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वराङ्ग
चतुर्थ :
चरितम्
सर्गः
मानोत्थानस्तृतीयस्तु आर्द्रकाष्ठसमो मतः । ज्ञानस्नेहसमाभ्यक्तस्ततो याति हि मार्दवम् ॥ ७२ ।। मानोदयश्चतुर्थो यो वालवल्लीनिभो मतः । श्रुतिहस्तसमास्पष्टो मृदुत्वं याति तत्क्षणात् ॥ ७३ ॥ आद्यो मायोदयस्तीवो वेणुमूलसमो मतः । वक्रशीलो भवेत्तेन नोपयात्यार्जवं सदा ॥ ७४ ॥ मायोदयो द्वितीयस्तु मेषशृङ्गसमो मतः। हृद्यन्यच्च समादाय तेनान्यत्प्रकरोति सः ॥ ७५ ।। मायोत्थानस्तृतीयस्तु गोमत्रि'कसमो मतः । अर्धमघमजुत्वं च अधं मायाकृतं भवेत् ॥ ७६ ॥
तृतीय अर्थात् प्रत्याख्यान मानका उभार होनेपर जीवमें उतनी हो कठोरता आ जाती है जितनी कि गीली लकड़ीमें होती है, फलतः जब ऐसा जीवरूपी काष्ठ ज्ञानरूपी तैलसे सराबोर कर दिया जाता है तो उसके उपरान्त ही वह सरलतासे झुक जाता है ॥ ७२ ॥
अन्तिम संज्वलन मानके संस्कारकी बालोंकी धुंघराली लटसे तुलना की है, आपाततः ज्यों ही उसे शास्त्रज्ञानरूपी हाथसे स्पर्श करिये त्योंही वह क्षणभरमें हो सीधा और सरल हो जाता है ।। ७३ ॥
माया-उपमा प्रथम अनन्तानुबन्धी मायाके उदय होनेपर जीवकी चित्तवृत्ति बिल्कुल बाँसकी जड़ोंके समान हो जाती है। इसी कारण उसका चाल-चलन और स्वभाव अत्यन्त उलझे तथा कुटिल हो जाते हैं और उनमें कभी भी सीधापन नहीं आता है ॥ ७४ ॥
अप्रत्याख्यानावरणी मायाका आत्मापर पड़नेवाला संस्कार मेढ़ेके सींगके समान गुड़ीदार होता है । फलतः इस कषायसे आक्रान्त व्यक्ति मनमें कुछ सोचता है और जो करता है वह इससे बिल्कुल भिन्न होता है ।। ७५ ।।
प्रत्याख्यानावरणी मायाके उभारकी तुलना चलते बैलके मूत्रसे बनी टेढ़ी मेढ़ी रेखासे होती है, परिणाम यह होता है , [ ७३ ] कि उसकी सब ही चेष्टाएँ बैलके मूत्रके समान आधी सीधी और आधी कुटिल एवं कपटपूर्ण होती है । ७६ ॥
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