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( १८ ) श्रद्धानकरि यहु ही शरणा पकडो, ऐसा उपदेश है।
श्रागें इसहीको दृढ करें हैं,अप्पाणं पि य सरणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥३१॥ . भाषार्थ-जो आपकू क्षमादि दशलक्षणरूप परिणत करै, सो शरणा है । बहुरि जो तीब्रकषाययुक्त होय है सो आपकरि श्रापकू हण है । भावार्थ-परमारथ विचारिये तो आपकू आपही राखनेवाला है, तया आप ही घातनेवाला है। क्रोधादिरूप परिणाम कर है, तब शुद्ध चैतन्यका घात होय है । बहुरि क्षमादि परिणाम करै है, तब आपकी रक्षा होय है। इनही भावनिसों जन्ममरण रहित होय अविनाशी पद प्राप्त होय है।
- दोहा । वस्तुस्वभावविचारतें, शरण आपकू आप। व्यवहारे पण परमगुरु, अवर सकल संताप ॥२॥
इति अशरणानुप्रेक्षा समाप्ता ॥२॥
अथ संसारानुप्रेक्षा लिख्यते। - प्रथमही दोय गाथानिकरि संसारका सामान्य स्वरूप
एक चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुवारं ॥३२॥