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चतुर्थः
चरितम्
प्राभृतं प्राभृतं चैव प्राभृतं वस्तुपूर्वकम् । श्रुतज्ञानावृतिस्तत्र समासेन च विंशतिः ॥ १३ ॥ ग्रन्थार्थो च न जानाति ज्ञात्वा चोपदिशन्पुनः । अशक्तः प्रतिपादयितुं श्रुतज्ञानावृतेः फलम् ॥ १४ ॥ दिवभेदमवधिज्ञानं गुणतो जन्मतश्च यत् । तज्ज्ञानं वियते येन सावधिज्ञानसंवृतिः ॥ १५ ॥ तदिवनाशोऽवधिज्ञान प्राणिषत्पद्यते पुनः । देवानां नारकाणां च भवप्रत्ययकं स्मृतम् ॥ १६ ॥
सर्गः
नामLADARJHALIमचामान्यमान्यमामा
अनुयोगसमास, प्राभृत (एक-एक अक्षर करके चतुरादि अनुयोग वृद्धि युक्त अनुयोगज्ञान), प्राभृत-प्राभृत समास, प्राभूत ( चौबीस बार सविधि बढ़ा प्राभूत प्राभूत ज्ञान ), प्राभृत समास, वस्तु (प्राभृत ज्ञानसे सविधि बीसगुना ज्ञान ), वस्तुसमास, पूर्व ( वस्तुसे क्रमशः दश, चौदह, आठ, अठारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दश, दश, दशगुने उत्पाद आदि चौदह पूर्व) तथा पूर्वसमास संक्षेपमें श्रुतज्ञानावरण बीस प्रकारका है ।। १३ ।।
प्रकट रूपमें श्रुतज्ञानावरणीका यही फल होता है कि उससे आक्रान्त जीव न तो शास्त्रको समझता ही है और न उसके प्रतिपाद्य अर्थको ही। तीसरी अवस्था भी होती है, जब प्राणी ग्रन्थ और विषयार्थ दोनोंको स्वयं जानकर भी जब दूसरोंको उपदेश देता है तो उनको भलीभाँति नहीं समझा सकता है ।। १४ ।।
अवधिज्ञानावरणी साधारणतया अवधिज्ञान दो ( भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ) प्रकारका होता है। साधना आदिसे उत्पन्न आत्मीक गुणके (क्षयोपशम ) के कारण गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा योनिविशेष ( देव नारक ) में जन्म लेनेसे ही क्षयोपशम पूर्वक होनेवाला भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। इन दोनों प्रकारके ज्ञानोंको जो कर्म ढंक देते हैं उन्हें क्रमशः भवप्रत्यय-अवधिज्ञानवरणी और क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञानावरणी कहते हैं ।। १५॥
इस अवधिज्ञानावरणी कर्मका नाश हो जानेपर ही संसारके जीवों में अवधिज्ञानका उदय होता है । उक्त दो प्रकारके अवधिज्ञानोंमें भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके ही कहा गया है ॥ १६ ॥ १. [ तद्विवाशेऽवधिज्ञान]।
चाराचELEXEILARITATE
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