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वराङ्ग
चरितम्
क्रोधोदयो दिवतीयस्तु मध्यक्षेत्रदरीसमः । उपत्युपशमं कालाच्छृतितोयाचेतसः ॥ ६७ ॥ क्रोधोत्थानस्तृतीयस्तु सिकतालेखसंनिभः । ज्ञानानिलेन संस्पृष्टो गतावेकीकरोत्यसौ ॥ ६८ ॥ क्रोधोदयश्चतुर्थो यो जललेखा समो मतः । स पुनः कारणाज्जातः क्षिप्रमेवोपशाम्यति ॥ ६९ ॥ आद्यो मानोदयस्तोत्रः शैलस्तम्भनिभो मतः । नोपैति मार्दवं यस्माज्जीवः कालान्तरादपि ॥ ७० ॥ मानोदयो दिवतोयस्तु समोऽस्थ्नेत्यभिधीयते । उपैति मार्दवं तस्माज्ज्ञानाग्निपरितापितः ॥ ७१॥
दूसरे प्रकार अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध कषायको जो छाप आत्मापर पड़ती है उसे वैसी ही समझिये जैसी कि गोली पृथ्वीके सूखनेपर उसमें पड़ी दरार होती है। यह संस्कार काफी समय बीतनेपर अथवा शास्त्ररूपो ज्ञान = जलवृष्टिसे चित्त स्नेहार्द्र हो जानेपर उपशमको प्राप्त हो जाता है ।। ६७ ।।
तीसरे अर्थात् प्रत्याख्यान क्रोधके उद्धार वैसे ही होते हैं जैसा कि बालूके ऊपर लिखा गया लेख, क्योंकि ज्यों ही उस पर ज्ञानरूपी तीव्र वायुके झोंके लगते हैं त्यों ही लेखकी समस्त रेखाएँ ( कषायोंके उभार ) पुरकर एक-सी हो जाती हैं ॥ ६८ ॥
अन्तिम प्रकार अर्थात् संज्वलन क्रोधकी आत्मामर पड़नेवाली झलककी पानीपर खींची गयो रेखासे तुलना की गयी है अतएव जिस कारणसे वह उत्पन्न होता है उसके दूर होते हो तुरन्त विलीन हो जाता है ।। ६९ ।।
मान निदर्शन प्रथम प्रकारका ( अनन्तानुबन्धी ) मान इतना तीव्र और विवेकहीन होता है कि शास्त्रकारोंने उसे पत्थरके स्तम्भके । समान माना है इसीलिए अनन्तकाल बीत जानेपर भी उससे आक्रान्त जीवमें तनिक भी मृदुता या विनम्रता नहीं आती है ।। ७० ॥
पुराण पुरुष कहते हैं कि दूसरा मान ( अप्रत्याख्यान मान ) का उदय आत्मामें हड्डीके समान कर्कषता ला देता है, परिणाम यह होता है कि जब जीव ज्ञानरूपी आगमें काफी तपाया जाता है तो उसमें कुछ-कुछ विनम्रता आ जाती है ।। ७१ ॥ १.क गतावेरिकरोत्यसौ, [ गर्तामेको° 11 २. म जले लेखा।
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