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बराङ्ग चरितम्
क्रोधो मानश्च मया' लोभः प्रत्याख्याननामकाः । गृहीतव्रतशीलस्य
क्रोधो मानश्च माया च लोभः संज्वलनात्मकाः ।
ते यथाख्यातचारित्रं नाशयन्ति न संशयः ॥ ३२ ॥ चतुष्प्रकार मायुकं नारकं दैवमेव च ।
तिर्यग्योनि च मानुष्यं स्थितिसत्कारणं स्मृतम् ॥ ३३ ॥ आयुष्कं नारकं दुःखं तिर्यग्योनि च मानुषम् । सुखदुःखविमिश्रं तं दैवमैकान्तिकं सुखम् ॥ ३४ ॥
दयासंयमघातिनः ॥ ३१ ॥
जो आत्मामें सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्रको भी प्रकट नहीं होने देते हैं । [ (२) अप्रत्याख्यान (अल्पत्याग अर्थात् देश संयम भी न करनेकी प्रवृत्ति ) नामके क्रोध, मान, माया और लोभ आत्माकी संयमासंयम अर्थात् अणुव्रतमय प्रारम्भिक चारित्र पालन करने की भावनाको भी बलपूर्वक दवा देते हैं ॥ ३० ॥
( ३ ) जो क्रोध मान, माया और लोभ पांचों महाव्रतों के पालनसे होनेवाले पूर्ण संयमको विकसित नहीं होने देते हैं, महाव्रती होनेसे रोकते हैं उन्हें शास्त्रमें प्रत्याख्यानावरणी कषाय कहा है ।। ३१ ।।
संज्वलन ( संयम के साथ धीरे किन्तु स्पष्टरूपसे चलनेवाले ) क्रोध, मान, माया और लोभ, यद्यपि अपने सूक्ष्मरूपके कारण सम्यक्त्व, विकल और सकलचारित्रमें बाधक तो नहीं होते हैं तो भी यथाख्यात ( स्वाभाविक परिपूर्ण ) चारित्रका विकास नहीं होने देते हैं ऐसा निश्चय है ।। ३२ ।।
आयुकर्म
चतुर्थंकर्म आयु के मुख्यभेद चार ही हैं- नरकयोनि, तिर्यञ्जयोनि, मनुष्य योनि और देवयोनि । इन चारों योनियोंमें रोक रखने में समर्थं प्रधान कारणको ही शास्त्रोंमें आयुकर्म नाम दिया है ।। ३३ ॥
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आयु में बिना विराम सदा ही दुख भरने पड़ते हैं, तिर्यञ्च आयु और मनुष्य आयुमें सुख तथा दुख दोनोंके मिश्रणका जीवको अनुभव करना पड़ता है तथा यहींपर जीव अपना अधिक विकास भी कर सकता है - तथा देव आयुका फल दुखकी मिलावटसे हीन शुद्ध सुख ही होता है ।। ३४ ।।
१. क माया च लोभः । २. क स्थितेस्तत्कारणं ।
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चतुर्थः
सर्ग:
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