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बराङ्ग चरितम्
चतुर्विध मतिज्ञानं तदेवाष्टौ च विंशतिः । द्वात्रिंशत्पुनरन्येन स्मृतिमावत्य तिष्ठति ॥१०॥ अवग्रहहावायानां धारणानां च संततिः । शश्रषामार्गणापेक्षाधारणानि' रुणद्धि सा ॥ ११ ॥ पर्यायाक्षरसंघातः पदं संघात एव च। प्रतिपत्तिश्च योगश्चानियोगदद्वारमेव च ॥ १२ ॥
मनापर्ययज्ञान ( विकल प्रत्यक्ष प्रमाण ) और केवलज्ञान ( सकल प्रत्यक्ष ) इन पाँचों ज्ञानोंको ढककर जीवको अज्ञान अन्धकारमें डाल देता है ।। ९॥
मतिज्ञानावरणी स्थूलरूपसे मतिज्ञान चार ( अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा) प्रकारका ही है इन चार प्रकारोंको ज्ञानके साधनोंसे मिलानेपर मतिज्ञानके अट्ठाइस भेद हो जाते हैं । अर्थात् पाँचों इन्द्रियों और मनसे अर्थक पृथक्-पृथक् अवग्रह आदि ( ६४४ = २४) होनेसे इन चौबीस चार प्रकारका व्यञ्जन-अवग्रह और ( कारण मन और चक्षुसे व्यजनावग्रह नहीं होता) इस प्रकार ( २४ में ४ ) जोड़नेपर कुल २८ भेद होते हैं। उक्त अट्ठाइस भेदोंमें मूल चार भेद जोड़ देनेसे ( २८ + ४ = ३२) यही मतिज्ञान बत्तीस प्रकारका हो जाता है ॥ १० ॥
स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध मतिके ही नाम हैं। मतिज्ञानावरणी कर्म इन स्मृति आदिको रोक देता है । अवग्रह मतिज्ञानावरणीकम पदार्थक साधारण ज्ञानको भी रोक देता है, अर्थकी विशेषताओंकी जिज्ञासा मात्रका मूलोच्छेद करना ईहा मतिज्ञानावरणीका काम है, विषयके निर्णयात्मकज्ञानमें अवाय-मतिज्ञानावरणी ही बाधक होता है और धारणा मतिज्ञानावरणी। कर्म उक्त प्रकारसे जाने हुए भी पदार्थज्ञानके दृढ़ संस्कारको नहीं होने देता है ॥ ११ ॥
श्रुतज्ञानवरणी विशेषरूपसे देखनेपर श्रुतज्ञानावरणीके भी अधोलिखित बीस भेद होते हैं-पर्याय (निगोदिया जीवके जन्मके प्रथम समयमें रहनेवाला श्रुतज्ञान, जो कभी आवृत नहीं होता), पर्याय समास (पर्याय ज्ञानसे अक्षर ज्ञानतकके ज्ञानके भेद ), अक्षर ( पर्याय समास ज्ञानसे अनन्तगुना ज्ञान ) अक्षर समास (पद ज्ञान तकके ज्ञानभेद ), पद (अक्षरज्ञानसे संख्यातगुना ), पदसमास ( संघात तकके सब भेद ), संघात (पदसे संख्यातगुना एक गतिका ज्ञान), संघातसमास, प्रतिपत्तिक ( संघातसे संख्यात हजारगुना चारों गतियोंका ज्ञान ), प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग (प्रतिपतिसे संख्यात हजारगुना चौदह मार्गणाओंका ज्ञान ) ॥१२॥ १.ममार्गणोपेक्षा । २. म योगश्च नियोग', [योगश्चानुयोग°]।
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