गः
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चिकित्सवः केचन दुःखजालं विभित्सवः केचन दुःखबीजम् । सिशंसवः' केचन दुःखर्वाह्न जिज्ञासवो द्रव्यगुणस्वभावान् ॥ २३ ॥ आधित्सवः केचन पुण्यकीति विवप्सवः केचन पुण्यबीजम् । सिष्ठाषवः केचन पुण्यतीर्थे लोकोत्तरं सौख्यमभीप्सवश्च ॥ २४ ॥ गृहस्थधर्म प्रतिपित्सवश्च गृहस्थधर्म प्रजिहासवश्च । तित्यक्षवो लोककुधर्ममार्ग मुनीन्द्रधर्म प्रजिघृक्षवश्च ॥ २५ ॥ वतातिपातप्रतिबोधनाय
गृहीतपूर्वव्रतवर्धनाय ।। महाव्रतानुग्रहकारणाय केचिद्ययुः प्राग्विदितार्थतत्त्वाः ॥ २६ ॥ यही कामना थी कि महाराजसे दीक्षा लेकर घोर तप करें, दूसरे लोग यही भावना भाते थे कि उनका आचरण पूर्ण रूपसे आगमके अनुकूल हो ।। २२ ।।
कतिपय मुनि दर्शनार्थी संसारिक दुखरूपी रोगोंका प्रतीकार करनेके लिए ही ध्यग्र थे, अन्य मुनिभक्त लौकिक दुखोंके बीज (मोह) को ही मसल देना चाहते थे, ऐसे भी यात्री थे, जिन्हें संसारके दुखीरूपी दावानलको बझा देना ही अभीष्ट था, अधिकांश गुरुभक्तों को जीवादि षड्द्रव्य, उनके गुण तथा स्वभावकी वास्तविक जिज्ञासा ही प्रबल थी ।। २३ ।।।
कुछ लोग पुण्य और यशका संचय करना चाहते थे, दूसरे पुण्यरूपी बीजको बोनेकी अभिलाषा करते थे अन्य लोगोंकी । यही लालसा थी कि पवित्र जिनधर्मरूपी तीर्थमें खूब गोते लगा, अन्य लोग अलौकिक ( मोक्ष ) सुखकी प्राप्ति कामना कर के चले थे ॥ २४ ॥
उन नागरिकोंमें ऐसे सज्जनोंकी भी पर्याप्त संख्या थो जो गहस्थ-धर्मको विविपूर्वक धारण करना चाहते थे दूसरे ऐसे । भी थे जो श्रावकाचारसे बढ़कर महाव्रतोंको लेना चाहते थे । जहाँ कुछ लोग संसारके मिथ्या धर्मोको सर्वथा त्यागनेके इच्छुक थे, वहीं अन्य लोग मुनिदीक्षा ग्रहण करनेके लिए कटिवद्ध थे ।। २५ ॥
मुनि बन्दनाको निकले जनसमूह में ऐसे लोगोंकी भी कमी न थी जो स्वयं जोवादि तत्त्वों और नौ पदाथोंके विशेषज्ञ होते हुए भी सिर्फ इसीलिए जा रहे थे कि गुरुचरणोंमें बैठकर वे व्रतोंके अतिचारोंके रहस्योंको अच्छी तरह समझ सकें और पूर्व गृहीत व्रतोंको निर्दोष रूपसे बढ़ा सकें, इतना ही नहीं, बल्कि इस प्रकारके आचरणसे अपने आपको महाव्रतोंका पात्र बना सकें ॥ २६ ॥ १.[शमिष्णवः]। २. सिस्नासवः]।
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