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(११३) भाषार्थ-सर्व ही द्रव्यनिकै परस्पर अवगाहना देनेकी शक्ति है। यह निश्चयतें जाणहु । जैसैं भस्मक अर जलकै अवगाहन शक्ति है तैसें जीवके असंख्यात प्रदेशनिकै जाने । भावार्थ-जैसे जलकुं पात्रविषै भरि तामें भस्म डारिये सो समावै । बहुरि तामें मिश्री डारिये सो भी समावै । बहुरि तामें सुई चोपिये सो भी समावै तैसे अवगाहनशक्ति जाननी. इहां कोई पूछै कि सर्व ही द्रव्यनिमें अवगाहन शक्ति है तो आकाशका असाधारण गुण कैसे है ? ताका समाधान-जो परस्पर तो अवगाह सर्व ही देहैं तथापि आकाशद्रव्य सर्वते बडा है। तात या सर्व ही समावै यह असाधारणता है । जदि ण हवदि सा सत्ती सहावभूदा हि सव्वदलवाणं एकेकास पएसे कह ता सव्वाणि वट्ठति ॥२१५॥ ___ भाषार्थ-जो सर्व द्रव्यनिकै स्वभावभूत अवगाहनशक्ति न होय तो एक एक आकाशके प्रदेशविष सर्व द्रव्य कैसे व● । भावार्थ-एक आकाश प्रदेशविर्षे अनन्त पुद्गलके प. रमाणु द्रव्य तिष्ठै हैं । एक जीवका प्रदेश एक धर्मद्रव्यका प्रदेश एक अधर्मद्रव्यका प्रदेश एक कालाणुद्रव्य ऐसें सर्व तिष्ठै हैं सो वह आकाशका प्रदेश एक पुद्गलके परमाणुकी बरावर है सो अवगाहनशक्ति न होय तो कैसे तिष्ठै ? ___ आगें कालद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,- . सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो। एकेकासपएसे सो वट्टदि एक्विको चेव ॥ २१६ ॥