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समाचार
तृतीयः
वराङ्ग चरितम्
धर्मानुबन्धात्सुखमेव नित्यं पापानुबन्धादथ दुःखमेव । मिश्रानुबन्धात्सुखदुःखयोगः संक्षेपतस्ते त्रिविधं मयोक्तम् ॥ ४९ ।। क्षीराणि वर्णेन समानि लोके रसेन नानागुणवन्ति तानि । एकानि' निघ्नन्ति निपीतमात्रमन्यान्यथारोग्यवपुःकराणि ॥५०॥ एवं हि धर्माश्च बहुप्रकारा नाम्ना समाना गणतो विशिष्टाः। दुःखार्णवे केचन मज्जयन्ति सुखार्णवे केचन निक्षिपन्ति ।। ५१ ॥ केचित्पुनस्ते नरकं नयन्ति नयन्ति तिर्यग्गतिमेव केचित् । मनुष्यलोकं गमयन्ति केचित्स्वर्गापवगौ च नयन्ति केचित ॥५२॥
सर्ग:
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दूसरे कुछ शास्त्रोंपर आस्था करनेसे आत्माकी पाप प्रवृत्तियोंको ही प्रोत्साहन मिलता है और अन्य कुछ शास्त्रोंके पठन-पाठनसे मनुष्यको पाप-पुण्यमय मिश्र चेष्टाएँ करनेका चाव होता है। फलतः क्रमशः इनके फल भो सुख, दुःख और सुख-दुख होते हैं ।। ४८ ॥
संक्षेपमें यों समझिये कि धर्मानुबन्धी शास्त्रोंके श्रवण और पठनसे शुद्ध सुखकी ही प्राप्ति होती है, पापानुबन्धी शास्त्रोंके पठन पाठनका फल केवल दुखसंगम ही होता है और मिश्रानुबन्धो शास्त्रोंके अभ्यास करनेसे मनुष्य मिले हुए सुख और दुःख दोनों को भरता है। थोड़ेमें शास्त्रोंका यही वर्गीकरण है ।। ४९ ।।
धर्म-धरूपक जहाँतक रंगका सम्बन्ध है ससारके सबही धर्म एक श्वेत रंगके हो होते हैं लेकिन उनकी रासायनिक शक्तियोका विचार करनेपर प्रत्येकमें अलग-अलग अनेक गुण पाये जाते हैं। कारण, कुछ ऐसे दुध हैं जिन्हें पोते ही जीव और पुद्गलका सम्बन्ध तुरन्त टूट जाता है और दूसरे ऐसे हैं जिनके उपयोगसे मृततुल्य शरीर भी लहलहा उठते हैं। संसारमें प्रचलित नानाप्रकारके अनेक धर्मोकी भी यही अवस्था है ।। ५० ।।
नामके लिए सबही धर्म हैं, पर उनके तत्त्व, आचरण आदि गुणोंमें बड़ा अन्तर है। जबकि कुछ धर्मोको अंगीकार करनेसे जीव अथाह दुखसागरमें डूब जाते हैं तब दूसरे धर्मोका सहारा पाते ही प्राणी आनन्दके साथ सुखसागरमें गोते लगाता है ।। ५१ ॥
किन्हीं धार्मिक सिद्धान्तोंके आचरण जीवको नरकमें ढकेल देते हैं, दुसरी धार्मिक मान्यताएँ प्राणियोंको तिथंच गतिको वेदनाएँ भरवाती हैं, अन्य धार्मिक तत्त्वोंका श्रद्धान और आचरण जीवोंको मनुष्य गतिमें आनेका अवसर देता है तथा शेष शुभ और शुद्ध उपयोगकी प्रेरणा देनेवाले धर्म इस जोवको क्रमशः स्वर्ग और अपवर्ग पदोंपर स्थापित करते हैं ॥ ५२ ।।
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