Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा। (भाषाटीका) भाषाकार स्वर्गीय पं० जयचंद्रजी, जयपुर। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. CR मुलमजैनग्रंथमाला पुष्प ३ TAIN श्रीपरमात्मने नमः। श्रीमुनिस्वामिकार्तिकेय विरचित स्वामिकार्तिकेयानप्रेक्षा स्वर्गीय पं0 जयचंद्रजी कृत वचनिका सहित । ब जिसको गांधी हरीभाई देवकरण एंडसंस् संरक्षित - भारतीय जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्थाने धरणगांव निवासी झूमकराम भगवानसा दि०वीसा ओसवालकी है। द्रव्यसे प्रकाशित किया। प्रथमावृत्ति } भाद्रपद वी० सं० २४४७ { न्योछावर ॥ TE Meeowweeeeeews Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकपन्नालाल वाकलीवाल, महामंत्री-भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनीसंस्था, ८ महेंद्रवोसलेन, श्यामबाजार-कलकत्ता, A मुद्रकश्रीलालजैन काव्यतीर्थ जैनसिद्धांतप्रकाशक पवित्र प्रेस, . ८ महैदवोसलेन, श्यामबाजार-कलकत्ता। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | धरणगांव निवासी शेठ भूमकराम भगवानसा दिगम्बरी वीसा आसेवाल, आजसे चारवर्ष पहिले ( वी. सं. २४४३ ) आठसौ रुपये प्रदान कर संस्थाके दानी सहायक हुये थे । यह रकम उन्होंने अपने मृत्युसमय ज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थ जिनवाणीके प्रचारार्थ निकाली थी । तदनुसार " तत्वज्ञानतरंगिणी" ग्रंथ प्रकाशित किया गया और उसकी आई न्योंछांवरसे आज यह दूसरा प्रन्थ सुलभजैन ग्रंथमालामें निकाला जाता है । संस्थामें दान किये गये द्रव्यसे दाताकी इच्छानुसार ग्रंथ प्रकाशित कर लागत मात्र न्योछावरसे सर्वसाधारणको दिये जाते हैं और उनकी संपूर्ण द्रव्य उठ आनेपर दूसरा ग्रन्थ छपाया जाता है 1 इसप्रकार एक बार दान देकर सैकड़ों वर्षोंतक कुटुम्बियों की कीर्तिलता जीवित रखनेवाले श्रीमानको हायक हो स्वपर कल्याण करना चाहिये । अपनी या अपने ' संस्थाके दानी स मंत्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEEG संस्थाके छपे हुये भाषाटीका सहित ... उत्तमोचम जैन शास्त्र। परीक्षामुख ) संस्कृतप्रवेशनी-दोनों भाग १) संस्कृतप्रवेशिनी-द्वितीय भाग ॥) हरिवंशपुराण बडे नयीसरलवचनिका४ तस्वज्ञानतरंगिणी १६ आत्मप्रबोध सुभाषितरत्नसंदोह खुलेपत्र २) . , जिल्दका मकरध्वजपराजय-हिन्दीमें काम और जिनदेवका युद्ध कच्ची जिल्दका पक्की जिल्दका परमाध्यात्मतरंगिणी-संस्कृत और भाषाटीका सहित ( थोडी) है २॥ जिनदत्तचरित्र भाषावचनिका ॥) जिल्दका . भाराधनासार सजिल्द १० तत्त्वार्थसार ११००० भाषाटीका ४) पात्रकेशरीस्तोत्र भाषाटीका सहित गोम्मटसारजी-दोनोंकांड पूर्ण, और लब्धिसार क्षपणासार सहित खुलेपत्र ४१०० पृष्ठ ५) अन्यत्रयी ॥) जिल्दकी my गोम्मटसारजी-कर्मकांड पूर्ण, लब्धिसार क्षपणासारजी, और भाषा संदृष्टि सहित . ३४) चारित्रसार । दूसरोंके छपाये हुये ग्रंथ । शाकटायन धातुपाठ 4) लंघीयस्त्रयादि संग्रह ।) विधवा विवाह खंडन । विशेष जानने के लिये बडा सूचीपत्र मंगाकर देखिये। मिलनेका पता- श्रीलाल जैन, मंत्री-भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था, ८ महेंद्रवोस लेन, श्यामबाजार कलकत्ता Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ( प्रथम संस्करण ) पाठक महाशय ! हमारी इच्छा थी कि मूल ग्रन्थकर्ताका जीवन च "रित्र यथाशक्ति संग्रह करके प्रकाशित किया जाय परंतु यथासाध्य अन्वेण करनेपर भी ग्रन्थकर्ताका कुछ भी तथ्य संग्रह नहिं हुवा. विशेष खेदकी बात यह है कि स्वामिकार्तिकेय मुनिमहाराज कौनसी शताब्दी में हुए सो भी निर्णय नहिं हुवा यद्यपि दंतकथापरसे प्रसिद्ध है कि ये आचार्यवर्य विक्रम संवत्से दो तीन सौ वर्ष पहिले हुये हैं. परंतु जबतक कोई प्रमाण न मिले इस दंतकथापर विश्वास नहिं किया जा सक्ता. आचार्यों की कई पट्टावली भी देखी गईं उनमें भी इनका नाम कहीं पर भी दृष्टिगो• चर नहिं हुवा किंतु इस ग्रंथकी गाथा ३९४ की संस्कृत टीका वा भाषा टीका में इतना अवश्य लिखा हुवा मिला कि - " स्वामिकार्त्तिकेय मुनि कोंचराजाकृत उपसर्ग जीति देवलोक पाया परंतु कचराजा कब हुवा और यह वाक्य कौनसे प्रथके आधारसे टीकाकारने लिखा है सो हमको मिला नहीं. एक मित्रने कहा कि इनकी कथा किसी न किसी कथा कोमें मिलेगी. परंतु प्रस्तुत समयतक कोई भी कथाकोश हमारे देखने में नहिं आया परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ये बालब्रह्मचारी आचार्यश्रेष्ठ दो हजार वर्षसे पहिले हो गये हैं. क्योंकि इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा व रचनाकी शैली विक्रमशताब्दी के बने प्राकृत पुस्तकोंसे भिन्न प्रकारकी हृीं यत्र तत्र दृष्टिगत हुई. प्रचलित आधुनिक प्राकृतभाषा के व्याकरणोंमें भी - इस ग्रन्थ आर्षप्रयोगोंकी सिद्धि बहुत कम मिलती है. इसकारण मूल पुस्तकको शुद्ध करनेमें भी सिवाय प्राचीन प्रतियोंके कोई साधन प्राप्त नहिं हुवा है । "" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रन्थमें मूल गाथा ४८९ हैं जिनमें मुमुक्षुजनोंके लिये प्रायः आवश्यकीय सब ही विषय संक्षिप्त स्पष्टतया वर्णन किये गये हैं. परंतु मुख्यतया इनमें संसारके दुःख दिखाकर संसारसे विरक्त होनेका उपदेश - है, इसकारण समस्त विषय द्वादश अनुप्रेक्षाके कथन में ही गर्भित करके वर्णन किये गये हैं. मानो घडेमें समुद्र भर दिया गया है। इस ग्रंथपर एक टीका ता वैद्यक ग्रंथके कत्ती जगत्प्रसिद्ध दिगंबरजैनाचार्य वाग्भट्ट विरचित है. जिसका उल्लेख पिटर्सनसाहव तथा बूथरसा. हव की किसी रिपोर्ट में किया गया है. उसके आदि अन्तके श्लोक छपे हुये एकवार हमारे देखने में आये थे । दूसरी टीका-पद्मनंदी आचार्यकै पट्टपर सुशोभित त्रैविद्यविद्याधरषड्भाषाकविचक्रवर्ति भट्टारक शुभचन्द्राचार्य सागवाडा पट्टाधीशकृत है. जिसमें अनेक प्राचीन जैनग्रंथों के प्रमाणोंसे ७००० श्लोकोंमें विस्तृतव्याख्या की है. तीसरे-किसी महाशयने प्राकृत पदोंकी संस्कृत छाया लिखी है. इसके सिवाय एक प्राचीन गुर्जर भाषामिश्रित टिप्पणिप्रन्थ भी प्राप्त हुवा है. इन्ही सब ग्रंथोंपरसे मूल, तथा जयचन्द्रजीकी दो बचनिकापरसे शुद्ध करके मुद्रणयंत्रद्वारा इस ग्रंथकी मुलभ प्राप्ति की गयी है. मूलपाठमें जहां कहीं पाठान्तर था, कहीं २ टिप्पणीमें दिखाया गया है तथा संस्कृत टीकाकी प्रतिका पाठ शुद्ध समझकर वही पाठ रक्खा गया है। यद्यपि हमारे कई मित्रोंकी सम्मति थी कि जयचन्द्रकृत वचनिका (भाषाटीका ) ढुढाडीभाषामिश्रित पुराने ढंगकी है. इसको वर्तमानकी प्रचलित हिंदीभाषामें परिवर्तन करके छापना उचित है. परन्तु हमने ऐसा नहिं किया, कारण जैनियोंका जो कुछ हिंदी साहित्य-धर्मशास्त्र, पारलौकिक पदार्थविद्या वा अध्यात्म पुराणादिक हैं वे सब जयपुरीभाषा और Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगरेकी प्राचीन व्रजभाषाके गथपद्यमें ही हैं. यदि इस प्राचीन हिंदी सा. हित्यको सर्व साधारणमें प्रचार नहिं करके सर्वथा आजकलकी नवीन गढी हुई भाषामें ही अनुवादके गूंथ छपाये जायगे तो कहांतक अनुवाद किया जायगा क्योंकि प्रथम तो प्राचीन भाषाके गूथ बहुत हैं. दूसरे-हमारी क्षुद्रजैनसमाजमें ऐसे बहुत कम विद्वान हैं जो प्राचीन हिंदी साहित्यके समस्त विषयों के सैंकडों गूंथोंका नयी हिंदीमें अनुवाद कर सक्ते हो. तीसरे ऐसा कोई समझदार धर्मात्मा धनाढय सहायक भी तो नहीं दीखता, जो सबसे पहिले करने योग्य जिनवाणीके जीर्णोद्धार करने में पुण्य वा नामवरी समझता हो. जब समस्तप्रकारके प्राचीन हिंदी जैनगंथोंके अनुवादपूर्वक प्रकार वित करनेका बर्तमानमें कोई साधन नहीं है और उपदेशकोंके द्वारा पाठशालायें स्थापन करनेका प्रचार बढाया जाता है तो कुछ ग्रन्थ प्राचीन भाषाके भी छापकर सर्व साधारणको इस भाषाके जानकार कर देना ब. हुत लाभ दायक हो सकता है क्योंकि नयी भाषाकै अन्धोंकी प्राप्ति नहीं होगी तो प्राचीन भाषाका ज्ञान होनेसे हस्तलिखित प्राचीन भाषाके ग्रंथोंकी स्वाध्याय करके ही हमारे जैनीभाई ज्ञानप्राप्ति कर सकेंगे. परंतु-यह भाषा कुछ मराठी गुजरातीकी तरह सर्वथा पृथक भी तो नहीं हैं ? हम जहांतक विचारते हैं तो कोई २ ठेठ ढुंढाडी शब्द होने तथा द्वितीया पं. चमी आदि विभक्तिव्यवहारका किंचिन्मात्र विभेदरूप होनेके सिवाय कोई भी दोष इस भाषामें दृष्टिगोचर नहिं होता. किन्तु आजकलकी नवीन हिंदी भाषामें बहुभाग लेखकगण व वंग भाषाके अनुवादकगण संस्कृत शब्दोंकी इतनी भरमार करते हैं कि उस भाषाको पश्चिमोत्तरप्रदेशके काशीप्रयागादि मुख्य २ शहरोंके सिवाय ग्रामनिवासी, मारवाडी ( राजपूतानानिवासी) गुजराती आदि कोई भी नहीं समझ सके. ऐसा दोष इस प्राचीन जयपुरी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषामें नहीं है. क्योंकि यह भाषा बहुत सरल है तथा इस भाषाके हजारों ग्रंथ समस्त देशोंके बडे २ जैनमंदिरों में मोजूद हैं तथा बडे २ शहरों और प्रामोंकें पढे लिख जैनी भाई नित्यशः स्वाध्याय भी करते रहते हैं. अतएव इस प्राचीन भाषाका अनादर नहिं करके इस भाषामें ही प्रन्योंका छापना युक्तिसंगत समझकर इस ग्रंथको नवीन भाषामें परिवर्तन नहिं किया गया किन्तु खास विद्वद्वर्य पंडित जयचन्द्रजीकी भाषामें ही छपाया है. परंतु प्रमादवशतः यत्र तत्र इस भाषासंबंधी नियमोंका पालन नहि हुवा हो तो जयपुर निवासी विद्वद्गण क्षमाकरेंगे। * मुम्बयी - जैनीभाइयोंका दास, ता. १-१०-१९०४ ई० पन्नालाल बाकलीवाल. वक्तव्य। इस प्रथकी पहिली आवृत्ति नहीं मिल सकनेके कारण हमने सर्व साधारणके हितार्थ यह सुलभ संस्करण कराया है । पहिले गाथाओंके नीचे छाया थी वह इस बार नहीं छपाई गई क्यों कि संस्कृतज्ञ थोडासा ही परिश्रम करनेसे गाथाओं द्वारा भी अपना प्रयोजन सिद्ध कर सक्ते हैं । संशोधनमें यथाशक्ति सावधानी रक्खी हैं पं० जयचंदजी कृत पीठिका और विषय सूची साथमें छपाकर पहिली त्रुटि दूर करदी गई है। - आशा है पाठक गण ! इस संसारके सच्चे स्वरूपको बतलानेवाले मनकी चंचलताके निवारक प्रन्थका स्वाध्याय कर वास्तविक शांतिका काम करेंगे। मंत्री. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। मंगलाचरण अनुप्रेक्षाओंके नाम मध्रुवानुप्रेक्षा अशरणानुप्रक्षा संसारानुप्रेक्षा अठारह नातेकी कथा एकत्वानुप्रेक्षा अन्यत्वानुप्रेक्षा अशुचित्वानुमक्षा आसवानुप्रेक्षा संवरानुप्रेक्षा निर्जरानुप्रेक्षा लोकानुप्रेक्षा बोधदुर्लभानुप्रेक्षा धर्मानुप्रेक्षा. वारह तपोका कथन अंत मंगल व वक्तव्य १४९ १५६ २५२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका। अब यामें प्रथम ही पीठिका लिखिए है। तहां प्रथम ही मंगलाचरण गाया एकमें करि बहुरि गाथा दोयमें बा. रह अनुप्रेक्षाका नाम कहै हैं । पीछे उगणीस गाथामें अ. ध्रुवानुप्रेक्षाका वर्णन किया । पीछे अशरण अनुप्रेक्षाका वर्णन गाथा नवमें किया। पीछे संसार अनुप्रेक्षाका वर्णन गाथा वियालीसमें किया है । तहां च्यारि गति दुःखका वर्णन, संसारकी विचित्रताका वर्णन, पंच प्रकार परावर्तन रूप भ्रमणका वर्णन है । बहुरि पीछे एकत्वानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा छहमें किया । पीछे अन्यत्वानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा तीनमें किया। पीछे अशुचित्वानुप्रेक्ष का वर्णन गाथा पांच में किया है । पीछे प्रास्रानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा सातमें किया है। पीछे संवरानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा सातमें किया है । पीछे निजरानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा तेरामें किया है। पीछे लोकानुप्रेक्षाका वर्णन गाथा एकसौ अडसठमें कीया है । तहां यहु लोक षद्रव्यनिका समूह है । सो श्राकाशद्रव्य अनंता है ताके मध्य जीव अजीव द्रव्य है ताकू लोक कहिये है । सो पुरुषाकार चौदह राजू ऊंचा घनरूप क्षेत्रफल कीए तीनसै तियालीस राजू होय है। ऐसे कहिकरि पीछै कया है जो यह जीव अजीव द्रव्यनितें भरया है । तहां प्रथम जीव द्रन्यका वर्णन किया है। ताके अव्याणवै जीव समास कहे हैं, पीछे पर्यातिनिका वर्णन है। बहुरि तीन लोकमें जो जीव जहां जहां बसे हैं तिनका Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन करि तिनकी संख्याका कही है ताका असा बहुत्व कह्या है । बहुरि प्रायु कायका परिमाण कया है। बहुरि अन्यवादी केई जीवका स्वरूप अन्य प्रकार मानै हैं, तिनिका युक्ति करि निराकरण किया है। बहुरि अंतरात्मा ब. हिरात्मा परमात्माका वर्णन करि कहा है जो अंतरतत्त्व तो जीव है पर अन्य सर्व वाह्य तत्त्व हैं । ऐसें कहि करि जीवनिका निरूपण समाप्त किया है । पीछे अजीवका निरूपण है । तहां पुद्गल द्रव्य धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशकाल द्रव्यका वर्णन किया है । बहुरि द्रव्यनिके परस्पर कारण कार्य भावका निरूपण किया है। बहुरि कहा है जो द्रव्य सर्व ही परिणामी द्रव्य पर्यायरूप हैं ते अनेकान्त स्वरूप हैं । अनेकान्त वि. कार्य कारण भाव नाही बने है। कारण कार्य विना काहेका द्रव्य ? ऐसे कया है । बहुरि द्रव्य पर्यायका स्वरूप कहिकरि पीछे सर्व पदार्थकू जाननेवाला प्रत्यक्ष परोक्ष स्वरूप ज्ञानका वर्णन किया है । व. हुरि अनेकान्त वस्तुका साधनेवाला श्रुतज्ञान है, ताके भेद नव हैं । ते वस्तुकू अनेक धर्मस्वरूप साधै हैं तिनिका वर्णन है। बहुरि कह्या है जो प्रमाण नयनित वस्तुकू साधि मोक्षमार्ग• साधै हैं ऐसे तत्के सुननेवाले, जाननेवाले, भाव. नेवाले विरले हैं विषयनिके वशीभूत होनेवाले बहुत हैं। ऐसे कहिकरि लोकभावनाका कथन संपूर्ण किया है । बहुरि आगे बोधदुर्लभानुप्रेक्षाका वर्णन अठारह गाथानिमें कीया है। तहां निगोदते लेकरि जीव अनेक पर्याय सदा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) पाया करे है । ते सर्व सुलभ हैं । अर सम्यग्ज्ञान चारित्र स्वरूप मोक्षका मार्गका पावना अति दुर्लभ है । ऐसें कहथा है। आगे धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन एकसौ छत्तीस गाथामें है, तहां निवै गाथा में तो श्रावक धर्मका वर्णन है । तामैं छत्तीस गाथा में तो अविरत सम्यग्दृष्टीका वर्णन है । पीछे दोय गाथामें दर्शन प्रतिमाका, इकतालीस गाथामें व्रतमतिमाका, तिनमें पांच व्रत तीन गुणवत, च्यारि शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतनिका, दोय गाथा में सामायिक प्रतिमाका, छह गाथा में प्रोषध प्रतिमाका, तीन गायामें सचित्त त्याग प्रति - माका, दोय गाथामें अनुमति त्याग प्रतिमाका दोय गाथामें उद्दिष्ट आहार त्याग प्रतिमाका, ऐसें ग्यारा प्रतिमाका वर्णन है । बहुरि वियालीस गाथामें मुनिके धर्मका वर्णन है। तहां रत्न त्रयकरि युक्त मुनि होय उद्यम क्षमा प्रादि दश लक्षण धर्मकूं पालै, तिन दश लक्षणका जुदा २ वर्णन है । पीछे हिंसा धर्मकी बढाई वर्णन है । बहुरि फेरि कहया है जो धर्म सेवना सो पुण्य फलके अर्थिन सेवना, मोक्षके अर्थि सेवना । बहुरि शंका आदि आठ दूषण हैं सो धर्म में नाहीं राख । निशकित आदि आठ अंग सहित धर्म सेवना, ताका जुदा जुदा वर्णन है । बहुरि धर्मका फल माहात्म्य वर्णन किया है । ऐसें धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त कीया है। बहुरि आगे धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिका स्वरूप बारह प्रकार तप है । तिनिका जुदा जुदा वर्णन है । ताकी गाथा इक्यावन हैं । बहुरि तीन गाथा में कर्ता अपना कर्तव्य प्रगटकरि अन्त मंगल करि ग्रन्थ समाप्त किया है | सर्व गाथा क्यारिसे निवे हैं असें जानना । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपरमात्मने नमः स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा। ( भाषानुवादसहित) भाषाकारका मंगलाचरण । दोहा। प्रथम ऋषभ जिन धर्मकर, सनमति चरम जिनेश । विषनहरन मंगलकरन, भवतमदुरितदिनेश ॥१॥ वानी जिनमुखतें खिरी, परी गणाधिपकान। . अक्षरपदमय विस्तरी, करहि सकल कल्यान ॥ २ ॥ गुरु गणधर गुणधर सकल, प्रचुर परंपर और । व्रततपधर तनुनगनतर, बंदों वृष शिरमौर ॥३॥ स्वामिकार्तिकेयो मुनी, बारह भावन भाय। .. कियो कथन विस्तार करि, प्राकृतछंद बनाय ॥४॥ ताकी टीका संस्कृत, करी सुघर शुभचन्द्र। . सुग़मदेशभाषामयी, करूं नाम जयचन्द्र ॥५॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धि होना, कनिजरा ति होना इत्या पदहु पढावहु भव्यजन, यथाज्ञान मनधारि । करहु निर्जरा कर्मकी, बार बार सुविचारि ॥६॥ ऐसें देवशास्त्र गुरुको नमस्काररूप मंगलाचरणपूर्वक प्रतिज्ञा करि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षानामा ग्रन्थकी देशभाषामय वचनिका करिये है। तहां संस्कृत टीकाका अनुसार ले, मेरी बुद्धिसारू गाथाका संक्षेप अर्थ लिखियेगा. तामें कहीं चूक होय तौ विशेष बुद्धिमान संवार लीजियो । श्रीमत्स्वामिकार्तिकेय नाया आचार्य अपने ज्ञानवैराग्य की वृद्धि होना, नवीन श्रोता जनोंके वैराग्यका उपजना तथा विशुद्धता होनेसे पापकर्मकः निर्जरा, पुण्यका उपजना, शिटाचारका पालना निर्विघ्नत शास्त्रकी समाप्ति होना इत्यादि अनेक भले फल चाहता संता अपने इष्टदेवको नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञाकरि गाथासूत्र कहैं हैतिहुवणतिलयं देवं, वंदित्ता तिहुअणिदपारपुजं । वोच्छं अणुपेहाओ, भवियजणाणंदजणणीओ॥१॥ भावार्थ-तीन भुवनका तिलक, बहुरि तीन भुवनके इंद्र. निकरि पूज्य ऐसा देव है ताहि मैं बंदिकर भव्य जीवनिकौं आनन्दके उपजावनहारी अनुप्रेक्षा तिनहि कहूंगा। भावार्थ (१) इस जगह भाषानुवादक स्वर्गीय पं० जयचन्द्रजीने समस्त अन्थकी पीठिका (कथनकी संक्षिप्त सूचनिका ) लिखी है सो हमने उसको यहां न रखकर आधुनिक प्रथानुसार भूमिकामें (प्रस्तावनामें ) लिखा है। - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां 'देव' ऐसी सामान्य संज्ञा है सो क्रीडा विजिगीषा धुति स्तुति मोद गति कांति इत्यादि क्रिया करै ताकौं देव क. हिये. तहां सामान्यविषै तो चार प्रकारके देव वा कल्पित देव भी गिनिये है. तिनित न्यारा दिखानेके अर्थि 'त्रिभुवनतिलकं' ऐसा विशेषण किया तातै अन्यदेवका व्यवच्छेद (निराकरण) भया, बहुरि तीनभुवमके तिलक इन्द्र भी हैं तिनितें न्यारा दिखावनेके अर्थि 'त्रिभुवनेंद्रपरिपूज्यं' ऐसा विशेषण किया, यात तीन भुवनके इन्द्रनिकरि भी पूजनीक ऐसा देव है ताहि नमस्कार किया, इहां ऐसा जानना कि ऐसा देवपणा हत् सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय साधु इन पंच परमेष्ठीविषे ही संभव है. जाते परम स्वात्मजनित आनंद सहित क्रीडा, तथा कर्मके जीतने रूप विजिगीषा, स्वात्मननित प्रकाशरूप द्युति, स्वस्वरूपकी स्तुति, स्वरूपविष परमप्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति, शुद्धस्वरूपकी प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्यादि देवपणाकी उत्कृष्ट क्रिया सो समस्त एकदेश वा सर्वदेशरूप इनिहीविषै पाईए है. तातै सर्वोत्कृष्ट देवपना इनिहीविषै आया, तातै इनिकों मंगलरूप नमस्कार युक्त है. 'म कहिये पाप ताको गालै तथा ' मंग' कहिये सुख, ताकों लाति ददाति कहिये दे, ताहि मंगल कहिये. सो ऐसे देवको नमस्कार करनेते शुभपरिणाप हो है तातें पापका नाश हो है. शांतभावरूप सुख प्राप्ति हो है, बहुरि अनुपेक्षाका सामान्य अर्थ वारम्बार चितवन करना है । तहां चितवन अनेक प्रकार है, ताके करनेवाले अनेक हैं, तिनित न्यारे दिखा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेके अर्थि 'भव्यजनानन्दजननी' ऐसा विशेषण दिया है. ताः भव्यजीवनिके मोक्ष होना निकट आया होय तिनिकै आनन्दकी उपजावनहारी एसी अनुप्रेक्षा कहूंगा । बहुरि यहां 'अनुप्रेक्षाः' ऐसा बहु वचनांत पद है सो अनुप्रेक्षा-सा. मान्य चितवन एक प्रकार है तो हू अनेक प्रकार है, तहां भव्य जीवनिको सुनते ही मोनमार्गविषै उत्साह उपजै, ऐसा चितवन संक्षेपताकरि बारह प्रकार है, तिनका नाप तथा भावनाकी प्रेरणा दोय गाथानिविष कहै हैं । अ व असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं । आसव संवरणामा णिज्जरलोयाणुपेहाओ॥२॥ इय जाणिऊण भावह दुल्लह धम्माणुभावणाणिचं । मणवयणकायसुद्धी एदा उद्देसदो भणिया॥३॥ भाषार्थ-भो भव्य जीव हो ! एते अनुप्रेश नाम मात्र जिनदेव कहें हैं, तिनहिं जाणकार मनवचनकाय शुद्ध करि आगे कहेंगे तिसप्रकार निरंतर भावो. ते कौन ? अध्रुव १. अशरण २ संसार ३ एकत्व ४ अन्यत्व ५ अशुचित्व ६ अःस्रव ७ संवर ८ निर्जरा ९ लोक १० दुर्लभ ११ धर्म १२ ऐसे बारह ! भावार्थ-ये बारह भावनाके नाम कहे, इनका विशेष अर्थरूप कथन तो यथास्थान होयहीगा । बहुरि नाम ये सार्थक हैं, तिनिका अर्थ कहा ? अध्रुव तौ अनित्यकों कहिये । जामें शरण नाहीं सो अशरण । भ्रमणकों संसार कहिये । जहां दूसरा नहीं सो एकत्व । जहां सर्वते जुदा सो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यत्व । मलिनताकों अशुचित्र कहिये । जो कर्मका भावना सो आस्रव । कर्मका आपना रोकै सो संवर । कर्मका क्षरना सो निर्जरा । जामें षद्रव्य पाइये सो लोक । अतिकठिनतासों पाइए सो दुर्लभ । संसारनै उद्धार करै सों वस्तुस्वरूपादिक धर्म । इस प्रकार इनके अर्थ हैं। अथ अध्रुवानुप्रेक्षा लिख्यते. प्रथम ही श्रध्रुवानुप्रेक्षाका सामान्य स्वरूप कहै हैं,-- जं किंपिवि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणामसरूवेण वि-णय किंपिवि सासयं आत्थि॥४॥ . भाषार्थ-जो कुछ उपज्या, ताका नियमकरि नाश हो है. परिणाम स्वरूपकरि कछू भी शाश्वता नाही है. भावार्थ सर्ववस्तु सामान्य विशेषस्वरूप हैं. तहां सामान्य तो द्रव्यको कहिये, विशेष गुणपर्यायको कहिये. सो द्रव्य करिकैं तो वस्तुं नित्यही है. बहुरि गुण भी नित्यही है और पर्याय है सो भनित्य है याकों परिणाम भी कहिये सो यहु प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्यायकू उपजता विनशता देखि हर्षविषाद कर है. तथा ताकू नित्य राख्या चाहै है मो इस अज्ञानकरि व्याकुल होय है, ताकों यहु भावना ( अनुप्रेक्षा ) चितवना युक्त है । जो मैं द्रव्यकरि शाश्वता प्रात्मद्रव्य हौं, बहुरि उपजै विनशै है सो पर्यायका स्वभाव है, यामें हर्षविषाद Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) कहा ? शरीर है सो जीव पुगलका संयोगजनित पर्याय है. धन धान्यादिक हैं ते पुद्गलके परमाणुनिके स्कन्धपर्याय हैं. सो इनकै मिलना विकुरना नियमकरि अवश्य है. थिरकी बुद्धि करे है सो यह मोहजनित भाव है, तातैं वस्तु स्वरूप जानि हर्ष विषादादिकरूप न होना । - मांगें इसहीको विशेषकर कहे हैं,जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जुव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया इयसव्वं भंगुरं मुणह ॥ ५ ॥ भाषार्थ - भो भव्य हो ! यह जन्म है सो तौ मरणकरि सहित है, यौवन है। सो जराकर सहित उपजै है, लक्ष्मी हैं सो विनाश सहित उपजै है, ऐसें ही सर्व वस्तु क्षणभंगुर जानहु. भावार्थ - जेती अवस्था जगत में हैं, तेती सर्व प्रतिपक्षी भावको लिये हैं. यह प्राणी जन्म होय तब तो ताकूं थिर मानि हर्ष करै है. मरण होय तब गया मानि शोक करै है. ऐसे ही इष्टकी प्राप्ति में हर्ष, अप्राप्तिमें विषाद, तथा अनिष्टकी प्राप्ति में विषाद, अप्राप्तिमें हर्ष करें है. सो यह मोहका माहात्म्य है. ज्ञानीनिकों समभावरूप रहना । अथिरं परियणसयणं पुत्तकलत्तं सुमित्त लावण्णं । गिहगोहणाइ सव्वं णवघणविंदेण सारित्थं ॥ ६ ॥ भाषार्थ - जैसे नवीन मेघके बादल तत्काल उदय हो-कर विलाय जांय, तेसें ही या संसारविषै परिवार बन्धुवर्ग Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) पुत्र, स्त्री, भले मित्र, शरीरकी सुन्दरता, गृह, गोधन इत्यादि समस्त वस्तु थिर हैं । भावार्थ- ये सर्व वस्तु अथिर जानिकर हर्ष विषाद नहि करना । 1 सुरघणुतडिव्वचवला इंदियविसया सुभिच्चवग्गा य । दिट्ठपणा सव्वे तुरयगयरहवरादीया ॥ ७ ॥ भाषार्थ - या जगतविषै इन्द्रियनके विषय हैं ते इन्द्रध नुष तथा विजली के चमत्कारवत् चंचल हैं पहिली दीसे पी तुरंत विलाय जाय हैं बहुरि तैसे ही भले चाकरनिके समूह हैं बहुरि तैसे ही भले घोडे हस्ती रथ हैं ऐसे सर्व ही वस्तु हैं. भावार्थ - यह प्राणी श्रेष्ठ इन्द्रियनके विषय भले चाकर घोडे हाथी रथादिक की प्राप्ति करि सुख मात्रै है, सो ये सारे क्षणविनश्वर हैं, अविनाशी सुखका उपाय करना हो योग्य है । आगे बन्धुजन का संगम कैसा है सो दृष्टांतद्वारकरि कहैं हैंपंथे पहियजणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं । बंधुजणाणं च तहा संजोओ अधुओ होइ ॥ ८ ॥ भाषार्थ - जैसें मार्गविषै पथिक जननिका संयोग क्षण मात्र है तैसें ही संसारविषै बन्धुजननिका संयोग अथिर है । भावार्थ - यह प्राणी बहुत कुटुम्ब परिवार पावै, तब अभिमान करि सुख माने है. या मदकरि निजस्वरूपको भूलै है, सो यहु बन्धुवर्गका संयोग मार्गके पथिकजन सा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) रिखा है शीघ्र ही बिछुडै है. ग्राविषै संतुष्ट होय स्वरूपकूं न भूलना. आगे देहसंयोगं प्रथिर दिखावे हैंअइलालिओ वि देहो पहाणसुगंधेहिं विविहभक्खैहिं खणमित्तेण वि विहडई जलभरिओ आमघडउव्व ॥ भाषार्थ - देखो यह देह स्नान तथा सुगन्ध वस्तुनि करि संवारया हुवा भी तथा अनेक प्रकार भोजनादि भक्ष्यनिकरि पाल्या हुआ भी जलका भरचा कच्चा घडाकी नाई क्षणमात्रमें विघट जाय है । भावार्थ- ऐसे शरीरविषै स्थिरबुद्धि करना बडी भूल है । आगे लक्ष्मीका अस्थिरपणा दिखावे हैं 7. जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयरजणाणं अपुण्णाणं ॥ १० ॥ भाषार्थ - जो लक्ष्मी कहिये संपदा पुण्यकर्मके उदय सहित जे चक्रवर्ति तिनकैं भी शाश्वती नाही तौ अन्य जे पुरायउदयरहितं तथा अल्प पुण्यसहित जे पुरुष हैं तिनसहित कैसे राग बांधै ? अपि तु नाही बांधै. भावार्थ- या संपदाका अभिमानकर यह प्राणी प्रीति करे है सो वृथा है । आगे याही अर्थको विशेष करि कहै हैं, - कत्थवि ण रमइ लच्छी कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुज्जे धाम्म? वि य सुरूवसुयणे महासत्ते ॥ ११ ॥ भाषार्थ- यह लक्ष्मी संपदा कुलवान धैर्यपान पंडित सुभट पूज्य धर्मात्मा रूपवान सुजन महापराक्रमी इत्यादि काहू पुरुषनिविषैहू नाही राचै है. भावार्थ- कोई जानेगा कि मैं बडा कुलका हूं, मेरे बडांकी संपदा है, कहां जाती है तथा मैं धीरजवान हौं फैसै गमाऊंगा. तथा पंडित हौं विद्या. वान हौं, मेरी कौन ले है. मोकू देहीगा तथा मैं सुभट हं कैसे काहूको लेने घोंगा. तथा मैं पूजनीक हूं मेरी कौन ले है. तथा मैं धर्मात्मा हों, धर्मः तौ आवै, छती कहाँ जाय है.' तथा मैं बडा रूपवान हों, मेरा रूप देखि ही जगत प्रसन्न है, संपदा कहां जाय है. तथा मैं सुजन हों परका उपकारी हों, कहां जायगी; तथा मैं बड़ा पराक्रमी.हों, संपदा बढाऊंगा, छती कहां जानै घोंगा; सो यह सर्व विचार मिध्या है. यह संपदा देखते देखते विलय जाय है. काहूकी राखी रहती नाही। ___आगे कहै हैं जो लक्ष्मी पाई ताकों कहा करिये लोई कहिये है, ता भुंजिज उ लच्छी दिजउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला दोतिण्णिदिणाणि चिठेइ ॥१२॥ ____ भाषार्थ-यहु लक्ष्मी जलतरंगसारखी चंचल है। जेते दो तीन दिन ताई चेष्टा करै है, विद्यमान है, तेत भोगवो, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) दयाप्रधान होय करि दान द्यो । भावार्थ- कोऊ कृपणबुद्धि या लक्ष्मीकूं संचय करि थिर राख्या चाहै ताकूं उपदेश है । जो लक्ष्मी चंचल है, रहने की नाहीं, जेते थोरे दिन विद्यमान है, तेते प्रभुको भक्तिनिमित्त तथा परोपकारनिमित्त दानकरि खरचो तथा भोगवो । इहां प्रश्न- जो भोगने में तो पाप निपजै है । भोगनेका उपदेश काहेकूं दिया ? ताका समाधान-संचय राखने में प्रथम तौ ममत्व बहुत होय तथा कोई कारण करि विनशै तब विषाद बहुत होय । श्रासक्तपणे कषाय तीव्र परिणाम मलिन निरंतर रहे हैं । बहुरि भोगने मैं परिणाम उदार रहैं, मलिन न रहैं । उदारतां भोग सामग्री खरचै, तामें जगत जन करें। तहां भी मन उज्जल रहै है । कोई अन्य कारणकार विनशै तो विषाद बहुत न होय इत्यादि भोगने में भी गुण होय हैं । कृपणकै तौ कछु ही गुण नाहीं । केवल मनकी मलिनताको ही कारण है । बहुरि जो कोई सर्वथा त्याग ही करें तो ताकौं भोगने का उपदेश है नाहीं । जो पुण लच्छि संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिष्फलं तस्स ॥ १३ ॥ भावार्थ - बहुरि जो पुरुष लक्ष्मीको संचय करै है, प्रात्रनिके निमित्त न दे है, न भोगवे है, सो अपने आत्मा को ठगे है । ता पुरुषका मनुष्यपना निष्फल है वृथा है । भावार्थ - जा पुरुषने लक्ष्मी पाय संचय ही किया । दान Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगमें न खर्ची, तानै मनुष्यपणा पाय कहा किया, निष्फल ही खोया, पापा ठगाया। जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छि पाहाणसमाणियं कुणइ ॥१४॥ ____ भाषार्थ-जो पुरुष अपनी लक्ष्मीको अति ऊंडी पृथिवी तलमें गाडै है, सो पुरुष उस लक्ष्मीको पाषाणसमान करै है । भावार्थ-जैसे हवेलीवी नीवमें पाषाण धरिये है । तैसें याने लक्ष्मी गाडी तब पाषाणतुल्य भई । अणवरयं जो संचदि लञ्छि ण य देदि णेय भुजेदि अप्पणिया वि य लच्छी परलच्छिसमाणिया तस्स॥ ___ भाषार्थ-जो पुरुष लक्ष्मीको निरन्तर संचय करै है, न दान करै है, न भोगवै है, सो पुरुष अपनी लक्ष्मीको परकी. समान कर है। भावार्थ-लक्ष्मी पाय दान भोग न करें है, ताकै वह लक्ष्मी पैलेकी है। आप रखवाला ( चौकीदार है ) है, लक्ष्मीको कोऊ अन्य ही भोगवैगा। लच्छीसंसत्तमणो जो अप्पाणं धरेदि कठेण । सो राइदाइयाणं कजं साधेहि मूढप्पा ।। १६ ।। . ___ भाषार्थ-जो पुरुष लक्ष्मीविष आसक्तचित्त हुवा संता अपने प्रात्माको कष्टसहित राखै है, सो मृढात्मा राजानिका तथा कुटुम्बीनिका कार्य साधै है । भावार्थ- लक्ष्मीके विकै Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्तचित्त होयकरि याके उपजाबनेके अथि तथा रक्षाके अर्थ अनेक कष्ट सहै है, सो वा पुरुषके केवल कष्ट ही फल होय है । लक्ष्मी कौँ तो कुटुंब भोगवैगा, के राजा लेगा। जो वड्ढारइ लच्छि बहुविहबुद्धीहिं णेय तिदि। सव्वारंभं कुव्वदि रत्तिदिणं तंपि चिंतवदि ॥ १७ ॥ ण य मुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुयदि रयणीये । सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छितरुणीए ॥१८॥ • भाषार्थ- जो पुरुष अनेक प्रकार कलो चतुराई बुद्धि करि लक्ष्मीने बधाव है, तृप्त न होय है, याके वास्ते असि. मसि कृष्यादिक सारंभ करै है, रातिदिन याहीके आरम्भ को चिंतवै है, वेला भोजन न करें है, चिंतामें तिष्ठता हुवा रात्रि विष सोवै नाहीं है सो पुरुष लक्ष्मीरूपी स्त्रीका मोटा हुवा ताका किंकरपणा करै है, भावार्थ- जो स्त्रीका किंकर होय ताको लोकविषै 'मोहल्या ' ऐसा निधनाम कहै हैं, जो पुरुष निरन्तर लक्ष्मीके निमित्त ही प्रयास करै है सो लक्ष्मीरूपी स्त्रीका मोहल्या है। - आगें जो लक्ष्मीको धर्म कार्यमें लगावै ताकी प्रशंसा जो वडढमाण लच्छिं अणवरयं देहिधम्मकज्जेस । सो पंडिएहिं थुव्वदितस्स वि सहला हवे लच्छी ॥१९॥ भाषार्थ-जो पुरुष पुण्यके उदय करि बधती जो लक्ष्मी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) ताहि निरन्तर धर्म कार्यनिविषै दे है सो पुरुष पंडितनिकरि स्तुति करने योग्य है. बहुरि ताहीकी लक्ष्मी सफल है. मात्रार्थ - लक्ष्मी पूजा प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान, परका उपकार इत्यादि धर्मकार्यविषै खरची हुई ही सफल है, पंडित - जन भी ताकी प्रशंसा करें हैं । एवं जो जाणित्ता विहलियलोयाण धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्खो तं देहि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ २० ॥ भाषार्थ - जो पुरुष पहिले काा ताको जाणि धर्मयुक्त जे निर्धन लोक हैं, तिनके अर्थ प्रति उपकारकी बांहासों रहित हूवा तिस लक्ष्मीको दे है, ताका जीवन सफल है । भावार्थ - अपना प्रयोजन साधनेके अर्थ तौ दान देनेवाले जगत में बहुत हैं. बहुरि जे प्रतिउपकारकी बांछारहित धर्मात्मा तथा दुःखी दरिद्र पुरुषनिको धन दे हैं, ऐसे विरले हैं उनका जीवितव्य सफल है । धागे मोहका माहात्म्य दिखावै हैंजलवुव्वयसारित्थं धणजुव्वण जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो विणिच्चं अइवलिओ मोहमाहप्पो ॥२१॥ भाषार्थ - यह प्राणी धन यौवन जीवनको, जलके बुद्धबुदासारिखे तुरत विलाय जाते देखते संते भी नित्य मानै है सो यह हू बडा अचिरज है. यह मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान है. भावार्थ- वस्तुका स्वरूप अन्यथा जनावनेको मदपी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) चना ज्वरादिक रोग नेत्रविकार अन्धकार इत्यादि अनेक कारण हैं, परन्तु यह मोह सवते बलवान है, जो प्रत्यक्ष विनाशीक वस्तुको देख है, तो हू नित्य ही मनावै है. तथा मिथ्यात्व काम क्रोध शोक इत्यादिक हैं ते सब मोहहीके भेद हैं. ए सर्व ही वस्तु स्वरूपविषे अन्यथा बुद्धि करावे हैं। प्रागें या कथनको संकोचे हैंचइऊण महामोहं विसऐ सुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिव्विसयं कुणंह मणं जेण सुहं उत्तमलहइ ॥२२॥ भाषार्थ-भो भव्य जीव हो ! तुम समस्त विषयनिकू विनाशीक सुणकरि, महा मोह को छोडकरि, अपने मनकू विषयनित रहित करिह, जाते उत्तम सुखको पावो. भावार्थपूर्वोक्त प्रकार संसार देह भोग लक्ष्मी इत्यादिक अथिर दि. खाये तिनकू सुणिकरि अपना मनकू विषयनित छुडाय अयिर भावैगा सो भव्य जीव सिद्धपदके सुखकों पावैगा.। - --:--:-- अथ अशरणानुप्रेक्षा लिख्यते. तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसये विलओ। हरिहरबंभादीया कालेण कवलिया जत्थ ॥ २३ ॥ भाषार्थ-जिस संसारविष देवनिके इन्द्रनिका विनाश देखिये है बहुर जहां हरि कहिये नारायण, हर कहिये रुद्र, ब्रह्मा कहिये विधाता आदि शब्द कर बडे २ पदवीधारक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सर्वही कालकरि प्रसे, तिस संसारविषे कहा शरणा होय ! किछू भी न होय. भावार्थ-भरणा ताकू कहिये जहां अपनी रक्षा होय, सो संसारमें जिनका शरणा विचारिये ते ही काल-पाय नष्ट होय हैं. तहां काहेका शरणा? - आगे याका दृष्टान्त कहै हैं,सिंहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि। तह मिच्चुणा य गहियं जीवं पिण रक्खदे को वि॥ भाषार्थ-जैसे वनविष सिंहके पगतलें पडया जो हिरण, ताहि कोऊ भी राखनेवाला नाही, तैसें या संसारमें कालकरि ग्रहया जो प्राणी, ताहि कोउ भी राखि सकै नाही. भावार्थ-उद्यानमें सिंह मृगकू पगतलें दे, तहां कौन राखै ? तैसें ही यह कालका दृष्टांत जानना। - आगें याही अर्थकू दृढ़ करै हैं,-' जइ देवो वि य रक्खइ मंतो तंतो य खेत्तपालोय। मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति २५ ___ भाषार्थ-जो मरण• प्राप्त होते मनुष्यकू कोई देव मंत्र तंत्र क्षेत्रपाल उपलक्षणते लोक जिनकू रक्षक मान, सो सर्वही राखनेवाले होंय तौ मनुष्य अक्षय होय. कोई भी मरे नाही. भावार्थ-लोक जीवनेके निमित्त देवपूजा मंत्रतंत्र ओषधी आदि अनेक उपाय करै है परंतु निश्चय विचारिये Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) तो कोई जीवित दीसे नाही. वृथा ही मोहकरि विकer उपजावै है । मागें याही अर्थको बहुरि दृढ करें हैं, - अइबलिओ वि रउदो मरणविहीणो ण दीसए को वि। रक्खिज्जतो विसया रक्खपयारेहिं विविहेहिं ॥ २६॥ 'भषार्थ - इस संसारविषै अति बलवान तथा अतिरौद्र भयानक बहुरि अनेक रक्षाके प्रकार तिनकरि निरन्तर रक्षा कीया हूवा भी मरणरहित कोई भी नाहीं दीख है, 'भावार्थ- अनेक रक्षा के प्रकार गढ कोट सुभट शस्त्र आदि उपाय कीजिये परन्तु मरणतें कोऊ वचै नाहीं । सर्व उपाय विफल जाय हैं । 1 आगें शरण कल्पै ताकूं अज्ञान बताये हैंएवं पेच्छतो वि हु गहभूयपिसाय जोइणी जक्खं । सरणं मण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ॥ २७ ॥ भाषार्थ - ऐसें पूर्वोक्तप्रकार शरण प्रत्यक्ष देखताभी मूढ जन तीव्रमिध्यात्वभावतें सूर्यादि ग्रह भूत व्यंतर पिशाच योगिनी चंडिकादिक यक्ष मणिभद्रादिक इनहि शरणा मानें है । भावार्थ - बहु प्राणी प्रत्यक्ष जाग है जो मरण को ऊ भी राखणहारा नाहीं, तोऊ ग्रहादिकका शरण कल्पै है, सो यह तीव्रमिथ्यात्वका उदयका माहात्म्य है । आगे मरण है सो प्रायु क्षयतें होय है यह कहै हैंआयुक्खयेण मरणं आउं दाऊण सक्कदे को वि । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) तमा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि २८ भाषार्य-जाते आयुकर्मके क्षयतै मरण होय है बहुरि आयु कर्म कोई• कोई देनेको समर्थ नाही, तातै देवनका इन्द्र भी मरण” नाहिं राख सकै है. भावार्थ-मरणतै आयु पूर्ण हुवा होय; बहुरि घायु कोई काहूको देने समर्थ नाहीं तब रक्षा करनेवाला कौन ? यह विचारो! ___ आगें याही अर्थकू दृढ करै हैं,अप्पाणं पि चवंतं जइ सक्कदि रक्खि, सुरिंदो वि। तो किं छंडदि सग्गं सव्वुत्तमभोयसंजुत्तं ॥ २९॥ भाषार्थ- जा देवनका इन्द्रहू पापको चयता [ मरते हुये ] राखनेको समर्थ होता तो सर्वोत्तम भोगनिकरि संयुक्त जो स्वर्गका वास, ता• काहेको छोड़ता ? भावार्थ-सर्व भो. गनिका निवास अपना वश चलते कौन छोडै ? ___ भागें परमार्थ शरणा दिखावै हैंदसणणाणचरितं सरणं सेवेहि परमसद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥३०॥ ___भाषार्थ-हे भव्य ! तू पम श्रद्धाकरि दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप शरणा सेवन करि । या संपारविषै भ्रमते जीवनि अन्य कछू भी शरण नाहीं है । भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र अपना स्वरूप है सो ये ही परमार्थरूप [ वास्तवमें ] शरणा है । अन्य सर्व अशरणा हैं। निश्चय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . ( १८ ) श्रद्धानकरि यहु ही शरणा पकडो, ऐसा उपदेश है। श्रागें इसहीको दृढ करें हैं,अप्पाणं पि य सरणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥३१॥ . भाषार्थ-जो आपकू क्षमादि दशलक्षणरूप परिणत करै, सो शरणा है । बहुरि जो तीब्रकषाययुक्त होय है सो आपकरि श्रापकू हण है । भावार्थ-परमारथ विचारिये तो आपकू आपही राखनेवाला है, तया आप ही घातनेवाला है। क्रोधादिरूप परिणाम कर है, तब शुद्ध चैतन्यका घात होय है । बहुरि क्षमादि परिणाम करै है, तब आपकी रक्षा होय है। इनही भावनिसों जन्ममरण रहित होय अविनाशी पद प्राप्त होय है। - दोहा । वस्तुस्वभावविचारतें, शरण आपकू आप। व्यवहारे पण परमगुरु, अवर सकल संताप ॥२॥ इति अशरणानुप्रेक्षा समाप्ता ॥२॥ अथ संसारानुप्रेक्षा लिख्यते। - प्रथमही दोय गाथानिकरि संसारका सामान्य स्वरूप एक चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुवारं ॥३२॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U ( १९ ) एक्कं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स। सो संसारो भण्णदि मिच्छकसायेहिं जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ . भाषार्थ--मिथ्यात्व कहिये सर्वथा एकान्तरूप वस्तुको श्रद्धना, बहुरि कषाय कहिये क्रोध मान माया लोभ इनकरि युक्त यह जीव, ताकैं जो अनेक देह निविषै संसरण कहिये भ्रमण होय, सो संसार कहिये । सो कैसे ? सो ही कहिये है। एक शरीरकू छोडै अन्य ग्रहण करै फेरि नवा ग्रहणकरि फेरि ताकू छोडि अन्य ग्रहण कर ऐसे बहुतबार ग्रहण किया कर सो ही संसार है । भावार्थ-शरीरनै अन्य शरीरकी प्राप्ति होवो करै सो संसार है। आगें ऐसे संसारविर्षे संक्षेप करि चार गति हैं तथा अनेक प्रकार दुःख हैं । तहां प्रयम ही नरकगतिविष दुःख, है, ता• छह गाथानिकरि कहै हैंपावोदयेण णरए जायदि जीवो सहेदि बहुदुक्खं । पंचपयारं विविहं अणोवमं अण्णदुक्खेहिं ॥ ३४ ॥ भाषार्थ-यह जीव पापके उदयकरि नरकबिष उपजै है तहां अनेकभांतिके पंचप्रकारकरि उपमाते रहित ऐसे बहुत दुःख सहै है । भावार्थ-जो जीवनिकी हिंसा करै है, झूठ बोलै है, परधन हरै है, परनारि तक है, बहुत आरंभ करै है, परिग्रहविर्षे आशक्त होय है, बहुत क्रोधी, प्रचुर भानी, अति कपटी, अति कठोर भाषी, पापी, चुगल, कृपण, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) देवशास्त्रगुरुका निंदक, अधम, दुबुद्धि, कृतघ्नी, बहु शोक दुःख करनेहीकी प्रकृति जाकी, ऐसा होय सो जीव, मरि. करि नरकविषै उपजै है, अनेक प्रकार दुःखकू सहै है। . भागे ऊपरि कहे जे पंचप्रकार दुःख तिनकू कहै हैं,असुरोदीरियदुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुन्भुवं च तिव्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं॥३५॥ भाषार्थ-असुरकुमार देवनिकरि उपजाया दुःख, बहुरि शरीरहीकर निपज्या बहुरि मनकरि भया, तथा अनेक प्र. कार क्षेत्रसों उपज्या, बहुरि परस्पर किया हुवा ऐसें पांच प्रकार दुःख हैं । भावार्थ-तीसरे नरकताई तो असुरकुमार देव कुतूहलमात्र जाय हैं, सो नारकीनकों देखि परस्पर ल. डावै हैं. अनेकप्रकार दुःखी करै हैं. बहरि नारकीनका शरीरही पापके उदयतें स्क्यमेव अनेक रोगनिसहित बुरा घिनावना दुःखमयी होय है. बहुरि चित्त जिनके महाक्रूर दुःखरूप ही होय हैं. बहुरि नरकक्षेत्र महाशीत उष्ण दुर्गन्ध अनेक उपद्रव सहित है. बहुरि परस्पर वैरके संस्कारतें छदन भेदन मारन ताडन कुंभीपाक आदि करैं हैं . वहांका दुःख उपमारहित है। श्रागें याही दुःख का विशेष कहै हैं,छिजइ तिलतिलमित्तंभिंदिजइ तिलतिलं तरं सयलं बजग्गिए कढिजइ णिहिप्पए पूर्यकुंडमि ॥ ३६॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) भाषार्थ - जहां तिल तिलमात्र छेदिये है बहुरि शकल कहिये खंड तिनकुंभी तिळतिलमात्र मेदिये है. बहुरि वज्राशिविषै पचाइये है. बहुरि राधके कुंड विषै क्षेपिये है । इच्चैवमाइ दुक्खं जंणरए सहदि एयसमयम्हि । तं. सयलं वण्णेतुं ण सक्कदे सहसजीहोपि ॥ ३७ ॥ भाषार्थ - इति कहिये ऐसें एवमादि कहिये पूर्व गाथा में कहे तिनकूं यदि देकारें जे दुःख, ते नरक विषै एक काल जीव सहै है, तिनको कहनेको जाके हजार जीभ हॉप सो भी समर्थ न हो है. भावार्थ - या गाथामें नरकके दु:खनिका वचन अगोचरपणा का है । बहुरि कहै हैं नरकका क्षेत्र तथा नारकीनके परिणाम दुःखमयी हैं । सव्वं पिहोदि ये खित्तसहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा वि सव्वकालं अण्णुण्णं होंति णेरइया ॥ २८ भाषार्थ – नरकविषै क्षेत्र स्वभाव करि सर्व ही कारणा दुःखदायक हैं, अशुभ हैं. बहुरि नारकी जीव सदा काल परस्पर क्रोध रूप हैं. भावार्थ - क्षेत्र तो स्वभाव कर दुःखरूप है ही. बहुरि नारकी परस्पर क्रोधी हुवा संता वह वाकूं मारै, वह वाकूं मारे है. ऐसें निरंतर दुःखीही रहे हैं। अणभवे जो सुयणो सो वि य णरये हणेइ अइकुविदो एवं तिब्वविवागं बहुकालं विसहदे दुःखं ॥ ३९ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) भाषार्थ-पूर्व भववि जो सज्जन कुटंबका था, सोभी .या नरकवि क्रोधी हुवा घात करें है. या प्रकार तीव्र है विपाक जाका ऐसा दुःख बहुत कालपर्यंत नारकी सहै है. भावार्थ-ऐसे दुःख सागरां पर्यन्त सहे हैं आयु पूरी किये विना तहातै निकसना न हो है। ... आगे तिर्वञ्चगतिसंबन्धी दुःखनिको साढे च्यारि गाथानकरि कहै हैं,तत्तो णीसरिऊणं जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु । तत्थ वि पावदि दुःखंगब्भे वि य छेयणादीयं ॥४॥ .. भाषार्थ-तिस नरकतें निकसिकरि अनेक भेद भिन्न जे तिर्यच, तिनविष उपजै है. तहां भी गर्भविषै दुःख पावै है. अपि शब्द सम्मूर्छन होय छेदनादिकका दुःख पावै है। तिरिएहिं खजमाणो दुट्ठमणुस्सेहिं हण्णमाणो वि । सव्वत्थ विसंतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीम॥४१॥ . भाषार्थ- तिस तियचगतिविष जीव सिंहव्याघ्रादिककरि भख्या हूवा तथा दुष्ट मनुष्य म्लेच्छ व्याध धीवरादिक. करि मारया हूवा सर्व जायगां.त्रास युक्त हूवा रौद्रभयानक दुःखकू विशेष करि सहै है। अण्णुण्णं खज्जता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं ! माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) भाषार्थ- जिस तिर्यंचगतिविषै जीव परस्पर खाया हुवा उत्कृष्ट दुख पावै है. वह बाकू खाय, वह वाकू खाय, जहां जिसके गर्भ में उपज्या ऐसी माता भी पुत्रकू भक्षण कर जाय तौ अन्य कौन रक्षा करै ? तिव्वतिसाए तिसिदो तिव्वविभुक्खाइ भुक्खिदो संतो तिव्वं पावदि दुक्खं उयरहुयासेहिं डझंतो॥४३॥ ... भाषार्थ-तिस तिर्यंचगतिवि. जीव तीन वृषाकरि तिसाया तीव्र क्षुधाकर भूखासंता उदरानिकरि जलता तीव्र दुःख पावै है। - भागें इसको संकोचे हैं,एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरियजोणीसु। तत्तो णीसरऊणं लडिअपुण्णो णरो होइ ॥ ४४ ॥.. ___ भाषार्थ-ऐसे पूर्वोक्तमकार तिर्यंचयोनिविर्षे जीव अ नेक प्रकार दुखकू पावै है ताहि सहै है. तिस तियचगतित नीसर मनुष्य होय तौ कैसा होय-लब्धि अपर्याप्त, जहाँ पर्याः । सिंपूरे ही न होय । ____ अब मनुष्यगतिविषै दुःख है तिनकू बारह गाथानिकरि सो प्रथम ही गर्भविष उपजै ताकी अवस्था हैं हैं। अह गब्भे वि य जायदि तत्थ वि णिवडीकथंगपच्चंगो विसहदि तिव्वं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदों ४५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) भाषार्थ - अथवा गर्भविषै भी उपजै तो तहां भी भेले सकुचि रहे हैं हस्तपादादि अंग तथा अंगुली आदि प्रत्यंग जाके, ऐसा हूवा संता दुख स है है. बहुरि योनित नीसरा तीव्र दुःखकू सहै है | बहुरि कैसा होय सो कहैं हैं. बालोपि पियरचत्तो पर उच्छिट्टेण बड्ढदे दुहिदो । एवं जायणसीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥ ४६ ॥ ! भाषार्थ - गर्भ नीसरयां पीछे बाल अवस्था में ही माता पिता मर जांय तब पराई औठिकरि ( उच्छिष्टसे ) बध्या संता मागणेहीका स्वभाव जाका ऐसैं दुःखी हुवा संता काल गया है । बहुरि क हैं यह पापका फल हैपावेण जणो एसो दुक्कम्मवसेन जायदे सव्वो । पुणरवि करेदि पाव ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ॥ ४७ ॥ भाषार्थ - यह लोक जन सर्व ही पापके उदयतें असाता वेदनीय नीच गोत्र अशुभ नाम आयुः आदि दुष्कर्म ताके वशर्तें ऐसे दुःख स हैं हैं. तोऊ फेरि पाप ही करें हैं. पूजा दान व्रत तप ध्यानादि लक्षण पुरायको नाही उपजावै हैं, यह बडा अज्ञान है । विरलो अज्जदि पुष्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो । सबसमभावे सहियो गिंदणगरहाहि संजुत्तो ॥ ४८ ॥ · Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) भावार्थ-सम्यग्दृष्टि कहिये यथार्थ श्रद्धावान बहुरि मुनि श्रावकके व्रतनिकरि सहित, तथा उपशम भाव कहिये मंद . कसायरूप परिणाम, तथा निंदन कहिये अपने दोष आपकी यादि करि पश्चाताप करना, गर्हण कहिये अपने दोष गुरुजनके निकट कहणा इनि दोऊनिकरि संयुक्त ऐसा जीव पु. ग्यप्रकृतिनकू उपजावै है. सो ऐसा विरला ही है। .. आगे कहै हैं पुण्ययुक्तकें भी इष्टवियोगादि देखिये है। पुण्णजुदस्स वि दीसइ इंट्ठविओयं अणि?संजोयं । भरहो विसाहिमाणो परिजओ लहुयभायेण ॥४९॥ ___ भाषार्थ-पुण्यउदयसहित पुरुषकै भी इष्टवियोग अनिष्ट संयोग देखिये है. देखो अभिमान सहित भरत चक्रवर्ती भी छोटाभाई जो बाहुवली तासू हारयो. भावार्य-कोऊ जानेगा कि निनिके बडा पुण्यका उदय है तिनिकू तो सुख है सो संसारमें तो सुख काहूकू भी नाही. भरत चक्रवर्तीसारिख भी अपमानादिकरि दुःखी ही भये तो औरनिकी कहाबात? ... आगें याही अर्थको दृढ करै हैंसयलट्ठविसहजोओ बहुपुण्णस्स विण सव्वदोहोदि। तं पुण्णं पिण कस्स विसव्वं जे णिच्छिदं लहदि ५. भाषार्थ-या संसारमें समस्त जे पदार्थ, तेई भये विषय कहिये भोग्य वस्तु, विनिका योग बडे पुण्यवानकू भी सोंगपणे नाही मिल है. ऐसा पुण्य ही नाही है जाकर सर्व Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ही मनोवांछित मिले. भावार्थ-बडे पुण्यवानकै भी वांछित बस्तुमें किछु कमती रहै, सर्व मनोरथ तो काहूके पुरै नाहीं तब सर्व सुखी काहेरौं होय ? कस्स वि णत्थि कल अहव कलचं ण पुत्तसंपत्ती अह तेसिं संपत्ती तह वि सरोओ हवे देहो ॥५१॥ भाषार्थ-कोई मनुष्यकै तो स्त्री नाहीं है. कोई कै जो स्त्री है तौ पुत्रकी प्राप्ति नाहीं है. कोई कै पुत्रकी प्राप्ति है तो शरीर रोगसहित है। अह णीरोओ देहो तो धणधण्णाणणेय सम्पत्ति। अह धणधण्णं होदि हुतो मरणं झत्ति ढुक्केइ ॥५२॥ ___भाषार्थ-जो कोईकै नीरोग देह भी हो तो धन धान्य की प्राप्ति नाहीं है. जो धन-धान्यकी भी प्राप्ति हो जाय तो शीघ्र मरण होय जाय है। कस्स वि दुद्दकलित्वं कस्स वि दुव्वसणवसणिओ पुत्तो कस्स वि अरिसमबंधू कस्स विदुहिदा विदुच्चरिया ॥ ___ भाषार्थ-या मनुष्यभदमें कोईकै तो स्त्री दुराचारिणी है. कोईकै पुत्र युवा आदिक व्यसनोंमें रत है, कोईकै शत्रु समान कलही भाई है. कोईकै पुत्री दुराचारिणी है । कस्स वि मरदि सुपुत्तो कस्स वि माहिला विणस्सदे इट्ठा करस विअग्गिपलिवंगिहं कुडंबंच डझेइ ५४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) . भाषार्थ-कोईकै तो भला पुत्र मरि जाय है, कोईकै इष्ट स्त्री मरिजाय है. कोईकै घर कुटुम्ब सर्व ही अग्नि करि बलि जाय है। एवं मणुयगदीए णाणा दुक्खाइं विसहमाणो वि । ण वि धम्मे कुणदि मइं आरंभं णेय परिचयइ ॥५५॥ ___ भाषार्थ--ऐसें पूर्वोक्त प्रकार मनुष्य गतिविष नानाप्रकार दुःखनिकू सहता भी यह जीव धर्मविषै बुद्धि नाहीं करै है. पापारम्भकू नाहीं छोड़े है।। सधणो वि होदि णिधणोधणहीणोतह य ईसरोहोदि राया विहोदि भिच्चो भिच्चो वि य होदि णरणाहो ॥ भाषार्थ-धनसहित तौ निर्धन होय है तैसैं ही निधन होय सो ईश्वर हो जाय है. बहुरि राजा होय सो तो किंकर होय जाय है और किंकर होय सो राजा होय जाय है । सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो विय जायदे तहा सत्तू। कम्मविवायवसादो एसो संसारसम्भावो ॥५७ ॥ - भाषार्थ-कर्मके उदयके वशतें वैरी होय सो तौ मित्र होय जाय है. बहुरि मित्र होय सो वैरी होय जाय है. यह संसारका स्वभाव है. भावार्थ-पुण्यकर्मके उदयते वैरी भी मित्र होय जाय अर पापकर्मके उदय मित्र भी शत्रु होय जायः संसारमें कम ही बलवान है। आगे देवगतिका स्वरूप कहै हैं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) अह कहवि हवदि देवो तस्स य जायेदि माणसं दुक्खं दळूण महद्धीणं देवाणं रिद्धिसंपत्ती ॥ ५८॥ ___ भाषार्थ-अथवा बडा कष्ट करि देवपर्याय भी पावै तो ताकै बडे ऋद्धिके धारक देवनिकी ऋद्धि सम्पदा देखिकरि मानसीक दुःख उपजै है। इट्ठविओगं दुक्खं होदि महद्धीण विसयतण्हादो । विसयवसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुतो तित्ती ॥ ५९॥ ' भाषार्थ-महर्दिक देवनकै भी इष्ट ऋद्धि देवांगनादिका वियोग होय है, तासंबंधी दुःख होय हैं. जिनकै विषयनिके आधीन सुख है तिनकै काहेरौं तृप्ति होय ? तृष्णा वधती ही रहै। आगै शारीरिक दुःखौं मानसीक दुःख बडा है ऐसें कहै हैं। सारीरियदुक्खादो माणसदुक्खं हवेइ अइपउरं। . माणसदुक्खजुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥ __ भाषार्थ-कोई जानैगा शरीरसंबंधी दुःख बडा है मानसिक दुःख तुच्छ है, ताकू कहै हैं, शारीरिक दुःखते मानसिक दुःख अति प्रचुर है बडा है. देखो ! मानसीक दुःख सहित पुरुषकै अन्य विषय बहुत भी होय तो दुःख उपभावन हारे दीसैं. भावार्थ-मनकी चिंता होय तब सर्व ही सामग्री दुःखरूप भासै । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९) देवाणं पि य सुक्खं मणहरविसएहिं कीरदे जदिही विषयवसं जे सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥६१ भाषार्थ-प्रगटपणै जो देवनिकै मनोहर विषयनिकरि सुख विचारिये तो सुख नाहीं है. जो विषयनिके प्राधीन सुख है सो दुःखहीका कारण है. भावार्थ-अन्य निमित्तते सुख मानिये सो भ्रम है, जो वस्तु सुखका कारण मानिये है सोही वस्तु कालान्तरमें दुःखकू कारण होय है। . आगें ऐसे विचार किये कहूं भी सुख नहीं ऐसा कहै हैं. एवं सुट्ठ-असारे संसारे दुक्खसायरे घोरे । किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्चयदो॥ भाषार्थ-ऐसे सर्व प्रकार असार जो यह दुःखका सागर भयानक संसार, ताविषै निश्चययकी विचार कीजिये किछु कहूं सुख है ? अपि तु नाहीं है. भार्थ-चारगतिरूपसंसार है तहां चारि ही गति दुःखरूप हैं, तब सुख कहां? भागें कहै हैं जो यहु जीव पर्याय बुद्धि है जिस योनिमैं उपजै तहां ही सुख मानले है। दुक्कियकम्मवसादो राया वि य असुइकीडओ होदि तत्थेव य कुणई रइं पेखह मोहस्स माहप्पं ॥६॥ भावार्थ-जो प्राणी हो तुम देखो मोहका माहत्म्य, कि पापके वश” राना भी मरकरि विष्ठ का काडा जाय उपजे है सौ तहां ही रति मान है क्रीडा करै है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( '३० ) आगे कहै हैं कि या प्राणीक एक ही भवविषै अनेक संबंध होय हैं तो वि भाओ जाओ सोविय भाओ वि देवरो होदि । माया हो सवती जणणो विय होइ भत्तारो ६४ एयमि भवे एदे संबंधी होंति एयजीवस्स । अण्णवे किं भण्णइ जीवाणं धम्महिदाणं ६५ भाषार्थ - एक जीव एक भवविषै एता संबन्ध होय है aौ धर्मरहित जीवनिकै अन्य भव विषै कहा कहिये ? ते संबन्ध कौन कौन ? सो कहिये है. पुत्र तौ भाई हूवा बहुरि जो भाई था सो ही देवर भया. बहुरि माता थी सो सौति भई बहुरि पिता था सो भरतार हुवा. पता सम्बन्ध वस न्ततिलका वेश्या अरु घनदेवके अरु कमला के अरु वरुणकै हूवा विनिकी कथा ग्रन्थान्तरतें लिखिये है-एक भवमें अठारह नातेकी कथा । 6 मालवदेश उज्जयनीविषै राजा विश्वसेन. तहां सुदत्त नाम श्रेष्ठी बसै, सो सोलह कोटि द्रव्यको धनी. सो वसन्ततिलकानाम वेश्यासूं आशक्त होय ताहि घरमें घाली. सो गर्भवती भई. तब रोगसहित देह भई तब घरमें काढि दई. बसन्ततिलका आपके घरहीमें पुत्र पुत्रीको जुगल जायो । सो वेश्या खेद खिन्न हो, तिनि दोऊ बालकनिकूं जुदे जुदे रत्न कम्बल में लपेटि पुत्रीको तो दक्षिण दरवाजे क्षेपी. सो तां प्रयाग निवासी विजारेने लेकर अपनी स्त्रीको सौंपी... Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमला नाम धरयो । बहुरि.पुत्रको उत्तर दिशाके दरवाजे खेप्यो तहां साकेतपुरके एक सुभद्रनाम विणजारैने अपनी स्त्री सुव्रताको सौंप्यो. धनदेव ताको नाम धरयो. बहुरि पूर्वोपार्जित कर्मके वशतें धनदेव अर कमलाके साथ विवाह हूवो. स्त्री भरतार भया. पीछे धनदेव विणज निमित्त उज्जयिनी नगरी गया. तहां बसन्ततिलका वेश्यानं लुब्ध हूवा. तब ताके संयोगते वसन्ततिलकाकै पुत्र हूवा, 'वरुण'. नाम धरथा. बहुरि एक दिवस कमला मुनिनै सम्बन्ध पूछया. मुनिने याका सर्व सम्बन्ध कह्या । इनका पूर्वभववर्णन. __ इसी उज्जयिनी नगरी विष सोमशर्मा नामा ब्राह्मण, ताकै काश्यपी नामा स्त्री, तिनकै अग्निभूत सोमभूत नाम दोय पुत्र हुए. ते दोऊ कही पढकर भापते हुते. मार्गमें जिनदत्तमुनिको ताकी माता जो जिनमती नामा अर्जिका सो शरीर समाधान पूछती देखी-बहुरि जिन भद्रनामा मुनिकू मुभद्रा नाम आर्यिका पुत्रकी बहू थी सोशरीर समाधान पूछती देखी। तहां दोऊ भाईने हास्य करी कि तरुणकै तौ वृद्ध स्त्री अरु वृद्धकै तरुणी स्त्री-विधाता अछ्या विपरीत रच्या. सो हास्यके पाप" सोमशर्मा तो वसन्ततिलका हुई. बहुरि अग्नि भूति सोमभूति दोनूं भाई मरकरि बसन्ततिलकाके पुत्र पुत्री युगल भये । तिनके कमला अरु धनदेव नाम पाया. बहुरि काश्यपी ब्राह्मणी वसन्ततिलकाकै धनदेवके संयोगते वरुण Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) नाम पुत्र हुवा. ऐसे सर्व सम्बन्ध सुणकरि कमलाकों जाति स्मरण हवा, तव उज्जयिनी नगरीविषै, बसन्ततिलकाके घर गई. तहां वरुण पालणे मूल था, ताकू कहती भई. कि हे वालक ! तेरे साथ मेरे छै नाते हैं सो सुणि १। मेरा भरतार जो धनदेव ताके संयोगते तु हुवा सो मेरा भी तु ( सोतेला ) पुत्र है। २। बहुरि धनदेव मेरा सगा भाई है, ताका तु पुत्र, ताते मेरा भतीजा भी है. ३ । तेरी माता वसन्ततिलका, सो ही मेरी माता है यातें मेरा भाई भी है. ४ । तू मेरे भरतार धनदेवका छोटा भाई है, तातै मेरा देवर भी है. .५। धनदेव, मेरी माता सन्ततिलकाका भरतार है, ताते धनदेव मेरा पिता भया. ताका तू छोटा भाई है, ताः काका (चाचा) भी है. ६ । मैं बसन्ततिलकाकी सौकि (सौतिन ) ताते धनदेव मेरा पुत्र (से.तीला पुत्र] ताकातू पुत्र तातै मेरा पोता भी है, या प्रकार वरुणके साथ छह नाता कहती हुनी सो बस. न्ततिलका तहां पाई और कमलाकू बोली कि तू कौन है जो मेरे त्रसूं या प्रकार ६ नातः सुना है ? तब कमला बोली तेरे साथ भी मेरे छै नाते हैं से सुणि- . १। प्रथम तो तू मेरी माता है क्योंकि मैं धनदेवके साथ तेरे ही उदरसे युगल उपजी हूं. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) २ । धनदेव मेरा भाई, उसकी तू स्त्री, तातैं मेरी मानज [ भौजाई ] है. ३ | तु मेरी माता, ताका भरतार घनदेव मेरा पिता भया ताकी तू माता, ता मेरी दादी है । ४ । मेरा भरतार धनदेव, ताकी तू स्त्री, तातैं मेरी शौही ( सौतिन ) भी है । ५ । धनदेव तेरा पुत्र सो मेरा भी पुत्र ( सौतीला पुत्र ) arat तू स्त्री, तातैं तू मेरी पुत्रवधू भी है । ६। मैं धनदेवकी स्त्री, तू धनदेवकी माता, तातैं तू मेरी सास भी है. याप्रकार वेश्या ६ नाते सुनकर चिन्ता में विचारती रही, सो ही तहां धनदेव आया. ताकूं देखकर कमला बोली कि तुमारे साथ भी हमारे ६ नाते हैं सो सुणो. १ । प्रथम तो तू और मैं इसी वेश्याके उदरं युगल उक्या सो मेरा भाई है. २ | पीछे तेरा मेरा विवाह हो गया सो तू मेरा पति है. ३ | वसन्ततिलका मेरी माता ताका तू भरतार तातैं मेरा पिता भी है। ४ । वरुणा तेरा छोटा भाई सो मेरा काका भया ताका तू पिताततैं काकाका पिता होनेतें मेरा तु दादा भी भया ५ । मैं बसन्ततिलकाकी सौकी-भर तू मेरी सौकीका पुत्र तातें मेरा भी तू पुत्र है । । ६ । तू मेरा भरतार तावैं तेरी माता वेश्या मेरी सास भई, बहुरि सासके तुम भरतार, तातैं मेरे ससुर भी भये. ३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * या प्रकार एक ही भवमें एक ही प्राणीके अठारह नाते भये, ताका उदाहरण कहा. यह संसारकी विचित्र विडंबना है. यामें कछु भी पाश्चर्य नहीं है। ... आगे पांच प्रकार संसारके नाम कहै हैं,संसारो पंचविहो दव्वे खत्ते तहेव काले य । भवभमणो य चउत्थो पंचमओ भावसंसारो ॥६६॥ ___ भाषार्थ-संसार कहिये परिभ्रमण सो पांच प्रकार हैट्रन्ये कहिये पुदल द्रव्यविषै ग्रहणत्यजनरूप परिभ्रमण.बहुरि क्षेत्रे कहिये श्राकाशके प्रदेशनिषि स्पर्शनेरुप परिभ्रमण. बहुरि काले कहिये कालके समयनिविष उपजने विनसनेरूप परिभ्रमण. बहुरि तैसें ही भव कहिये नारकादि भवका ग्रहण त्यजनरूप परिभ्रमण बहुरि भाव कहिये अपने कपाययोगनिका स्थानकरूप जे भेद तिनका पलटनेरूप परिभ्रपण. ऐसे पंच प्रकार संसार जानना॥६६॥ भार्गे इनिका स्वरूप कहै हैं । प्रथम ही द्रव्य परिवर्तनकू कहै हैं । * यह अठारहनातेको कथा ग्रंथान्तरसे लिखा गई है यथाबालय हि मुणि सुवयणं तुज्झ सरिसा हि अट्ट दहणता । पुत्तु भतिब्बउ भायउ देवरु पत्तिय हु पत्तिज ॥१॥ तुहु पियरो मुहुपियरो पियामहो तहय हवइ भत्तारो। भायउ तहावि पुत्तो ससुरो हवइ बालयो मज्म ॥२॥ जाणणी हुह भला पियामही तह य मायरी सवई । हवा तह गासू ए कहिया भवदहणता ॥३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) -बंधदि मुंचदि जीवो प डिसमयं कम्म पुग्गला विविहा गोकम्म पुग्गला वियमिच्छत्त कसायसंजुत्तो ॥६७॥ भाषार्थ - यह जीव या लोक विषे तिष्ठते जे अनेक पकार पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप तथा औदारिकादि शरीर नोकर्मरूपकरि समयसमयप्रति मिध्यात्वकषायनिकरि संयुक्त संता बांधे है तथा छोडे है. भावार्य - मिथ्यात्व कषायके aa करि ज्ञानावरणादि कर्मका समयमबद्ध अभव्यराशितें अनन्तगुणा सिद्धरा शिके अनन्तवें भाग पुद्गल परमाणुनिका स्कन्धरूप कार्याणवर्गणाकूं समयसमयप्रति ग्रहण करे है. बहुरि पूर्वै ग्रहे थे ते सचामें हैं, तिनमेंसों येते ही समयसमय क्षरे हैं । बहुरि तैसें ही प्रौदारिकादि शरीरनिका समयमबद्ध शरीरग्रहण के समयतें लगाय आयुकी स्थितिपर्यन्त ग्रहण करै है वा छोडे है. सो अनादि कालतैं लेकर अनन्तवार ग्रहण करना वा छोडना हो है. तहां एक परिवर्तनका प्रारंभविषै प्रथमसमय में समयमबद्धविषै जेते पुद्र परमाणु जैसे स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्ध रूप रस तीव्र मंद मध्यम भाव करिग्रहे होंय तेते ही तैसें ही कोई समयविष फेरि ग्रहण में था तब एक कर्म परावर्त्तन तथा नोकपरावर्त्तन होय. बीचिमें अनन्तवार और भांतिके परमारखू ग्रहण होंय ते न गिणिये. जैसेके तैसे फेर महाकूं अनन्ता काल गीतै, ताकूं एक द्रव्यपरावर्त्तन कहिये. ऐसें या जीवजे. या लोकविषे अनन्ता परावर्धन किये । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) मागें क्षेत्र परिवर्तन कहैं हैं सो को वि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स । जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ॥ भाषार्थ-या लोकाकाशप्रदेशनिमें ऐसा कोई भी प्रदेश नाहीं है जामैं यह सर्वही संसारी जीव बहुतबार उपज्या तथा मरचा नाहीं है । भावार्थ- सर्व लोकाकाशका प्रदेशनिविषै यहु जीव अनन्तबार उपज्या अनन्तरबार मरया । ऐसा प्रदेश रह्या ही नाही जामें नाहीं उपब्या मरया । इहांऐसा जानना जो लोकाकाश के प्रदेश असंख्याता हैं । ताकै मध्यके आठ प्रदेशकूं बीचि दे, सूक्ष्मनिगोदलब्धिअपर्याप्तिक जघन्य अवगाहनाका धारी उपजै है सो वाकी अवगाहना भी असंख्यात प्रदेश है सो जेते प्रदेश तेती बार तौ वाही अवगाहना तहां ही पावै । बीचिमें और जायगां अन्य वगाहनातें उपजै सो मिनती में नाही । पीछे एक एक प्रदेश क्रमकरि बघती अवगाहना पावै सो गिणती में, सो ऐसें उस्कृष्ट अवगाहना महामच्छकी तांई पूरण करै । तैसें ही क्रम करि लोकाकाशके प्रदेशनिकूं परसै तब एक क्षेत्रपरावर्त्तन होय ॥ ६८ ॥ आगे काल परिवर्तनकं क है हैं— उपसप्पिणिअवसप्पिणिपढमसमयादिचरमसमयंतं । जीवो कमेण जम्मदि मरदि य सव्वेसु कालेसु ६९ भाषार्थ - उत्सर्पिणी बहुरि अवसर्पिणी कालके पहिले Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) समयतें लगाय अन्तके समयपर्यंत यहु जीव अनुक्रमः सर्द कालविष उपजै तथा मरै है, भावार्थ-कोई जीव उत्सर्पिणी जो दशकोडाकोडी सागरका काल ताका प्रथम समयविषै जन्म पावै, पीछे दूसरे उत्सर्पिणीके दूसरे समयविषै जन्मै, ऐसे ही तीसरेके तीसरे समयविषै जन्में, ऐसे ही अनुक्रमतें अन्तके समयपर्यंत जन्में, बीचिबीचिमें अन्यसमयनिविष विना अनुक्रम जन्मै सो गिणतीमें नाहीं ऐसे ही अवसर्पिणीके दश कोडाकोड़ी सागरके सपयपूरण करै तथा ऐसे ही मरण करै सोयह अनंत काल होयताकू एक कालपरावर्तन कहिये। आगे भवपरिवर्तन; कहै हैंणेरइयादिगदीणं अवरहिदिदो वरठिदी जाव । सव्वट्टिदिसु वि जम्मीद जीवो गेवेजपजंतं ॥७॥ भाषार्थ-संसारी जीव नरक आदि चारि गतिकी ज. धन्य स्थिति लगाय उत्कृष्टस्थितिपर्यन्त सर्व स्थितिविष अवेयकपर्यन्त जन्मै । भावार्थ-नरकगतिकी जघन्यस्थिति दश हजार वर्षकी है सो याके जेते समय हैं तेतीवार तो जघन्यस्थितिकी आयु ले जन्म. पीछे एक समय अधिक आयु ले कर जन्मै । पीछे दोय समय अधिक श्रायु ले जन्मै. ऐसे ही अनुक्रमतें तेतीस सागरपर्यन्त श्रायु पूरण करै, बीविधीचिमें घाटि बाधि आयु ले जन्मै तो गिणतीमें नाहीं. ऐसे ही ति. यंच गतिकी जघन्य प्रायु अन्तरमुहूर्त, ताके जेते समय हैं तेतीचार जघन्य आयुका धारक होय पीछे एक समयाधिक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) • क्रमतें तीन पल्य पूरण करै बीचमें घांटि बाषि पावै ते गिणती में नाहीं. ऐसें ही मनुष्यकी जघन्यत लगाय उत्कृष्ट तीनपल्य तीन पल्य पूरा करें. ऐसें ही देव गतिकी जघन्य दश हजार वर्ष लगाय ग्रैवेयक के उत्कृष्ट इकतीस सागरतांई समयाधिकक्रम पूरा करे. ग्रैवेयक के आगे उपजनेवाला एक दोय भव ले मोक्ष ही जाय, तातैं न गिराया ऐसें या भवपरावनका अनन्त काल है ॥ ७० ॥ आगे भावपरिवर्तनकं कहैं हैं, परिणमदि साण्णजीवो विविहकसाएहिं ट्ठिदिणिमित्चेहिं अणुभागणिमित्ते हिं य वर्द्धतो भावसंसारो ॥ ७१ ॥ भाषार्थी - पावसंसारविषै वर्त्तता जीव अनेक प्रकार कमकी स्थितिधकं कारण बहुरि अनुभागबन्धकूं कारण जे अनेक प्रकार कषाय तिनिकरि सैनी पंचेंद्रिय जीव परिणमैं है. भावार्थ - कर्मकी एक स्थितिबन्धकूं कारण कषायनिके स्थानक असंख्यात लोकप्रमाण हैं, तामैं एक स्थितिबंधस्थानमें अनुभागबन्धकं कारण कषायनिके स्थान असंख्यात - लोकप्रमाण हैं. बहुरि योग्यस्थान हैं ते जगत् श्रणीके असंख्यातवें भाग हैं. सो यह जीव तिभिकूं परिवर्तन करे है. सो कैसे ? कोई सैनी मिध्यादृष्टी पर्याप्तकजीव स्वयोग्य सर्व जघन्य ज्ञानावरण प्रकृतिकी स्थिति अन्तःकोटाकोटीसागर प्रमाण बांध, ताके कषायनिके स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं. तामें सर्व जघन्यस्थान एकरूप परिणमै तामें तिस एक Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानमें अनुभागबंधकू कारण स्थान ऐसे असंख्यातलोकममाण हैं. तिनमेंसों एक सर्वजघन्यरूप परिणमै तहां तिस योग्य सर्वजघन्य ही योगस्थानरूप परिजमै, तब जगत्त्रेणी के असंख्यातवें भाग योगस्थान अनुक्रमतें पूरण करै. बीचिमें अन्य योगस्थानरूप परिणमैं सो गिणतीमें नाहीं. ऐसे योगस्थान पूरण भये अनुभागका स्थान दुसरारूप परिणम वहां भी तैसें ही योगस्थान सर्व पूरण करै । बहुरि तीसरा अनुभागस्थान होय तहां भी तेते ही योगस्थान भुगतै, ऐसे असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमतें पूरण करै तब दूसरा कषायस्थान लेणा. तहां भी तैसें ही ऋपते अ. संख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थान तथा जगत्त्रेणीके अ.. संख्यातवें भाग योगस्थान पूर्वोक्त क्रमते भुगतै तब तीसरा कषायस्थान लेणा. ऐसे ही चतुर्थादि असंख्यात लोकप्रमाण कषायस्थान पूर्वोक क्रमतें पूरण कर, तब एकसमय अधिक जघन्यस्थिति स्थान लेगा, तामैं भी कषायस्थान अनुभागस्थान योगस्थान पूर्वोक्त क्रमतें भुगतै. ऐसें दोय समय अधिक जघन्यस्थितित लगाय तीसकोड़ाकोटीसागर पर्यन्त ज्ञानावरणकर्म की स्थिति पूरण करै. ऐसे ही सर्वमू. लकर्मप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिनका क्रम जानना. ऐसैं परिणमतें अनंत काल वीतै, विनिळू मेला कीये एक भावपरिबर्तन होय. ऐसें अनंत परावर्तन यह जीव भोगता आया है। मागें पंचपरावर्तनका कथन• संकोचे हैंएवं अणाइकालं पंचपयारे भमेइ संसारे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालते मनिका नि उपदेश चाइऊण । (४०) णाणादुक्खणिहाणे जीवो मिच्छत्तदोसेण ॥ ७२।। भाषार्थ-ऐसे पांच प्रकार संसारविषे यह जीव अनादि कालते मिथ्यात्व दोषकरि भ्रम है. कैसा है संसार, अनेक प्रकारके दुःखनिका निधान है। भागें संसारसे छूटनेका उपदेश करै हैइय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेइ ।। ७३ ।। . भाषार्थ-ऐसें पूर्वोक प्रकार संसारकू जाणि सर्व प्रकार उद्यम करि मोहकू छोडि करि हे भव्य हो ! तिस प्रात्मस्वभावकू ध्यावो जाकरि संसारका भ्रमणका नाश होय । दोहा। पंचपरावर्तनमयी, दुःखरूप संसार ।। मिथ्याकम उदै यहै, मरमै जाव अपार ॥३॥ ___ इति संसारानुप्रेक्षा समाप्त ॥३॥ अथ एकत्वानुप्रेक्षा लिख्यते. इक्को जीवो जायदिइक्को गब्भम्मि गिह्नदे देहं । इक्को बाल जुवाणो इक्को वुढो जरागहिओ॥७॥ भाषार्थ- जीव है सो एक ही उपजै है. सो ही एक गर्मविषै देहळू ग्रहण कर है. सो ही एक बालक होय है. सो ही एक जवान होय है. सो ही एक वृद्ध जराकरि गृहीत होय है. भावार्थ-एक ही जीव नाना पर्यायनिक धारै है। . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइमाणसे दुक्खे । इक्को मरदि वराओणरयदुहं सहदि इक्को वि ७५ __ भाषार्थ-एक ही जीव रोगी होय है, सो ही एक जीव शोकसहित होय है. सो ही एक जीव मानसिक दुःखकरि तलायमान होय है. सो ही एक जीव मरै है. सो ही एक जीव दीन होय नरकके दुःख सहै है. भावार्थ-जीव अकेला ही अनेक अनेक अवस्थाकू धारै है। इक्को संचदि पुण्णं इक्को भुंजेदि विविहसुरसोक्खं इक्को खवेदि कम्मं इक्को वियपावए मोक्खं॥७६ ॥ भाषार्थ-एक ही जीव पुण्यका संचय करै है. सो ही एक जीव देवगतिके सुख भोग है. सो ही एकजीव कर्म की निजरा करै है. सोही एक जीव मोन• पावै है. भा. पार्थ-सो ही जीव पुण्य उपजाय स्वर्ग जाय है. सो ही जीव कर्मनाशकर मोक्ष जाय है । सुयणो पिच्छंतो वि हु ण दुक्खलेसंपि सक्छदे गहिदुं । एवं जाणतो वि हु तोवि ममत्तं ण छंडेइ ॥ ७७ ॥ भाषार्थ-स्वजन कहिये कुटुंब है सो भी या जीवमें दुःख पावै ताकू देखता संता भी दुःखका लेश भी ग्रहण करणेकुं असमर्थ होय है. ऐसे जनता भी प्रगठपणै या कुटंबते बमत्व नाही छोडै है. भावार्य- दुःख आपका आप ही भो. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) गर्व है. कोई वटाय सकै नाही, या जीवकै ऐसा अज्ञान है जो दुःख सहता भी परके ममत्वकू नाहीं छोड़े है ॥ ७७ ॥ ___ आगें कहै हैं या जीवकै निश्चयतें धर्म ही स्वजन है। जीवस्स गिच्चयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ॥७८ - भाषार्थ-या जीवकै अपना हित निश्चयतें एक उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म ही है. काहेत ? जात सो धर्म ही देवलोककू प्राप्त कर है. बहुरि सो धर्म ही सर्व दुःखका नाशरूप मोक्ष• करै है. भावार्थ-धर्मसिवाय और कोऊ हित नाहीं ।। ७८ ।। . भागें कहै हैं ऐसा एकलाजीवकू शरीर भिन्न जानहु । सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । जहि दु मुणिदे जीवो होइ असेसं खणे हेयं ॥७९॥ भाषार्थ-भो भव्य हो ! तुप जीवकू शरीर से भिन्न सप्रकार उद्यम करि जानहु. जाके जाने अवशेष सर्व परद्रव्य क्षणमात्रमें त्यजने योग्य होय हैं. भावार्थ-जब अपना स्वरूपकं जान, तब परद्रव्य हेय ही भात, तातें अपना स्वरूपहीके जाननेका महान उपदेश है ।। ७९ ॥ दोहा। एक जीव परजाय बहु, धारै स्वपर निदान । पर तज़ि आपा जानिक, करौ भव्य कल्यान ॥४॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा समाप्त ॥४॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) अथ अन्यत्वानुप्रेक्षा लिख्यते. अण्णं देहं गिदि जणणी अण्णाय होदि कम्मादो। अण्णं होदि कलत्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो॥८॥ ____ भाषार्थ-यह जीव संसारविषै देह ग्रहण करै है सो आपतै अन्य है. बहुरि माता है सो-भी अन्य है. बहुरि स्त्री है सो भी अन्य है. बहुरि पत्र है सो भी अन्य उपजै है. यह सर्व कर्मसंयोग” होय हैं ॥८॥ एवं वाहिरदव्वं जाणदि रूवा हु अप्पणो भिण्णं । जाणं तो वि हु जीवो तत्थेव य रच्चदे मूढो ॥१॥ ___भाषार्थ-ऐसें पूर्वोक्तमकार सर्व वाह्यवस्तुकू अात्मस्वरूपते न्यारा जानै है तोऊ प्रगटपणे जाणता सता भी यह मूढ मोही तिन परद्रव्यनिविष ही राग करै है. सो यह बडी मूर्खता है ॥ ८१॥ जो जाणिऊण देहं जीवसरूपादु तच्चदो भिण्णं । अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ॥८॥ ____ भाषार्थ-जो जीव अपने स्वरूप देहकू परमार्थतें भिन्न जानिकरि आत्मस्वरूपकू सेवै है, ध्यावै है ताके अन्यत्वभारना कार्यकारी है. भावार्थ-जो देहादिक परदव्यकू न्यारे जानि अपने स्वरूपका सेवन करै है ताकू न्याराभावना (अ. न्यत्वभावना ) कार्यकारी है। . १ रुवादु इत्यादि पाठः। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) दोहा । निज आतमतें भिन्न पर, जानै जे नर दक्ष । निजमें मैं मैं अपर, ते शिव लखें प्रत्यक्ष ॥ ५ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ५ ॥ अथ अशुचित्वानुप्रेक्षा लिख्यते । सयलकुहियाण पिंड किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं मलमुचाणं गेहं देहं जाणेह असुइमयं ॥ ८३ ॥ भाषार्थ - हे भव्य तू या देहकूं अपवित्रमय जाणि. -कैसा है देह ? समस्त जे कुत्सित कहिये निंदनीक वस्तु ति नका पिंड कहिये समूह है. बहुरि कैसा है ? क्रिमि कहिये उदरके जीव लट तथा अनेक प्रकार निगोदादिक जीव तिनकरि भरथा है. बहुरि अत्यन्त दुर्गन्धमय है. बहुरि मल तथा मूत्रका घर है. भावार्थ- सर्व अपवित्र वस्तुका समूह देइकं जाया हु । आगे कहै हैं यह देह अन्य सुगन्ध वस्तुकं भी संयोगर्तें दुर्गंध करे है-सुठुपवित्तं दव्वं सरससुगंधं मणोहरं जं पि । देहणिहित्तं जायदि घिणावणं सुठुदुग्गंधं ॥ ८४ ॥ भाषार्थ - या देहकेविषै क्षेपे लगाये भले पवित्र सुरस सुगंध मनके हरणहारे द्रव्य, ते भी घिणावणा अत्यन्त दुगन्ध होय हैं । भावार्थ-या देहकै चंदन कपूरादिकूं लगाये I Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) ते दुर्गन्ध होय जाय, भले मिष्टान्नादि रससहित खाये ते मलादिकरूप परिणमैं. अन्य भी वस्तु या देहके स्पर्शतै अस्पर्य होय जाय हैं। बहुरि या देहळू अशुचि दिखावै हैंमणुआणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तसि विरमणकजे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता ॥८५ ॥ भाषार्थ-हे भव्य ! यह मनुष्यनिका देह कर्मने अशुचि बणाया है, सो यहां ऐसी उत्प्रेक्षा संभावना जाणि, जो इनि मनुष्यनिकू वैराग्य जनावनेके अर्थिही ऐसा रच्या है परंतु ये मनुष्य ऐसे भी देहमें अनुरागी होय हैं. सो यह अज्ञान है। बहुरि याही अर्थकू दृड करै हैं,एवं विहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं । सेवंति आयरेण य अलद्धपुव्वत्ति मण्णंता ॥८६॥ भाषार्थ-ऐसा पूर्वोक्तप्रकार अशुचि देहकू प्रत्यक्ष देखता भी ये मनुष्य तहां अनुराग करै हैं, जैसे पूर्वे ऐसे कभी न पाया ऐसा मानते संते आदरै हैं, याकू सेवै हैं, सो यह बडा अज्ञान हैं। ___ आगै या देहस्रं विरक्त हो हैं ताकै अशुचि भावना सफल है ऐसा कहै हैं-- जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्पसरूवि सुरतो असुइत्ते भावणा तस्स ॥ ८७ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ-जो भव्य परदेह जो स्त्री आदिककी देह ताते विरक हुवा संता निज देहविषै अनुराग नाहीं करै है ताके अशुचि भावना सार्थिक होय है. भावार्थ-केवळ विचारही.. से वैराग्य प्रगट होय ताकै भावना सत्यार्थ कहिये । . दोह स्वपर देहा अशुधि लखि, तजै तास अनुराग। ताकै सांची भावना, सो कहिये बडमाग॥६॥ इति शुचित्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ६ ॥ अथ आस्रवानुप्रेक्षा लिख्यते। मणवयणकायजोया जीवपयेसाणफंदणविसेसा। मोहोदएण जुत्ता विजुदा विय आसवा होंति॥४८॥ भाषार्थ-मन वचन काययोग हैं ते ही प्राघव हैं। कैसे है ? जीवके प्रदेशनिका जो पंदन कहिये चलणा कंपना तिसके विशेष हैं ते ही योग हैं. बहुरि कैसे हैं ते ? मोहकमेका उदय जे मिथ्यात्व कषाय तिन कर्म सहित हैं. बहुरि मोहके उदयकरि रहित भी हैं. भावार्थ-मन वचन कायके निमित्त पाय जीवके प्रदेशनिका चलाचल होना सोयोग है तिनहीकू आस्रव कहिये. ते गुणस्थानकी परिपाटीविषै मूक्ष्मसांपराय दशमां गुणस्थानताई तो मोहके उदयरूप ययासंभव मिथ्यात्व कषायनिकरि सहित हेय हैं. तासांपरायिकमानव कहिये बहुरि उपरि तेरहवां गुणस्यानताई मोहके Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) उदय करि रहित है ताकू ईयर्यापथ आस्रव कहिये. जो पुद्रल धर्गणा कर्मरूप परिणमै ताकू द्रव्यास्रव कहिये. जीवके प्रदेश चंचल होंय ताकू भावास्रव कहिये ।। ____श्रागें मोहके उदयसहित आस्रव हैं ऐसा विशेषकर मोहविभागवसादो जे परिणामा हवंतिजीवस्स । ते आसवा मुणिज्जसु मिच्छचाई अणेयविहा ॥८॥ भाषार्थ-पोहकर्मके उदयतें बे परिणाम या जीवकै होय हैं ते ही भास्रव हैं, हे भव्य तू प्रगटपणे ऐसे जाणि. ते परिणाम मिथ्यात्वनै आदि लेकर अनेक प्रकार हैं. भावार्थ-फर्मवन्धके कारण प्रास्रव हैं. ते मिथ्यात्व अविरत प्र माद कपाय योग ऐसे पांच प्रकार हैं. तिनमें स्थिति अनुभागरूप बंधकं कारण मिध्यात्वादिक ज्यारि ही हैं सो ए मोहकर्मके उदय होय हैं. बहुरि योग हैं ते समयमात्र बंधकू करै हैं. कछू स्थिति अनुभागकं करे नाही तातें बंधका कारणमें प्रधान नाहीं। आगे पुण्यपापके भेदकरि प्रास्रव दोय प्रकार कहै हैंकम्मं पुण्णं पावं हेडं तेसिं च हॉति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु ॥९॥ भावार्य-कर्म है सो पुण्य तथा पाप ऐसे दोय प्रकार है. ताईं कारण भी दो प्रकार है. प्रास्त भर चर कहिले Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) अप्रशस्त. तहां मंद कषाय परिणाम ते तौ प्रशस्त हैं शुभ हैं बहुरि तीवकषाय परिणाम ते अप्रशस्त अशुभ हैं. ऐसें प्रगट जानहु. भावार्थ-सातावेदिनी शुभ आयुः उच्चगोत्र शुभनाम ये प्रकृतियें तो पुण्यरूप हैं. अवशेष चारघातियाकर्म, प्रसातावेदनी, नरकायुः नीचगोत्र अशुभनाम ए प्रकृतियें पापरूप हैं तिनकू कारण प्रास्रव भी दोय प्रकार हैं. तहां मं. दकपायरूप परिणाम तौ पुण्यास्रव हैं और तीव्र कषायरूप परिणाम पापास्रव हैं। आगें मंद तीब्रकषायकू प्रगट दृष्टान्त करि कहै हैं. सव्वत्थ वि पियवयणं दुव्वयणे दुजणे वि खमकरणं। सम्वोस गुणगहणं मंदकसायाण दिटुंता ॥ ९१ ॥ __ भाषार्थ-सर्व जायगां शत्रु तथा मित्र आदिविषै तो प्यारा हितरूप वचन और दुर्वचन सुणिकरि दुर्जनविष भी क्षमा करणा, बहुरि सर्व जीवनिके गुण ही ग्रहण करना, एते मंदकषायनिके उदाहरण हैं। अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं । वेरधरणं च सुइरं तिव्वकसायाण लिंगाणि ॥ ९२॥ ____भाषार्थ-अपनी प्रशंसा करणा पूज्य पुरुषनिका भी दोष ग्रहण करनेका स्वभाव तथा घणे कालताई वैर धारण ए तीवकषायनिके चिन्ह हैं। भागें कहे हैं ऐसे जीवके वास्तवका चितवन निष्फल है। एवं जाणंतो वि हु परिचयणीये वि जोण परिहरइ। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९ ) तस्सासवाणुपिक्खा सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥ ___ भाषार्थ-ऐसे प्रगटपणे जनता सन्ता भी जो त्यजनेयोग्य परिणामनिकू नाहीं छोडै है त क सारा आस्रवका चितवन निरर्थक है. कार्यकारी नाही. भावार्थ-आस्रवानुप्रेक्षाका चिं. तवन करि प्रथम तौ तीव्रकषाय छोडणा, पीछे शुद्ध प्रात्मस्वरूपका ध्यान करणा, सर्व कषाय छोटना, तब यह चिंतवन सफल है. केवल वार्ता करणमात्र ही तौ सफल है नाही। एदे मोहजभावा जो परिवजह उवसमे लीणो। हेयमिदिमण्णमाणो आसवअणुपेहणं तस्स ॥९॥ भाषार्थ-जो पुरुष एते पुणेक्त मोहके उदयतें भये मिथ्यात्वादिक परिणाम तिनिकू छोडे है, कैसा हया संता उपशम परिणाम जो वीतराग भाव सावि लीन हवा संता तथा इनि मिथ्यात्वादिक भावनिकू हेय कहिये त्यागनेयोग्य हैं, ऐसें जानता संता. ताके आत्रकानुप्रेक्षा हो है। दोहा. मानव पंचप्रकारक, न त विकार । ते पाई निजरूपा, यह भावनासार ॥७॥ इति आसवानुप्रक्षा समाता ।। ७ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) अथ संवरानुप्रेक्षा लिख्यते। सम्मत्तं देसवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवरणामा जोगा भावो तहच्चेव ॥ ९५ ॥ भाषार्थ-सम्यक्त्व देशवत महाव्रत तथा कपायनिका जीतना तथा योगनिका अभाव एते संवरके नाम हैं. भावार्थपूर्व आत्रव, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, योगरूप पंच प्रकार कया था, तिनका अनुक्रमतें रोकना सो ही संवर है. सो कैसे ? मिथ्शत्वका अभाव तौ चतुर्यगुणस्थानवि भया तहां अविरतका संवर भया. अविरतका अभाव एक देश तो देशविरतिविषै भया, पर सर्वदेश प्रमत्तगुणस्थानविर्षे भया तहां अविरतका संवर भया. बहुरि अप्रमत्त गुणस्थानविषे प्रमादका अभाव भया तहां ताका संवर भया. अयोगिजिनविष योगनिका प्रभाव भया, तहां तिनिका संवर भया । ऐसें संवरका क्रम है। श्रागें इसीको विशेषकर कहैं हैं,गुती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह परीसहजओ वि। उक्किट्ठे चारित्तं संवरहेदू विसेसेण ॥९६ ॥ ____ भाषार्थ-कायमनोवचनगुप्ति, ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपणा प्रतिष्ठापना एवं पंचसमिति, उत्सम क्षमादि द. शलक्षण धर्म, अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा, सुधा प्रादि बाईस परीषहका जीतना, सामायिक श्रादि उत्कृष्ट पंचाकार चारित्र एते विशेषकर संवरके कारण हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) आगे इनको स्पष्ट करि कहैं हैं, गुत्ती जोगणिरोहो समिदीयपमायवज्जणं चेव । धम्मो दयापहाणो सुतच्च चिंता अणुप्पेहा ॥ ९७ ॥ भाषार्थ - योगनिका निरोध सो तो गुप्ति है, प्रमादका वर्जना यत्नतें प्रवर्त्तना सो समिति है. जामें दयाप्रधान होय सो धर्म है, भले तत्व कहिये जीवादिक तत्व तथा निजस्वरूपका चितवन सो अनुप्रेक्षा है । सो वि परीसह विजओ छुहाइपीडाण अइउद्दाणं । सवणाणं च मुणीणं उवसमभावेण जं सहणं ॥ ९८ ॥ भाषार्थ - जो अति रौद्र भयानक क्षुधा आदि पीडा तिनका उपशमभाव कहिये वीतरागभाव करि सहना सो ज्ञानी जे महामुनि तिनिकै परीसहनिका जीतना कहिये है । अप्पसरूवं वत्थं चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं । सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ ९९ ॥ भाषार्थ - जो आत्मस्वरूप वस्तु है ताका रागादि दोषनिकरि रहित धर्म्य शुक्ल ध्यानविषै लीन होना ताहि भो भव्य ! तू उत्तम चारित्र जाणि । आगे कहै हैं जो ऐसे संवरको आचरे नाहीं है सो संसार में भ्रम है, - दे संवर हेदुं वियारमाणो वि जो ण आयरइ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) सो भमइ चिरं कालं संसारे दुक्खसंत्तत्वो ॥१०॥ भाषार्थ-जो पुरुष पूर्वोक्तप्रकार संवरके कारणनिक विचारतासंता भी आचरै नाही है सो दुःखनिकरि ततायमान हूवा संना घणे काल संपारमें भ्रमण करै है। ___ आगे कहै हैं जो कैसे पुरुषके संवर हो हैजो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदा वि संवरई। मणहरविसयेहितो(?)तस्स फुडं संवरो होदि ॥१.शा : भाषार्थ-जो मुनि इन्द्रियनके विषयनित विरक्त हूवा संता मनकू प्यारे जे विषय. निनितें आत्याको सदाकाल नि. श्चयनै संवररूप करै है ताके प्रगटपणे संवर होय है. भावार्थ इन्द्रिय मनषि नितें रोकै अपने शुद्ध स्वरूपविय रमावै ताके संवर होय । दोहा. गुप्ति समिति वृष भावना, जयन परीसहकार । चारित धारै संग तजि; सो मुनि संवरधार ॥ ८॥ इति संवरानुपेक्षा समाप्तः ॥ ८॥ अथ निर्जरानुप्रेक्षा लिख्यते। वारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिजरा होदि । वेरग्गभात्रणादो निरहंकारस्स णाणिस्स ॥१०२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) भाषार्थ - जो ज्ञानी होय ताकै बारह प्रकार तपकरि कनिकी निर्जरा होय है कैसे ज्ञानीकै होय ? जो निदान कहिये इन्द्रियविषयनिकी इच्छा ताकरि रहित होय. बहुरि अहंकार अभिमानकर रहित होय, बहुरि काहतें निर्जरा होय ? वैराग्यभावना जो संसार देहभोगर्ते विरक्त परिणाम तातें होय. भावार्थ - तपकरि निर्जरा होय सो ज्ञानसहित तप करे तार्के होय. अज्ञानसहित विपर्यय तप करें तामें हिसादिक होय, ऐसे तपतैं उलटा कर्मका बंध होय है. बहुरि तपकरि मदकरै परकूं न्यून गिजै, कोई पूजादिक न करै, वासू क्रोध करें ऐसे तपतैं बंध ही होय. गर्वरहित तपतैं निर्जरा होय. बहुरि तपकरि या लोक परलोकविषै ख्याति लाभ पूजा इन्द्रियनिके विषय भोग चाहै, ताकै बंध ही होय. निदानरहित तपतैं निर्जरा होय. बहुरि संसार देहभोगविषै आसक्त होइ तप करै, ताका आशय शुद्ध होय नाही, ताकै निजरा न होय. वैराग्यभावनाही तें निर्जरा होय है ऐसा जानना । मार्गे निर्जरा कहा कहिये सो कहै हैं, - सव्वास कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ । तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिजरा जाण ॥ १०३ ॥ भाषार्थ - समस्त जे ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म तिनकी शक्ति कहिये फल देनेकी सामर्थ्य, ताका विपाक कहिये प-कना, उदय होना, वाकूं अनुभाग कहिये, सो उदय आ य अनंतर ही ताका सटन कहिये झडनाक्षरना होय ताकूं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकी निर्जरा हे भव्य तू जाणि. भावार्थ-कर्म उदय होय क्षर जाय ताकू निर्जरा कहिये, सो यह निर्जरा दो प्रकार है सो ही कहै हैंसा पुण दुविहा णेया सकालपत्ता तवेण कयमाणा। चादुरादीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे विदिया ॥१०॥ भाषार्थ-तो पूर्वोक्त निर्जरा दोय प्रकार है. एक तौ स्वकालप्राप्त, एक तपकरि, करी हुई होय. नामें पहिली स्वकालप्राप्त निर्जरा तौ चारही गतिके जीवनिकै होय है. बहुरि व्रतकरि युक्त हैं तिनकै दूसरी तपकरि करी हुई होय है. भावार्थ-निर्जरा दोय प्रकार है. तहां जो कर्मस्थिति पूरी करि उदय होय रस देकरि खिरै सो तो सविधाइ कहिये. यह निर्जरा तो सर्व ही जीवनिकै होय है. बहुरि तपरि कर्म विना स्थिति पूरी भये ही पकै, क्षार जाय, ताङ, अविपाक ऐसा भी नाम कहिये है, सो यह व्रतधारीनिकै होय है । आगे निर्जरा बधती काहे होय सो कहै हैंउवसमभावतवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं । तह तह णिजर वड्ढी विसेसदो धम्मसुक्कादो १०५ __ भाषार्थ-मुनिनिके जैसें २ उपशमभाव तथा तपकी बधः वारी होय तैसें २ निर्जराकी बधवारी होय है. बहुरि धर्मध्यान शुक्लध्यानके विशेष बधवारी होय है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रागें इस वृद्धिके स्थान कहते हैंमिच्छादो सदिट्ठी असंखगुणिकम्मणिज्जरा होदि। तत्तो अणुवयधारी तत्वो य महव्वई णाणी ॥१०॥ पढ़मकसायचउण्हं विजोजओतह य खवयसीलो य दसणमोहतियस्स य तत्चो उपसमगचत्तारि ॥१०॥ खवगो य खीणमोहो सजोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरि उवरिं असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८॥ भाषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिविर्षे कर त्रय. चर्ती विशुद्ध परिणामयुक्त मिथ्याष्टिकै जो निर्जरा होय है वा असंयत सम्यग्दृष्टिकै असंख्यातगुणी निर्जरा होय है. याते देशव्रती श्रावककै असंख्यात गुणी होय है. यात महाव्रती मुनिनिकै असंख्यात गुणी होय है. यात अनंतानुबंधी कपायका विसंयोजन कहिये अप्रत्याख्यानादिकरू पारणमावना ताकै असंख्यात गुणी होय है. यातें दर्शनमोहेका क्षय करनेवालेकै असंख्यातगुणी होय है. याः उपशम श्रेणीवाले तीन गुणस्थानविर्षे असंख्यात गुणी होय है. यात उपशांत मोह ग्यारहमा गुणस्थानवालेके असंख्यातगुणी होय है. यात क्षपकश्रेणीवाले तीन गुणस्थानविषे असंख्यात गुणी होय है. या क्षीणमोह बारहमा गुणस्थानविौ असंख्यात. गुणी होय है. या सयोग केवलीकै असंख्यातगुणी होय है. याते अयोगकेवलीकै असंख्यातगुणी होय है. ऊपरि ऊपरि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) असंख्यात गुणकार है. याहीत याकू गुणश्रेणी निर्जरा कहिये है। ___ आगे गुणकाररहित अधिकरूप निर्जरा जाते होय सो कहै हैंजो वि सहदि दुव्वयणं साहम्मियहीलणं च उवसग्गं जिणऊण कसायरिउं तस्स हवेणिज्जरा विउला १०९ ___ भाषार्थ-जो मुनि दुर्वचन सहै तथा साधर्मी जे अन्यमुनि आदिक तिनकरि कीथा अनादर सहै तथा देवादिकनिकरि कीया उपसर्ग सहै कषायरूप वैरीनिकू जीतकरि ऐसे करे. ताकै विपुल कहिये विस्ताररूप बडी निर्जरा होय. भावार्थ-कोई कुश्चन कहै तौ तारां कषाय न करै तथा प्रापकू अतीचारादिक लागै तब प्राचार्यादि कठोर वचन कहि प्रायश्चित्त दें निरादर करैं ताकू निकषायपणे सहै. तथाकोई उपसर्ग करे तासूं कषाय न करै ताकै बढी निजरा होय है। रिणमोयणुव्व मण्णइ जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं । पावफलं मे एदे मया वि यं संचिदं पुव्वं ॥११॥ ___ भाषाथै-जो मुनि उपसर्ग तथा तीव्र परिषहळू ऐसा मानै जो मैं पूर्वजन्ममैं पापका संचै कियाथा ताका यह फल है सो भोगना. यामैं व्याकुल न होना. जैसे काहूका करज काढ्या होय सो पैलो मांगे, तब देना. यामैं व्याकुलता कहा? पैसे मानै ताकै निजरा बहुत होय है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ). जो चिंतेइ सरीरं ममत्वजणयं विणस्सरं असुई। दसणणाणचरित्रं सुहजणयं णिम्मलं णिचं ॥१११ ॥ भाषार्थ-जो मुनि या शरीरकू पमत्व मोहका उपजावनहारा तथा विनाशीक तथा अपवित्र मानें, ताकै निजरा बहुत होय. भावार्थ-शरीरकू मोहका कारन अथिर अशुचि मानें तब याका सोच न रहै. अपना स्वरूपमैं लागै, तब निजरा होय ही होय। अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंताणं करेदि बहुमाणं । '. मणइंदियाण विजई स सरूवपरायणो होदि ११२ भाषार्थ-जो साधु अपने स्वरूपविष तत्पर होय करि अपने किये दुष्कृतकी निंदा करै. बहुरि गुणवान पुरुषनिका प्रत्यक्ष परोक्ष बडा आदर करै. बहुरि अपना मन इंद्रियनिका जीतनहारा वश करनहारा होय ताकै निजरा बहुत होय. भावार्थ-मिथ्यात्वादि दोषनिका निरादर करै तब वे काहेकू हैं. झडिही पडें ॥ तस्स य सहलो जम्मो तस्स वि पावस्स णिजरा होदि तस्स वि पुण्णं वड्ढइ तस्स य सोक्खं परो होदि ११३ ____ भाषार्थ-जो साधु ऐसे पूर्वोक्त प्रकार निभराके कारणनिविषै प्रवत्र्ते है, ताहीका जन्म सफल है. बहुरि तिसहीकै पाप कर्मकी निर्जरा होय है, पुण्यकर्मका अनुभाग बबै है. भावार्थ-जो निर्जराका कारणनिविष प्रवतै, ताकै पाप Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) नाश होय, पुण्यकी वृद्धि होय. स्वर्गादिकके सुख भोग मोक्ष कू प्राप्त होय। __आगें उत्कृष्ट निर्जरा कहकरि निर्जराका कथनळू पूरण करै हैंजो समसुक्खणिलीणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा॥११॥ ___ भाषार्थ जो मुनि, वीतराग भावरूप सुख, याहीका नाम पग्स चारित्र है सो याविर्षे तौ लीन कहिये तन्मय होय बारवार आतमा सुमिरै ध्यावै. बहुरि इन्द्रिगनिका जीतन हारा होय, ताकै उत्कृष्ट निर्जरा होय है. भावार्थ-इन्द्रियनिका कषायनिका निग्रहकरि परम वीतराग भावरूप प्रात्मध्यानविषे लीन होय ताकै उत्कृष्ट निर्जरा होय । दोहा पूरव बांधे कर्म जे, क्षरे तपोबल पाय। सो निजंग कहाय है, धारै ते शिव जांय ॥६॥ इति निर्जरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ९ ॥ अथ लोकानुप्रेक्षा लिख्यते. ___ भागे लोकानुप्रेक्षाका वर्णन करिये है. तामैं प्रथमही लोकका आकारादिक कहेंगे. तहां किछू गणित प्रयोजनकारी जाणि संक्षेपताकरि कहिये है। भावार्थ- गणितकौं अन्य ग्रंथनिके अनुसार लिखिये है. तहां प्रथम तौ परिकर्माष्टक है Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामें संकलन कहिये जोड देना जसे आर-पा सानका लाई। दिया पंधरा होय. बहुरि पूर्वकलन कहिये वाकी कौटमा जैसे आठमें तीन घटाये पांच में यह मुगाकार जैसे पाठकों सातकरि गुणे छप्पन होय. बहुरि आठवू दोयका भाग दिये च्यारि पाये. बहुरि वर्ग कहिये दोयराशि बराबरकी गुणिये जेते होय तेते ताकं वर्ग कहिये. जैसे आठका वर्ग चौगठि. बहुरि वर्गमूल जैसे चौसाठिका वर्गमूल आठ बहुरि बन रहिये तीन राशि बराबरकी गुणे जो होय सो. जैसे, आठका धन पांचसैबारा । बहुरि घनमूज जैसे पाचसौ वागका घनमूल गाठ. ऐसें परिकर्माष्टक जानना. बहुरि राशिक है, जहां एक प्रमाणराशि, एक फलराशि ,एक इच्छा राशि. जैसैं दोष रुपयोंकी जिनस सोलह सेर आवै तो पाठरुपयोंकी केती प्रावै. ऐसैं प्रभागाराशि दोय, फलराशि सोलह, इच्छाराशि पाठ. तहां फलराशिकू इच्छाकरि गुगौँ एकसौ अठाईस होय. ताकू प्रमाणाशि दो. यका भाग दिये चौसठि सेर भावै. ऐसें जानना. बहुरि क्षेत्रफलविषै जहां बरोबरिके खंड करिये ताकू क्षेत्रफल कहिये. जैसे खेतमैं डोरी मापिये तब कचवांसी विसवासी बीघा करिये तार्क क्षेत्रफल संज्ञा है. जैसैं अस्सीहायकी डोरी होय ताकै वीस गहा कहिये च्यारि हाथका एक गहा, ऐसे खेतमैं एक डोरी लांबा चौडा खेत होय ताकै च्यारि हाथके लांबे चौंडे खंड कीजिये, तब वीसकं वीस गुणा किये च्यारिसै भये. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोई कचवांसी मई. याकै वीस विसवे भये. ताका एक बीघा भयो. ऐसे ही जहां चौखूटा तिखूटा गोल आदि खेत होय, ताका बराबरिका खंडकरि मापि क्षेत्रफल ल्याइये है. वैसे ही लोकका क्षेत्रकू योजनादिककी संख्याकरि जैसा क्षेत्र होय तैसा विधानकरि क्षेत्रफल ल्यावनेका विधान गणित शास्त्रः जानना. इहां लोकके क्षेत्रविष तथा द्रव्यनिकी गणनाविष अलौकिक गणित इकईस हैं. तथा उपमागणित आठ हैं. तहां संख्यातके तीन भेद-जघन्य मध्यम उत्कृष्ट. असंख्यातके नव भेद, तामें परीतासंख्यात जघन्य मध्य, उत्कृष्ट, युक्तासंख्यात-जघन्य मध्य उत्कृष्ट. असंख्यातासंख्यात जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट ऐसे नौ भये. बहुरि अनन्तके नवभेद, परीतानन्त, युक्तानंत, अनंतानंत, ताके जघन्य मध्य उत्कृष्ट करि नव ऐसें इकईस । तहां जघन्य परीत असंख्यात ल्यावनेके अर्थ लाख लाख योजनके जंबूद्वीपप्रमाण व्यासवाले हजार हजार योजन ऊंडे च्यारि कुड करिये. एकका नाम अनवस्या, दुजाशलाका, तीजा प्रतिशलाका, चौथा महाशलाका. तिनमेंसू अनवस्था कुंडकू सिरस्यूत सिघाऊं भरिये. तिसमें छियालीस अंक प्रमाण सिरस्यूं मावै. तिनकू संकल्प मात्र ले चालिये. एक द्वीपमें एक समुद्र में ऐसे गेरते जाइये. तहां वे सिरस्यूं वीत तिस द्वीप वा समुद्रकी सूचीप्रमाण अनवस्थाकुंड कीजै. तामें सिरस्यूं भरिये बहुरि शलाका कुंडमें एक सिरस्यूं अन्य ल्याय गेरिये बहुरि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैसे ही तिस दूजे अनवस्था कुण्डकी एक सिरस्यूं एक द्वीपमें एक समुद्रमें गेरते जाइये. ऐमैं क र तिस अनवस्था कुण्डकी सिरस्यूं जहा चीते, नहां तिस द्वीप वा समुद्रकी सूची प्रमाण फेर अनवस्था कुंडकरि तैसैं ही सिरस्यूं भरिये. बहुरि एक सिरस्यूं शलाका कुण्डमें अन्य ल्या गेरिये. ऐसे करतें छियालीस अंक प्रमाण अनवस्था कुण्ड हो चुकें. तब एक शलाका कुण्ड भरै. तब एक सिरस्यूं प्रतिशलाका कुण्डमें गेरिये. तेही अनवस्था होता जाय. शलाका होता जाय. ऐसे करतें छियालीस अंक प्रमाण शलाका कुंडभरि चुकै, तब एक प्रतिशलाका भरै. ऐसे ही अनवस्था कुंड होता जाय शलाका भरते जांय प्रति शलाका भरते जांय, तब छिपालीस अंक प्रमाण प्रतिशलाका कुंड भरि चुकैं तब एक महाशलाका कुंड भरै. ऐसे करतै छिआलीस अंकनिके घन प्रमाण अनवस्था कुण्ड भये. गिनिमें अंतका अनवस्था जिस द्वीप तथा समुद्रकी सूची प्रमाण ब्राया तामें जेती सिरस्यूं मावै तेता प्रमाण जघन्य परीतासंसातका है. यामें एक सिरस्यू घटाये उत्कृष्टसंख्यात कहिये. दोय सिस्य प्रमाण जघन्य संख्यात कहिये, वीचके सर्व मध्य संख्यातके भेद हैं. बहुरि तिस जघन्य परीतासंख्यानको सिरस्यूं की पशि एक एक बखेरि एक एक पर सिपही राशिकू थापि परस्पर गुणता अंतमें जो गशि निपजै, ताकू जघन्य युक्तासंख्यात कहिये. यामें एक रूप घटाये उत्कृष्टपरीतासंख्यात कहिये. मध्यके Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना भेद जानने. बहुरि जघन्य युक्तासंख्यात• जघन्य-युक्तासंख्यातकरि एकवार परस्पर गुणने जो परिमाण श्रावै, सो जघन्य असंख्यातासंख्यात जानने. यामें एक घटाये उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होय है. मध्य युक्त असंख्यात वीचके नाना भेद जानने। अब इस जघन्य असंख्यातासंख्यातप्रमाण तीन राशि करनी. एक शलाका एक विरलन एक देय. तहां विरलन राशिकू वखेरि एक एक जुदा जुदा करना, एक एककै ऊपरि एक एक देय राशि धरना तिनकू परस्पर गुणिये जब सर्व गुणकार होय चुकै तब एक रूप शलाका राशिमेंसं घटावना. बहुरि जो राशि भया तिस प्रमाण विरलन देय राशि करना, तहां विरलनकू वखेरि एक एककू जुदा करि एक एक परि देय राशि देना, तिनकू परस्पर गुणन करना जो राशि निपजे तब एक शलाकाराशिमेंसू फेरि घटावना. बहुरि जो राशि निपज्या ताकै परिमाण विरलन देय राशि करना। विरलनकू बखेरि देयकू एक एक पर स्थापि परस्पर गुणन करना, ए. करूप शलाकामं घटावना. ऐसे चिरलन देय राशिकार गुणाकार करता जाना, शलाकामेंसूं घटाता जाना. जब शलाका राशि निःशेष हो जाय तब जो किछु परिमाण पाया सो मध्य असंख्यातासंख्यातका भेद है. बहुरि तितने तितने परिमाण शलाका, विग्लन, देय, तीन राशि फेरि करना । तिन पूर्ववत करतें शलाका राशि निःशेष होय-जाय, तर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) जो महाराशि परिमाण भाया सो भी मध्य असंख्यातासंख्या तका भेद है. बहुरि तिस राशि परिमाणके फेरि शलाका विरलन देय राशि करना तिनकू पूर्वोक्त विधानकरि गुणनेतें जो महाराशि भया सो यह भी मध्य असंख्यातासंख्यातका भेद भया. अर शलाकात्रयनिष्ठापन एक वार भया. बहुरि इस राशिमैं असंख्यातासंख्यात प्रमाण छह राशि और मिलावणी । लोकप्रमाण धर्म द्रत्यके प्रदेश, अधर्म द्रव्यके प्रदेश, एक जीवके प्रदेश, लोकाकाशके प्रदेश बहुरि तिस लोकते असंख्यातगुणे अतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवनिका परिमागा, बहुरि तिसते असंख्यातगुणे सपतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति जीवोंका परिमाण ये छह राशि मि. लाय पूर्वोक्त प्रकार शलाका विरलन देयराशिके विधानकरि शलाकात्रयनिष्ठापन करना, तब जो महाराशि निपज्या सो भी मध्य असंख्यातासंख्यातका भेद है. तामें च्यारि राशि और मिलावने-कल्प काल वीस कोड़ाकोडी सागरके समय बहुरि स्थितिबंधकू कारण कषायनिके स्थान, अनुभाग बंधर्व कारण कषायनिके स्थान, योगनिके अविभाग प्रतिरछेद, ऐसी च्यारि राशि मिलाय अर पूर्वोक्त विधानकरि शलाकात्रय निष्ठापन करना ऐसे करतें जो परिमाण होय सो जघन्यपरीतानन्तराशि भया. यामैसू एक रूप घटाये उस्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होय है. वीचिमें मध्यके नाना भेद हैं. बहुरि जघन्य परीतानन्त राशि विरलनकरि एक एक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) परि एक एक जघन्य परीतानन्त स्थापनकरि परस्पर गुणे जो परिमाण होय सो जघन्ययुक्तानन्त जानना. तामें एक घटाये उत्कृष्ट परीतानन्त है. मध्य परीतानन्तके वीचिसे नाना भेद हैं. बहुर जघन्य युक्तानंत• जघन्य युक्तानन्तकरि एकवार परस्पर गुणे जघन्य अनंतानंत है. यामेंसू एक घटाये उत्कृष्ट युक्तानंत होय है. मध्य युक्तानन्तके वीचमें नाना भेद हैं. अब उत्कृष्ट अनन्तानंतकू ल्यावनेका उपाय कहै हैं. तहां जपन्य अनंत नंत परिमामा शलाका विग्लन देय. इन तीन गांशव रि अनुक्रमते पहलै वह्या तैसे शलाकात्रयनिष्ठापन करै. तब मध्य अनंतानंतका भेद रूप राशि में निपजै है. ताविषै छह गशि मिला सिद्धराशि, निगोदराशि, प्रत्येक वनस्पतिमहिन निगोदराशि, पुद्गलराशि, कालके समय, शाशके प्रदेश ये छह राशि मध्य अनन्तानंत के भेदरूप मिलाय शलाकात्रयनिष्ठापन पूर्ववत् विधानकरि करना तब मध्य अनन्तानन्तका भेद रूप ाशि निपजै, ता. विष फेरि धर्मद्रव्य अधर्मद्रयके उगुरुलघु गुणके अविभागप्रतिच्छेद मिलाय जो महाराशि परिमाण राशि भया. ताळू फेरि पूर्वोक्त विधानकर शलकात्रय शिष्ट पन करिये तब जो कोई मध्य अनन्तानंतका भेदरूप राशि भया, ताकुं केवलज्ञानके अविभागप्रातच्छेदनका समूह परिमाणविष घट य फेरि मलाइये तब केवल ज्ञानके अविभागलतिच्छेद रूप उत्कृष्ट अनंतानंत परिमाण राशि होय है बहुरि उपमा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) प्रमाण आठ प्रकार करि कहया है. पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्श्रेणी, जगतपतर, जगतघन. तहां पल्य तीन प्रकार है-व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य, अद्धापल्य. तहां व्यवहारपल्य तौ रोमनिकी संख्या मात्रही है. बहुरि उद्धारपल्यकरि द्वीपसमुद्रनिकी संख्या गणिये हैं. बहरि अ. द्धापल्यकारि कर्मनिकी स्थिति देवादिककी आयुस्थिति गणिये हैं. अब इनका परिमाण जानने... परिभाषा कहै हैं. तो अनन्त पुद्गल के परमाणुनिका स्कन्ध तो एक भवसन्नासन्न नाम है. तातें पाठ आठ गुणो क्रमकरि बारह स्थानक जानने. सन्नासन्न, टरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, उचमभागेभूमिका बालका अग्रभाग, मध्यम भोगभूमिका, जघन्य भोगभूमिका, कर्मभूमिका, लीख, सर , यव, अंगुल ए बारक हैं. सो ऐसे अंगुल भया सो उत्सेध अंगुल है. सो। याकरि नारकी तियेच देव मनुष्यनिके शरीरका प्रमाण ववन कीजिये है, पर देवनिके नगर मंदिर वर्णन कीजिये है. बहुरि उत्सेध अंगुलते पांचसै गुणा प्रमाणांगुल है. यातें द्वीप समुद्र पर्वत आदिकनिका परिमाण वर्णन है. बहुरि आत्मांगुल जहां जैसा मनुष्यनिका होय तिस परिमाण जानना. बहुरि छह अंगुलका पाद होय, दोय पादका एक विलस्त होय, दोय विलस्तका एक हाथ होय, दोय हाथका एक भीष होय, दोय भीषका एक धनुष होय, दोय हजार धनुषका एक कोश होय, च्यारि कोशका एक योजन होय, सो यहां प्रमाणांगुलकरि निपज्या ऐसा एक योजन प्रमाण Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) उंडा चौडा एक खाडा करना, ताकू उत्तम भोगभूमिविषै उपज्या जो जनमतें लगाय सात दिन ताईका मीढाका बालका अग्रभाग तिनिकरि भूमि समान अत्यन्त गाढा भरना, तामैं रोम पैंतालीस अंकनि परिमाण मावै, तिनकू एक एक रोम खंडकं सौ सौ बरस गये काढै. जिते बरस होंय सो व्यवहार पल्य है. तिनि वर्षनिके असंख्यात समय होय हैं. ब. हुरि तिनि रोमके एक एकके असंख्यात कोडि वर्षके समय होय, तेते तेते खंड कीजिये सो उद्धार पल्यके रोम खंड होंय, तेते समय उद्धार पल्यके हैं। बहुरि इन उद्धार पल्यके एक एक रोम खंडके असंख्यात वर्षके जेते समय होंय तितने खंड कीये श्रद्धापल्यके रोमखण्ड होय हैं ताके समय भी इतने ही हैं. बहुरि दश कोडाकोडी पल्यका एक सागर होय है. बहुरि एक प्रमाणांगुल प्रमाण लंबा एकप्रदेश प्रमाण चौडा उंचा क्षेत्रकं सूच्यंगुल कहिये है. याके प्रदेश अद्धापल्यके अर्द्ध छेदनिकं विरलनकरि एक एक अद्धापल्य तिनपरि स्थापि परस्पर गुणिये जो परिमाण आवै तेते याके प्रदेश हैं. बहुरि याका वर्ग• प्रतरांगुल कहिये. बहुरि सूच्यंगुलके घन घनांगुल कहिये. एक अंगुल चौडा तेताही लांबा अर ऊंचा ताफू धन अंगुल कहिये, बहुरि सात राजू लांबा एक प्रदेश प्रमाण चौडा ऊंचा क्षेत्रकू जगतश्रेणी कहिये. याकी उत्पत्ति ऐसें जो श्रद्धापल्पक अर्द्ध छेदनिका असंख्यातवां भागका प्रमाणकू विरलनकरि एक एक परि घनांगुल देय परस्पर गुणें जा राशि निपजै सो Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतश्रेणी है. बहुरि जगतश्रेणीका वर्ग सो जगतप्रतर कहिये बहुरि जगतश्रेणीका घन सो जगतपन कहिये. सात राजु चौडा लांबा ऊंचाकं जगतधन कहिये. यह लोकके प्रदेशनि का प्रमाण है. सो भी मध्य असंख्यातका भेद है. ऐसे ए गणित संक्षेप करि कही. बहुरि गणितका कथन विशेषकरि मोम्मटसार त्रिलोकसारतें जानना. द्रव्यमें तो सूक्ष्म पुगल परमाणु, क्षेत्रमें श्राकाशके प्रदेश; कालमें समय, भावमें अविभागप्रतिच्छेद, इन च्यारूहीकू परस्पर प्रमाण संज्ञा है। सो घाटिसू पाटि तो ये हैं अर बाधिसू वाधि द्रव्यमें तौ महास्कन्ध, क्षेत्रमें आकाश, कालमें तीनू काल, भावमें केवल ज्ञान, ऐसा जानना. बहुरि कालमें एक आवलीके जघन्य युक्तासंख्यात समय हैं. अर असंख्यात आवलीका मुहूर्त है. तीस मुहूर्त्तका दिनराति है. तीस दिन रातिका एक मास । है. बारह मासका एक वर्ष है. इत्यादि जानना। ' आगें प्रथम ही लोकाकाशका स्वरूप कहै हैंसव्वायासमणतं तस्स य बहुमन्झिसंठियो लोओ। सो केण वि णेय कओ ण य धरिओ हरिहरादीहिं॥ . भाषार्थ-आकाश द्रव्य है ताका क्षेत्र प्रदेश अनन्त है. ताका बहुमध्यदेश कहिये वीचही वीचका क्षेत्र, तावि तिष्ठे ऐसा लोक है. सो काहू करि कीया नाहीं है तथा कोई इरिहरादिकरि धारथा, वा राख्या नाहीं है. भावार्थ-केई अन्य मतमें कहै हैं जो लोककी रचना ब्रह्मा करै है. नारायण रक्षा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) कर है. शिव संहार करै है. तथा काछिवा तथा शेष नाग धारथा है. तथा प्रलय होय है, तब सर्वशून्य होय जाय है. ब्रह्मकी सत्ता मात्र रह जाय है. बहुरि ब्रह्मकी सचामें सू सष्टिकी रचना होय है. इत्यादि अनेक कल्पित कहै हैं. ताका निषेध इस सूत्रतें जानना. लोक काहू करि कीया नाही. काहू करि धारया नाही. काहू करि विनसें नाहीं. जैसा है तैसा ही सर्वज्ञने देखा है सो वस्तु स्वरूप है। भागें इस लोकवि कहा है सो कहैं हैंअण्णोण्णपवेसेण य दव्वाणं अत्थणं भवे लोओ। दव्वाणं णिच्चत्तो लोयरस वि मुणह णिच्चत्तं ११६ भाषार्थ-जीवादिक द्रव्यनिका परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप प्रवेश कहिये मिलापरूप अवस्थान सो लोक है. जे द्रव्य हैं ते नित्य हैं. याही लोक भी नित्य है ऐसा जानहु. भावार्थ-षड्द्रयनिका समुदाय सो लोक है. ते द्रव्य नित्य हैं, ता. लोक भी नित्य ही है। 'आगे कोई तर्क करै जो नित्य है तो उन विनमै कौन है, ताका समाधानका सूत्र हैं हैंपरिणामसहावादो पडिसमयं परिणमंति दया । तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणामं ॥ ____ भाषार्थ-या लोकमें छह द्रव्य हैं ते पर..भाब हैं। याते सम समय परिणमै हैं तिनके परिणामी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) परिणाम जानहु. भावार्थ-द्रव्य हैं. ते परिणामी हैं. लोक है सो द्रव्यनिका समुदाय है यानै द्रव्यनिकै परिणाम है सो लोककै भी परिणाम प्राया. कोई पूछे परिणाम कहा ? ताका उत्तर-परिणाम नाम पर्यायका है. जो एक अवस्था रूप द्रव्य या सो पलटि दूजी अवस्थारूप होना. जैसे माटी पिंडअवस्थारूप थी सो पलटि करि घट बण्या. ऐसे परिणामका स्वरूप जानना. सो लोकका आकार तौ नित्य है. भर द्रव्यनिकी पर्याय पलटै है या अपेक्षा परिणाम कहिये है। आगें या लोकका आकार तौ नित्य है. ऐसा धारि व्यासादि कहै हैंसत्तेक्कु पंच इक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयते रज्जुओ पुत्वावरदो य वित्थारो ॥ ११८॥ ___ भाषार्य-लोकका पूर्व पश्चिम दिशाविषै मूल कहिये नीचें तौ सात राजू विस्तार है. बहुरि मध्य कहिये बीचि एक राजूका विस्तार है. बहुरि ऊपरि ब्रह्म स्वर्गके अंत पांच राजूका विस्तार है. बहुरि लोकका अन्तविष एक राजूका विस्तार है. भावार्य-लोक नीचले भागविष पूर्व पश्चिमदिशाविषै सात राजू चौडा है. तहांतें अनुक्रमतें घटता घटता मध्य लोक एक राजू रह्या. पीछे ऊपरि अनुक्रमतें बधता २ ब्रह्मस्वर्गताई पांच राजू चौडा भया. पी. घटतै घटते अंतमें एक राजू रह्या ऐसे होते डयोढ मृदंग ऊमी धरिये वैसा आकार भया। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) आगे दक्षिण उत्तर विस्तार वा उँचाईकूं कहै हैंदक्खिणउत्तरदो पुण सत्त वि रज्जू हवेदि सव्वत्थ । उड्ढो चउदसरज्जू सत्त वि रज्जूघणो लोओ ११९ भाषार्थ - लोक है सो दक्षिण उत्तर दिशाकं सर्व ऊंचाई पर्यंत सात राजू विस्तार है. ऊंचा चौदह राजू है । बहुरि सात राजूका घनप्रमाण है. भावार्थ-दक्षिण उत्तरकं सर्वत्र सात राजू चौडा है. ऊंचा चौधै राजू है. ऐसा लोकका घनफल करिये तब तीनसै तियालिम (३४३ ) राजू होय है. समान क्षेत्रखंढकर एक राजू चौडा लांबा ऊंचा खंड करिये ताकूं घनफल कहिये । मार्गे ऊंचाईके भेद कहै हैं, - मेरुस्स हिदुभाये सत्त वि रज्जू हवे अहोलोओ । उढम्हि उढलोओ मेरुसमो मज्झिमो लोओ ॥ १२०॥ भाषार्थ - मेरुके नीचे भागविषै सात राजू अधोलोक है. ऊपरि सात राजू ऊध्वलोक है. मेरुसमान मध्य लोक है. भावार्थ - मेरुके नीचें सात राजू अधोलोक ऊपर सात राजू ऊर्ध्व लोक, बीच में मेरुसमान लाख योजनका मध्यलोक है. ऐसें तीन लोकका विभाग जानना । आगे लोक शब्दका अर्थ कहै हैं, - संति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ । तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंतविहीणां विरायंति ॥ १२१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) भाषार्थ-जहाँ जीव आदिक पदार्थ देखिये हैं सो लोक कहिये । ताके शिखर ऊपरि अनन्ते सिद्ध विराजे हैं. भावार्थ-'लोक' दर्शने नामा व्याकरणमें धातु है. ताकै आश्रयाविषै प्रकार प्रत्ययते लोक शब्द निपजै है. तातें जामें जीवादिक द्रव्य देखिये. ताकू लोक कहिये. बहुरि ताके उपरि अन्तविष कर्म रहित शुद्धजीव अनन्त गुणनिकरि सहित अविनाशी अनंत विराजे हैं। आगें या लोकविष जीव आदि छह द्रव्य हैं तिनका वर्णन करै हैं, तहां प्रथम ही जीव द्रव्यकू कहै हैं। .. एइंदियेहिं भरिदो पंचपयारेहिं सव्वदो लोओ। तसनाडीए वि तसा ण वाहिरा होंति सव्वत्थ १२२ भाषार्थ-यह लोक पृथ्वी अप् तेज वायु बनस्पति ऐसे पंचप्रकार कायके धारक जे एकेंद्रिय जीव तिनकरि सर्वत्र भरथा है. बहुरि त्रस जीव त्रस नाडीविष ही हैं. वाहिर नाही हैं । भावार्थ-जीव द्रव्य उपयोग लक्षणवाला समान परिणामकी अपेक्षा सामान्य करि एक है. तथापि वस्तु मिन्नप्रदेशकरि अपने २ स्वरूपकुं लीये न्यारे न्यारे अनन्ते हैं. तिनमें जे एकेंद्रिय हैं. ते तो सर्व लोकमें है बहुरि बेन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसे त्रस हैं ते त्रस नाडी विषही हैं। भागें वादर सूक्ष्मादि भेद कहै हैं,पुण्णा वि अपुण्णा वि यथूला जीवा हवंति साहारा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) छविहा सुहमा जीवा लोयायासे वि सव्वत्थ १२३ ॥ भाषार्थ - जे जीव श्राधारसहित हैं, ते तौ स्थूल कहिये वादर हैं. ते पर्याप्त हैं- बहुरि अपर्याप्त भी हैं । बहुरि जे लोकाकाश सर्वत्र अन्य आधाररहित हैं ते जीव सूक्ष्म हैं छह प्रकार हैं । मार्गे वादर सूक्ष्म कूद कूंन हैं सो कहे हैं, - पुढवीजलग्गिवाऊ चचारि वि होंति वायरा सुहमा | साहारणपत्तेया वणप्फदी पंचमा दुविहा ॥ १२४ ॥ भाषार्य - पृथ्वी जल अग्नि वायु ये च्यारि तौ बादर भी हैं तथा सूक्ष्म भी हैं बहुरि पांचई वनस्पति है सो प्रत्येक साघारण भेद करि दोय प्रकार है । -- श्रार्गे साधारण प्रत्येक सूक्ष्मपणाकूं कहै हैं,साहारा विदुवा अाइकाला य साइकाला य । ते वय वादरसुहमा सेसा पुण वायरा सव्वे १२५ ॥ भाषार्थ - साधारण जीव दोय प्रकार हैं. अनादिकाला कहिये नित्य निगोद सादिकाला कहिये इतर निगोद ते दोऊं हू वादर भी हैं सूक्ष्म भी हैं बहुरि शेष कहिये प्रत्येक वनस्पती वा त्रस ते सर्व वादर ही हैं । भावार्थ- पूर्वै कहया जो सूक्ष्म छह प्रकार हैं ते पृथ्वी जल तेज वायु तौ पहली गाथा में कहे. बहुरि नित्य निगोद इतर निगोद ए दोय ऐसें छह Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) प्रकार तो सूक्ष्म जानने. बहुरि छह प्रकार तौ ए रहे अर अवशेष ते सर्व वादर जानने। ___ आगे साधारणका स्वरूप कहै हैं,साहारणाणि जोस आहारुस्सासकायआजाण । ते साहारणजीवा ताणंतप्पमाणाणं ॥ १२६ ॥ भाषार्थ-जिन अनन्तानन्त प्रमाण जीवनकै आहार उ. च्छ्वास काय आयु साधारण कहिये समान हैं. ते साधारण जीव हैं । उक्तं च गोमट्टसारे-- "जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं चंकमइ जत्थ एक्को चंकमणं तत्थ गंताणं" । भाषार्थ-जहां एक साधारण जीव निगोदिया उपजै तहां ताकी साय ही अनन्तानन्त उपले पर एक निगोद जीव मरै ताके साथ ही अनंतानन्तसमान श्रायुवाला मरै है. भावार्थ-एक जीव आहार करै तेई अनन्तानन्त जीवनिका आहार, एक जीव स्वासोस्वास ले सो ही अनन्तानन्त जीवनिका स्वासोस्वास, एक जीवका शरीर सोई अनन्तानन्तका शरीर, एक जीवका आयु सोही अनन्तानन्तका आयु ऐसे समान है तात साधारण नाम जानना। प्रागें सूक्ष्म वादरका स्वरूप कहै हैं,ण य जेसिं पडिखलणं पुढवीतोएहिं अग्गिवाएहि। ते जाण सुहुमकाया इयरा पुण थूलकाया य १२७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) भाषार्थ - जिन जीवनिका पृथ्वी जल अग्नि पवन इन करि रुकना न होय ते जीव सूक्ष्म जानहु, बहुरि ने इन करि रुकें ते वादर जानहु । आगे प्रत्येककुं वा त्रसकूं कहै हैं, पंचेया विय दुर्विहा णिगोदस हिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति तसा विय वितिचउरक्खा तहेव पंचक्खा भाषार्थ - प्रत्येक वनस्पती भी दोय प्रकार है. ते निगोदसहित हैं वैसे ही निगोदरहित हैं. बहुरि त्रस भी दोय प्रकार हैं. बेन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ऐसें तो विकलत्रय बहुरि तैसें ही पंचेन्द्रिय हैं. भावार्थ - जिस वनस्पतीके श्राश्रय निगोद पाइये सो तौ साधारण है, याकूं सप्रतिष्ठित भी कहिये. बहुरि जिसकै श्राश्रम निगोद नाहीं ताकूं प्रत्येक ही कहिये. याहीको प्रतिष्ठित भी कहिये है. बहुरि बेन्द्रिय श्रादिककूं त्रस कहिये है. * मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीज बोजरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥ १ ॥ जो वनस्पति मूल अग्र पर्व कंद स्कंध वीजसे पैदा होती हैं तथा जो सम्मूर्च्छन हैं वे वनस्पतियां सपतिष्ठित हैं तथा अप्रतिष्ठित भी हैं। भावार्थ - बहुत सी वनस्पतियां मूलसे पैदा होती हैं जैसे अदरक, हल्दी आदि । कई वनस्पति अग्र भाग से उत्पन्न होती हैं जैसे गुलाव Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ७५ ) आगे पंचेंद्रियनिकें भेद कहैं हैं। पंचक्खा विय तिविहा जलथलआयासगामिणो तिरिया पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ॥१२९ । किसी वनस्पतिकी उत्पत्ति पर्व ( पंगोली) से होती है जैसे ईख बेंत भादि । कोई वनस्पति कन्दसे उपजती हैं जैसे सू. रण श्रादि । कई वनस्पति स्कन्धसे होती हैं जैसे ढाक । बहुत सी वनस्पति बीज से होती हैं जैसे चना गेहूं आदि । कई वनस्पति पृथ्वी जल आदिके सम्बन्धसे पैदा हो जाती हैं वे सम्मूर्छन हैं जैसे घास आदि। ये सभी वनस्पति सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित दोनों प्रकारकी हैं ॥१॥ गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरहं च छिण्णरुहं। साहारणं सरोरं तविवरीयं च पत्तेयं ॥२॥ जिन वनस्पतियों के शिरा ( तोरई आदि में ) संधि (खापोंके चिन्ह खरबूजे आदि में ) पर्व ( पंगोली गन्ने आदि में ) प्रगट न हों और जिनमें तन्तु पैदा न हुभा हो. (मिंडी आदिमें ) तथा जो काटने पर फिर बढ जांय वे सप्रतिष्ठित वनस्पति हैं इनसे उलटी अप्रतिष्ठित समझनी चा.. हिये ॥२॥ मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलबोजे । समभंगे सदि णता असमे सदि होंति पत्तेया॥३॥ जिन वनस्पतियोंका मूल हल्दी, अदरक आदि ) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) भाषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यच हैं ते जलचर थलचर नभपर ऐसे तीन प्रकार हैं. बहुरि प्रत्येक मनकरि युक्त सैनी भी हैं तथा मनरहित असैनी भी हैं। बहुरि इनके भेद कहै हैं,ते वि पुणो वि य दुविहा गन्भजजम्मा तहेव सम्मत्था भोगभुवा गब्भभुवा थलयरणहगामिणो सण्णी १३० ___भाषार्थ-ते छह प्रकार कहे जे तिर्यच ते गर्भज भी हैं बहुरि सम्मूर्च्छन भी हैं बहुरि इनविषै जे भोगभूमिके तियच हैं ते थलचर नधचर ही हैं. जलचर नाहीं हैं बहुरि ते सैनी ही हैं असैनी नाही हैं । आगे अठ्याणवै जीव समासनिकू तथा तिर्यचके पिच्यासी भेदनिकू कहै हैं कन्द (सरण आदि) छाल, नई कोंपल, टहनी, फूल, फल, तथा वीज तोडने पर बराबर टूट जाय वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं तथा जो बरावर न टूटे वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं ॥३॥ कंदस्स व मूलस्स व सालाखंधस्स वा वि बहुलतरो। छल्ली सा गंतजिया पत्तेजिया तु तणुकदरी ॥४॥ जिन वनस्पतियोंके कन्द, मूल, टहनी, स्कंधकी छाल मोटी है उन्हें सप्रतिष्ठित प्रत्येक ( अनंत जीवोंका स्थान ) जानना चाहिये और जिनकी छाल पतली हो उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक मानना चाहिये ॥४॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) अट्ठ वि गब्भज दुविहा तिविहा सम्मुच्छिणो वि तेवीसा इदि पणसीदी भेया सव्वेसि होति तिरियाणं १३१ ____ भावार्य-सर्व ही तिर्यंचनिके पिच्यासी भेद हैं. तहां गर्भजके आठ ते तो पर्याप्त अपर्याप्तकरि सोलह भये. बहुरि सम्मूर्च्छनके तेईस भेद, ते पर्याप्त अपर्याप्त. लब्ध्यपर्यासकरि गुणहत्तरि भये ऐसें पिच्यासी हैं. भावार्थ- कहे जे कर्मभूमिके गर्भज जलचर थलचर नभचर ते सैनी असैनी करि छह भेद, बहुरि भोगभूमिके. थलचर नभचर सनी ये आठही यति अपर्याप्त भेदकरि सोलह, बहुरि सामूर्छनके पृथ्वी अप तेज वायु नित्य निगोदके सूक्ष्म बादरकरि बारह बहुरि वनस्पती सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित ऐसे चौदह वौ एकेन्द्रिय भेद बहुरि विकलत्रय तीन, बहुरि पंचेन्द्रिय कर्मभूमिके जलचर थल वर नभचर सैनी असैनी करि छह मेद, ऐसें सब मिलि तेईस. ताकै पर्याप्त अपरत लब्ध्यपर्याप्तकरि गुणहत्तरि ऐसे पच्यासा होय है ॥ १३१ ॥ . आगें मनुष्यनिके भेद कहै हैंअजव मिलेच्छखंडे भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु मणुआ हवंति दुविहा णिवित्तिअपुण्णग्गा पुण्णा॥ भावार्थ-मनुष्य भार्यखंडविषै म्लेक्षखंड विर्षे तथा भोगभूमविौं तथा कुभोगभूमिविषे हैं ते च्यारि ही पर्याप्त 1. निवृत्ति अपर्यातकरि आठ भेद भये ।। १३२ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) सम्मुच्छणा मणुस्सा अब्जवखंडेसु होंति णियमेण ते पुण लद्धिअण्णा णाय देवा वि ते दुविहा १३३ भाषार्थ - सम्मूर्च्छन मनुष्य भार्यखंडविषै ही नियम करि होय हैं. ते लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं, बहुरि नारक तथा देव ते पर्याप्त तथा निरृत्यपर्याप्तके भेद करि प्यारि भेद हैं. ऐसें तियेचके भेद पिच्यासी, मनुष्य के नव नारक देवके च्यारि, सर्व मिलि प्रयासवें भेद भये. बहुतनिको समानता करि भेले करि कहिये संक्षेप करि संग्रह करि कहिये ताकूं समास कहिये है. सो यहां बहुत जीवनिका संक्षेप करि कहना सो जीवसमास जानना. ऐसें जीव समास कहे । मागे पर्याप्तिका वर्णन करे हैं, आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासहासमणसाण । परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चैव सीओ ॥ १३४ ॥ भाषार्थ - जो आहार शरीर इन्द्रिय स्वासोवास भाषा मन इनको परिणमनकी प्रवृत्तिविषै सामर्थ्य सो छह प्रकार है. भावार्थ - आत्माकै यथायोग्य कर्मका उदय होतैं आहा-रादिक ग्रहणकी शक्तिका होना सो शक्तिरूप पर्याप्ति कहिये सो छह प्रकार है । शक्तिका कार्य कहै हैं । तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जा हुणिप्पत्ति । सापजती भण्णदि छन्भया जिणवरिंदेहिं ॥ १३५ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ-तिस शक्ति प्रवृत्तिकी पूर्णताकू कारण जे पुद्लके स्कंध तिनकी प्रगटपणे निष्पत्ति कहिये पूर्णता होना ताकू पर्याप्ति ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहया है। भागें पर्याप्त निवृत्यपर्याप्तके कालकू कहै हैं,पंजा गिळंतोमणुपजति ण जाव समणोदि। ता णिव्वतिअपुण्णो मणुपुण्णोभण्णदे पुण्णो ॥१३६॥ भाषार्थ-यह जीव पर्याप्तिक ग्रहण करता संता जैसे मन:पयोतिषं पूर्ण न करै तेतें नित्यपर्याप्त कहिये. बहुरि जब मनःपर्याप्ति पूर्ण होय तब पर्याप्त कहिये, भावार्थ-इहां सैनी पंचेन्द्रिय जीवकी अपेक्षा मनमें धारि ऐसे कथन किया है. अन्य यन्यनिमें जे शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होय तेते नित्यपर्याप्त है. ऐसे कयन सर्व जीवनिका कहया है। __ आगें लब्ध्यपर्याप्तका स्वरूर कहै हैं,उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदिणय समाणोदि । एका विय पजची लद्धिअपुण्णा हवे सो दु ॥१३॥ ___ भाषार्थ-जो जीव स्वासके अठार भागमें मरै एक भी पर्याप्ति पूर्ण न करै सो जीव लब्ध्यपर्याप्तिक कहिये। १ पज्जतस्स य उदये णिय णिय पज्जति णिहिदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥१॥ तिग्णसया छत्तोसा छावठ्ठोसहस्सगाणि मरणानि । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥२॥ सीदीसठ्ठातालं वियले चउवास होति पंचक्खे। - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) भागे एकेन्द्रियादि जीवनिकै पर्याप्तिनिकी संख्या कहै हैं, लद्धिअपुण्णो पुण्णं पजत्ती एयक्खवियलसण्णीणं। चद् पण छकं कमसो पज्जतीए वियाणेह॥१३८ ॥ भाषार्थ-एकेन्द्रियकै च्यारि विकलत्रयकैन, सैनी पंचेन्द्रियके छह ऐसे क्रमतें पर्याप्त जाणू बहुरि लापर्याप्तक है सो अपर्याप्तक है. याकै पर्याप्ति नाही. भावार्थ-एकेन्द्रियादिककै क्रमते पर्याप्ति करे. इहां प्रसनीका नाप लाया नहीं तहां तौ सैनीकै छह असैनीकै पांच जानने. बहुरि नित्यपर्याप्त ग्रहण कार्य ही हैं पूर्ण हासी ही तातें जो संख्या कही है सो ही है. बहुर लब्ध्यपर्याप्त यद्यपि ग्रहण कीया है तथापि पूर्ण होय शक्या नाही, ता ताळू अपूर्ण ही कहया ऐसा सच है. ऐसें पर्याप्तिका वर्णन कीया। . आगे प्राणनिका वर्णन करें हैं तहां प्रथमही प्राणनिका स्वरूप वा संख्या व है हैंमणक्यणकायइंदियाणस्सासुस्सासआउरुदयाणं। जोस जोए जन्मदिमरदिविओगम्मितेविदह पाणा छावठि ६ सहसा सच बत्तीसमेयरले ॥३॥ पुढविदगाणिमारसाहारणथूलसुहुम . पदेसु अण्णेमु य एच.पके वार छक्का ॥४॥ पर्याप्तिनामा नामकर्मके उदयसे अपनी अपनी पर्याप्ति बनाता है । जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) भाषार्थ- जो मन वचन काय इन्द्रिय स्वासोवास आयु है तिनके संयोगः तौ उपजै जीवै,। बहुरि इनिके वियोग” मरै ते प्राण कहिये. ते दश हैं. भावार्थ-जीव ऐसा उसको नित्यपर्याप्तक कहते हैं । भावार्थ-जो पर्याप्ति कमका उदय होनेसे लब्धि (शक्ति) की अपेक्षासे पर्याप्त है किंतु निवृत्ति (शरीरपति बनने) की अपेक्षा पूर्ण नहीं है वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है ॥१॥ लब्ध्यपर्याप्तक जीवके एक अंतर्मुहूर्तमें ६६३३६ क्षुद्रजन्म होते हैं और उतने ही क्षुद्रमरण हाते हैं ॥२॥ . ___ अंतर्मुहूर्तकालमें द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ८०, श्रीन्द्रिय लव्यपर्याप्तक ६०, चतुरिंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ४०, और पंचें: द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक २४ मरण करते हैं तथा जन्म लेते हैं। एकेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव उतने ही समयमें ६६१३२ जन्म मरण करते हैं (इसप्रकार एकेंद्रिय, पिकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रियके समस्त भवोंको मिलानेसे ६६३३६ क्षुद्रभव होते हैं ) ॥३॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये चारों ही बादर और सूक्ष्म इस प्रकार पाठ भेद हुए तथा वादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण और प्रत्येक इस प्रकार तीन भेद वनस्पतीके हुये। इन ग्यारह प्रकारके एकेंद्रिय जीवोंमें हर एक जीके एक अंतमुहूर्तमें ६०१२ जन्म परण होते हैं इसमकार सबोंका योग करनेसे एकेंद्रिय जीवोंके ६६१३२ भव होते हैं ॥४॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) पाणधारण अर्थ है सो व्यवहार नयकरि दश प्राण हैं. तिनमें यथायोग्य प्राणसहित जीवै ता• जीवसंज्ञा है। ___ आगे एकेन्द्रियादि जीवनिक प्राणनिकी संख्या कहै हैं, एयक्खे चदुपाणा वितिचउरिंदिय असण्णिसण्णीणं। छह सत्त अट्टणवयं दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥१४॥ भाषार्थ-एफेन्द्रियकै च्यारि प्राण हैं बेन्द्रिय, तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रियनिकै, पर्याप्तिनिक अनुक्रमतें छह सात आठ नव दश प्राण हैं ए प्राण पर्याप्त अवस्याविषै कहे ॥ १४०॥ आगे इनिही जीवनिकै अपर्याप्त अवस्थाविषै कहै हैंदुविहाणमपुण्णाणं इगिवितिचउरक्ख अंतिमदुगाणं तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा __भाषार्थ-दोय प्रकारके अपर्याप्त जे एकेंद्रिय, द्वींद्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असैनी तथा सैनी पंचेंद्रियनिके तीन च्यारि पांच छह सात ऐसे अनुक्रमः प्राण जानने. भावार्थनिवत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त एकेंद्रियके तीन, वेइन्द्रियके च्यारि तेइन्द्रियके पांच, चतुरिन्द्रियके छह, असैनी सैनी पंचेंद्रियके सात ऐसे प्राण जानने । भागें विकलत्रय जीवनिका ठिकाणा कहें हैंवितिचउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) चरमे दीवे अद्धे चरमसमुद्दे वि सव्वे ॥ १४२ ॥ भाषार्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रियं चतुरिन्द्रिय, जे विकलत्रय कहावें ते जीव नियमकरि कर्मभूमिविषै ही होय हैं तथा अंतका आधा द्वीप तथा अंतका सारा समुद्रविषै होय हैं. भोगभूमिविष न होय हैं. भावार्थ-पंच भरत पंच ऐरावत पंच विदेह ए कर्मभूमि के क्षेत्र हैं तथा अंतका स्वयंप्रभ द्वीप के बीच स्वयंप्रभ पर्वत हैं तातें परै आधा द्वीप तथा अंतका स्वयंभूरमा सारा समुद्र एती जायगां विकलत्रय हैं और जायना नाहीं ॥ १४२ ॥ आगे अढाई द्वीपतें बाह्य तिर्यच हैं तिनकी व्यवस्था हैमवत पर्वत सारिखी है ऐस कहै हैंमाणुसखिस्स बहिं चरमे दीवस्स अद्धयं जाव । सव्वत्थे वितिरिच्छा हिमवदतिरिएहिं सारित्था ॥ भाषार्थ - मनुष्य क्षेत्रतैं बारै मानुषोत्तर पर्वततै परें अंतका द्वीप जो स्वयंप्रभ ताका आधाके उरैं बीचिके सर्व द्वीप समुद्रके तिच हैं ते हैमवत क्षेत्रके तिर्यचनि सारिखे हैं. भावार्थ - हैमवतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है. सो मानुषोतर पर्वत पर असंख्यात द्वीप समुद्र प्राधा स्वयंप्रभ नामा अंतका द्वीपांईं समस्तमें जघन्य भोगभूमिकी रचना है वहांके तिचनिकी आयु काय हैमवत क्षेत्रके तिर्यचनिसारिखी है । मागें जलचर जीवनिका ठिकाणा कहै हैं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ लवणोए कालोए अंतिमजलहिम्मि जलयरा सति । सेससमुद्दसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण॥१४॥ भाषार्थ-लवणोद समुद्रविष बहुरि कालोद समुद्रविषै तथा अंतका स्वयंभूरमण समुद्रविष जलचर जीव हैं. बहुरि अवशेष वीचिके समुद्रनिविष नियमकरि जलचर जीव नाहीं हैं। ___ आमें देवनिके ठिकाणे कहै हैं. तहां प्रथम भवनवासी व्यंतरनिके कहै हैंखरभायपंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि । वितरदेवाण तहा दुहं पि य तिरियलोए वि॥१४५॥ __भाषार्थ-खरभाग पंकभागविषै भवनवासीनिके भवन हैं तथा व्यन्तर देवनिके निवास हैं. बहुरि इन दोउनिके तिर्यग्लोकविष भी निवास हैं. भावार्थ-पहली पृथ्वी रत्न- .. प्रभा एक लाख अस्सी हजार योजनकी मोटी, ताके तीन भाग तामें खरभाग सोलह हजार योजनका, वाविषै असुरकुमार विना नवकुमार भवनवासीनिके भवन हैं. तथा राक्षसकुल विना सात कुल व्यंतरनिके निवास हैं. बहुरि दूसरा पंकभाग चौरासी हजार योजनका तामें असुरकुमार भवनवासी तथा राक्षसकुल व्यंतर चसै हैं. बहुरि तिर्यग्लोक जो मध्यलोक असंख्याते द्वीप समुद्र तिनिमें भवनवासीनिके भी भवन हैं, बहुरि व्यन्तरनिके भी निवास हैं। ___आगें ज्योतिषी तथा कल्पवासी तथा नारकीनिकी व. सती कहै हैं Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) जोइसियाण विमाणा रज्जूमित्ते वि तिरियलोए वि । कप्पसुरा उड्ढाह्मे य अहलोए होंति णेरइया ॥ १४६॥ भाषार्थ - ज्योतिषी देवनिके विमान एक राजू प्रमाण तिर्यग्लोकविषै असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, तिनके ऊपरि तिष्ठै हैं. बहुरि कल्पवासी ऊर्ध्वलोकविषै हैं, बहुरि नारकी अधोलोकवि हैं । गें जीवनिकी संख्या कहै हैं, तहां तेजवातकायके जीवनिकी संख्या कहै हैंवादरपज्जत्तिजुदा घणआवलिया असंखभागो दु । किंचूणलोयमिता तेऊ वाऊ जहाकमसो ॥ १४७ ॥ भाषार्थ - अग्निकाय वातकायके वादरपर्याप्तसहित जीव हैं ते घन भावलीके असंख्यातवें भाग तथा कुछ घाटि लोकके प्रदेशप्रमाण यथा अनुक्रम जानने. भावार्थ - अग्निकायके घनआवली असंख्यातवें भाग, वातकायके कुछ एक घाटि लोकप्रदेशप्रपाण हैं । V आगे पृथ्वी आदिकी संख्या कहै हैंपुढवीतोयसरीरा पत्या वि य पट्टिया इयरा । होंति असंखा सेढी पुण्णा पुण्णा य तह य तसा १४८ भाषार्थ - पृथ्वी कायिक अपकायिक प्रत्येकवनस्पतिकायिक समतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित तथा त्रस ये सारे पर्याप्त अ पर्याप्त जीव हैं ते जुदे जुदे असंख्यात जगत् श्रेणीप्रमाण हैं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) वादरलद्धिअपुण्णा असंखलोया हवंति पत्तेया । तह य अपुण्णा सुहुमा पुण्णा वि य संखगुणगुणिया . भाषार्थ-प्रत्येक वनस्पति तथा वादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव हैं ते असंख्यात लोकप्रमाण हैं. ऐसे ही सूक्ष्मअपर्यातक असंख्यात लोकप्रमाण हैं बहुरि सूक्ष्मपर्याप्तक जीव हैं ते संख्यातगुणे हैं। सिद्धा संति अणता सिद्धाहितो अणतगुणगुणिया। होति णिगोदा जीवा भाग अणंता अभव्वा य १५० भाषार्थ-सिद्धजीव अनन्ते हैं बहुरि सिद्धनिः अनन्त गुणें निगोद जीव हैं बहुरि सिद्धनिके अनन्तवे भाग अभव्य जीव हैं। सम्मुच्छिया हु मणुया सेढियसंखिज्ज भागीमत्ता हु गब्भजमणुया सव्वे संखिज्जा होति.णियमेण १५१ ___ भाषार्थ-सम्मुर्डन मनुष्य हैं ते जगतश्रेणीके असंख्यातवे भागमात्र हैं बहुरि गर्भज मनुष्य हैं ते नियमकरि संख्यात आगे सान्तर निरन्तरकुं कहै हैंदेवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरा होंति सम्मुच्छ्यिा विमणुया सेसा सव्वे णिरंतरया ॥१५२॥ भाषार्थ-देव तथा नारकी बहुरि लब्ध्यपर्याप्तक बहुरि सम्मू Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) र्छन मनुष्य एते तौ सान्तर कहिये अन्तरसहित हैं. अवशेष सर्व जीव निरन्तर हैं. भावार्थ- पर्यायसुं अन्य पर्याय पावै फेरि वाही पर्याय पावै जेते वीचमें अन्तर रहे ताकूं सांतर कहिये सो इहां नाना जीव अपेक्षा अन्तर कला है जो देव तथा नारकी तथा मनुष्य तथा लब्ध्यपर्यातक जीवकी उत्पत्ति कोई कालमें न होय सो तौ अन्तर कहिये. बहुरि अंतर न पड़े सो निरन्तर कहिये. सो वैक्रियकमिश्रकाययोगी जे देव नारकी तिनिका तौ बारह मुहूर्त्तका कया है. कोई ही न उपजै तो बारह मुहूर्त्त तांई न उपजै बहुरि सम्मूर्छन मनुष्य कोई ही न होय तौ पल्यके असंख्यातवें भाग कालतांई न होय. ऐसैं अन्य ग्रन्थनिमें कहा है अवशेष सर्व जीव निरन्तर उपजै हैं | * / आगें जीवनिकूं संख्याकरि अल्प बहुत कहैं हैंमणुयादो रइया रइयादो असंखगुणगुणिया । सव्वे हवंति देवा पतेयवणप्फदी तो ॥ १५३ ॥ भाषार्थ - मनुष्यनित नारकी असंख्यात गुणे हैं. नारकीनितें सर्व देव असंख्यात गुणे हैं, देवनिर्वै प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुणे हैं । पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुण्णा तहेव तेयक्खा । वैयक्खा विय कमसो विसेससहिदा हु सव्व संखाए भाषार्थ - पंचेन्द्रिय चौइन्द्रिय तेइन्द्रिय वेइंद्रिय ये लब्ध्य Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( द ) पर्याप्त जीव संख्या करि विशेषाधिक हैं. किछु अधिककूं विशेषाधिक कहिये सो ए अनुक्रमतें बघते २ हैं । चउरक्खा पंचक्खा वैयक्खा तहय जाण तेयक्खा । एदे पज्जतिजुदा अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ भाषार्थ-चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय वेइन्द्रिय तैसें ही तेइन्द्रिय ये पर्याप्तिसहित जीव अनुक्रमतें अधिक अधिक जानहु । परिवज्जिय सुहुमाणं सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं । इक्को भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥ १५६ ॥ भाषार्थ - सूक्ष्म जीवनिकं छोडि अवशेष पर्याप्ततियच हैं तिनके एक भाग तौ पर्याप्त हैं. बहुरि बहुभाग असंख्याते अपर्याप्त हैं. भावार्थ- वादर जीवनिविषै पर्याप्त थोरे हैं, अपर्याप्त बहुत हैं। सुहुमा पज्जत्ताणं एगो भागो हवेइ नियमेण । संखिज्जा खल भागा तेसिं पज्जत्तिदेहाणं ॥ १५७॥ भाषार्थ सूक्ष्मपर्याप्त जीव संख्यात भाग हैं इनिमें अपकि एक भाग हैं. भावार्थ- सूक्ष्म जीवनि में पर्याप्त बहुत हैं पर्याप्त थोरे हैं। संखिज्जगुणा देवा अंतिमपटला द आणदं जाव । दु तो असंखगुणिदा सोहम्मं जाव पडिपडलं ॥ १५८ ॥ भाषार्थ - देव हैं ते अंतिम पटल जो अनुत्तर विमान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) ताल ले अर नीचे आनत स्वर्गका पटलपर्यंत संख्यातगुणे हैं. तापीछे नीचे सौधर्मपर्यंत असंख्यातगुणे पटलपटलपति हैं। सत्तमणारयहितो असंखगुणिदा हवंति णेरइया । जावय पढमं णरयं वहुदुक्खा होंति हेट्ठा॥१५९।। __ भाषार्थ-सातवां नरक” ले ऊपरि पहला नरकताई जीव असंख्यात २ गुण हैं. बहुरि प्रथम नरक ले नीचे २ बहुत दुःख हैं। कप्पसुरा भावणया विंतरदेवा तहेव जोइसिया। बे होंत असंखगुणा संखगुणा होति जोइसिया ॥ - भाषार्थ-कल्पवासी देवान भवनवासी देव व्यंतरदेव ए दोय राशिौ असंख्याल गुणी हैं। बहुरि ज्योतिषी देव ब्यंतरनित संख्यातगुणे हैं ॥ १६० ॥ प्रागै एकेंद्रियादिक जीवनिकी आयु कहै हैंपत्तेयाणं आऊ वाससहस्साणि दह हवे परमं । अंतोमुहत्तमाऊ साहारणसव्वसुहमाणं ॥ १६१ ॥ भाषार्थ- प्रत्येक वनस्पतिकी उत्कृष्ट आयु दश हजार वर्षकी है. बहुरि साधारणनित्य, इतरनिगोद सूक्ष्म वादर तथा सर्व ही सूक्ष्म पृथ्वी अप तेज वातकायिक जीवनिकी उस्कृष्ट आयु अन्तर्मुहूर्तकी है ॥ १६१ ॥ आगें वादर जीवनिकी आयु कहै हैं,बावीस सत्चसहसा पुढवीतोयाण आउसं होदि । अग्गीणं तिणि दिणा तिण्णि सहस्साणि वाऊणं १६२ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) भाषार्थ - पृथ्वीकायिक जीवनिकी उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्षकी है. अपकायिक जीवनिकी उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्षकी है. अग्निकायिक जीवनिकी उत्कृष्ट आयु तीन दिनकी है. वायुकायिक जीवनिकी उत्कृष्ट आयु तीन ह जार वर्षकी है ।। १६२ ॥ आगे बेन्द्रिय आदिककी आयु कहै हैं, वारसवास वियखे एगुणवण्णा दिणाणि तेयक्खे | चउरक्खे छम्मासा पंचक्खे तिणि पल्लाणि ॥ १६३ ॥ भाषार्थ - वेइन्द्रिय जीवनिकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्षकी है. तेइन्द्रिय जीवनिकी उत्कृष्ट आयु गुणचास दिनकी है. चौइन्द्रिय जीवनिकी उत्कृष्ट प्रायु छह महीनाकी है. पंचेन्द्रिय जीवनिकी उत्कृष्ट प्रायु भोगभूमिकी अपेक्षा तीन पल्यकी है । या सर्व ही तिच अर मनुष्यनिकी जघन्य प्रायु कहै हैंसव्वजहण्णं आऊ लद्धियपुण्णाण सव्वजीवाणं । मज्झिमही मुहुतं पज्जत्तिजुदाण णिकिटं ॥ १६४ ॥ भाषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवनिकी जघन्य श्रायु मध्यमहीन मुहूर्त है. सो यह क्षुद्रभवमात्र जाननी एक उस्वास के अठारहवें भाग मात्र है, बहुरि जिनके लब्ध्यपर्याप्ति होय, ऐसे कर्मभूमि के तिर्येच मनुष्य तिन सर्व ही पर्याप्त जीवनिकी जघन्य आयु भी मध्यहीन मुहूर्त्त है, सो यह पहलेतैं बडा मध्य अन्तर्मुहूर्त्त है । • Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) - अब देवनारकीनिकी आयु कहै हैं,देवाण णारयाणं सायरसंखा हवंति तेतीसा।। उक्किटुं च जहण्णं वासाणं दस सहस्साणि ॥१६५॥ भाषा)-देवनिकी तथा नारकी जीवनिकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरकी है. बहुरि जघन्य श्रायु दस हजार वर्षकी है. भावार्थ-यह सामान्य देवनिकी अपेक्षा कही है विशेष त्रैलोक्यसार आदि ग्रंथनितें जाननी ॥ १६५ ।। प्रागें एकेन्द्रिय प्रादि जीवनिकी शरीरकी अवगाइना उत्कृष्ट जघन्य दश गाथानिमें कहै हैं,अंगुलअसंखभागो एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं । जोयणसहस्समहियं पउमं उक्कस्सयं जाण ॥१६॥ भाषार्थ-एकेन्द्रिय चतुष्क कहिये पृथ्वी अप तेज वायु कायके जीवनिकी अवगाहना जघन्य तथा उत्कृष्ट घन अंगुलके असंख्यातवें भाग है. इहां सूक्ष्म तथा गदर पर्याप्तक अपर्याप्तकका शरीर छोटा बड़ा है. तोऊ घनांगुलके अंसख्यातवें भाग ही सामान्यकरि कह्या. विशेष गोम्मटसारतें जानना. बहुरि अंगुल उत्सेधअंगुल पाठ यव प्रमाण लेणी, प्रमाणांगुल न लेणी, बहुरि प्रत्येक वनस्पती कायविर्षे उ. स्कृष्ट अवगाहनायुक्त कमल है ताकी अवगाहना किछु अधिक हजार योजन है ॥ १६६ ॥ बायसजायण संखो कोसतियं गुब्भिया समुद्दिट्ठा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) भमरो जोयणमेगं सहस्स सम्मुच्छिदो मच्छो ॥१६॥ भाषार्थ-वेइन्द्रियविष शंख बडा है ताकी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन लांबी है. तेइंद्रियविष गोभिका कहिये कानखिजूरा बडा है ताकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोश लांबी है. बहुरि चौइंद्रियविष बडा भ्रपर है ताकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लांबी है. बहुरि पंचेंद्रियविष बडा मच्छ है ताकी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लांबी है. ए जीव अंतका स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्रमें जानने ॥१६७॥ अब नारकीनकी उत्कृष्ट अवगाहना कहै हैं,पंचसयाधणुछेहा सचमणरए हवंति णारइया । तत्वो उस्सेहेण य अद्धद्धा होति उवरुवरि ॥१६॥ भाषार्थ-सातवें नरकविषै नारकी जीवनिका देह पांचसै धनुष ऊंचा है. ताकै ऊपरि देहकी ऊंचाई आधी आधी है. छट्ठामें दोसै पचास धनुष, पांचवामें एकसौ पच्चीस धनुष, चौथेमें साढावासठि धनुष, तीसरामें सवाइकतीस धनुष, दूभरामें पनरा धनुष आना दश, पहलामें सात धनुष तेरह आना, ऐसें जानना- इनमें पटल गुणचास हैं तिनविरे न्यारी न्यारी विशेष अवगाहना त्रैलोक्यसारतें जाननी ॥१८॥ अब देवनिकी अवगाहना कहै हैं,असुराणं पणवीसं सेसं णवभावणा य दहदंडं । वितरदेवाण तहा जोइसिया सत्तधणुदेहा ॥ १६९॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ-भवनवासीनिविौं असुरकुमार हैं तिनकी देहकी ऊंचाई पच्चीस धनुष, वाकी नवनिकी दश धनुष, अर व्यंतरनिकी देहकी ऊंचाई दश धनुष है, अर ज्योतिषी दे. वनिकी देहकी ऊंचाई सात धनुष है ॥ १६९ ॥ अब स्वर्गके देवनिकी कहै हैं,-- दुगदुगचदुचदुदुगदुगकप्पसुराणं सरीरपरिमाणं । . सत्तछहपंचहत्था चउरा अबद्ध हीणा य ॥१७॥ हिटिममज्झिमउवरिमगेवझे तह विमाणचउदसए। अद्दजुदा वे हत्था हीणं अद्धद्धयं उवरि ॥ ११ ॥ भाषार्थ-सौधर्म ईशान जुगलके देवनिका देह सात हाथ ऊंचा है. सानत्कुमार माहेन्द्र युगलके देवनिका देह छह हाय ऊंचा है. ब्रह्म ब्रह्मोचर लान्तव कापिष्ठ इनि च्यारि स्वर्गके देवनिका देह पांच हाथ ऊंचा है. शुक्र महाशुक्र सतार सहसार इनि च्यारि स्वर्गके देवनिका देह च्यारि हाथ ऊंचा है श्रानत प्राणत युगलके देवनिका देह साढा तीन हाथ ऊंचा है आरण अच्युतविर्षे देवनिका देह तीन हाय ऊंचा है। अघोग्रैवेयकविर्षे देवनिका देह अढाई हाथ ऊंचा है. मध्यमवेयकविषै देवनिका देह दोय हाथ ऊंचा है। उपरिके वेयकविष देवनिका देह ड्योढ हाथ ऊंचा है. नव अनुदिस पंच अनुत्तरवि देवनिका देह एक हाथ ऊंचा है ॥१७०-१७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४ ) - आगे भरत ऐरावत क्षेत्रविषै कालकी अपेक्षामनुष्यनिका शरीरकी ऊंचाई कहै हैंअवसप्पिणिएं पढमे काले मणुया तिकोसउच्छेहा । छहस्सवि अवसाणे हत्थपमाणा विवत्था य ॥१७२।। भाषार्थ-अवसर्पिणीका पहला कालविषै आदिमें मनुध्यनिका देह तीन कोश ऊंचा है. बहुरि छठाकालका अंतमें मनुष्यनिका देह एक हाथ ऊंचा है. बहुरि छठा कालका जीव वस्त्रादिकरि रहित होय हैं ॥ १७२॥ __आगें एकेन्द्रिय जीवनिका जघन्य देह कहै हैं,सव्वजहण्णो देहो लद्धियपुण्णाण सव्वजीवाणं । अंगुलअसंखभागो अणेयभेओ हवे सो वि॥१७॥ ___ भाषार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवनिका देह घनअंगुलके असंख्यातवें भाग है. सो यह सर्व जघन्य है. सो यामें भी अनेक भेद हैं. भावार्थ-एकेन्द्रिय जीवनिका जघन्य देह भी छोटा बडा है. सो घनांगुलके असंख्यात भागमें भी अनेक भेद हैं. सो गोम्मटसारविष अवयाहनाके चौसठि भेदनिका वर्णन है तहांतें जानना ॥ १७३ ॥ _ आगे वेइंद्रिय आदिकी जघन्य अवगाहना कहै हैं,वितिचउपंचक्खाणं जहण्णदेहो हवेइ पुण्णाणं । अंगुलअसंखभाओ संखगुणो सो वि उवरुवरि १७४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ-वेइंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय पंचेंद्रिय पर्याप्त जीवनिका जघन्य देह धन अंगुलके असंख्यातचे माग है. सो भी ऊपरि ऊपरि संख्यात गुणे हैं. भावार्थ-वेइंद्रियका देहत संख्यातगुणा तेइंद्रियका देह है. तेइंद्रियतै संख्यातगुणा चौइद्रियका देह है. ता संख्यात गुणा पंचेंद्रियका है ॥१७४ ॥ श्रागें जघन्य अवगाहनाका धारक वेइंद्रिय प्रादि जीव कौन कौन हैं सो कहै हैंआणुधरीयं कुंथं मच्छाकाणा य सालिसिच्छो य । पज्जत्ताण तसाणं जहण्णदेहो विणिहिट्ठो ॥१७५।। __ भाषार्थ-वेइंद्रियमें तौ अणुद्धरी जीव, तेइंद्रियमें कुंथु जीव, चौइंद्रियमें काणमक्षिका, पंचेंद्रियमें शालिसिक्यक नामा मच्छ इनित्रस पर्याप्त जीवनिक जघन्य देह कहा है॥ १७॥ ___ आगें जीवका लोक प्रमाण पर देहप्रमाणपणा कहै हैं । लोयपमाणो जीवो देहपमाणो वि अत्थिदे खेते। ओगाहणसतीदो संहरणावसप्पधम्मादो ॥१७६।। ___ भाषार्थ-जीव है सो लोक प्रमाण है. बहुरि देहममाण भी है जातै संकोच विस्तार धर्म यामें पाइये है. ऐसी अवगाहनाकी शक्ति है. भावार्थ-लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं. सो जीरके भी एते ही प्रदेश हैं केवल समुद्घात करै तिस काल लोकपूरण होय . बहुरि संकोचविस्तारशक्ति यामें है Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) ता जैसी देह पावै तैसाही प्रमाण रहे है, अर समुद्घात करै तब देह भी प्रदेश नीस रे हैं ॥ १७६ ॥ आगें कोई अन्यमती जीवकुं सर्वथा सर्वगत ही कहै हैं विनिका निषेध करें हैं, - ! सव्वगओ जदि जीवो सव्वत्थ विदुक्खसुक्खसंपत्ती जाइज ण सा दिट्ठी णियतणुमाणो तदो जीवो ॥ भाषार्थ - जो जीव सर्वगत ही होय तौ सर्व क्षेत्र संबंधी सुखदुःखकी प्राप्ति या भई सो तौ नाहीं देखिये है. अपने शरीरमें ही सुखदुःखकी प्राप्ति देखिये है. तातैं अपने शरीप्रमाण ही जीव है ॥ १७७ ॥ जीवाणसहावो जह अग्गी उहओ सहावेण । अत्यंतरभूद्रेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी ॥१७८॥ भाषार्थ - जैसें अनि स्वभावकरि ही उष्ण है तैसें जीव है सो ज्ञानस्वभाव है तातैं अर्थान्तरभूत कहिये आपतैं प्रदेशरूप जुदा ज्ञानकरि ज्ञानी नाहीं है. भावार्थ - नैयायिक श्रादि हैं ते जीवकै र ज्ञानकै प्रदेशभेद मानिकरि कहै हैं जो श्रामातैं ज्ञान भिन्न है सो समवायतें तथा संसर्गतें एक भया है ता ज्ञानी कहिये है. जैसें धनतैं धनी कहिये तैसें सो यह मानना असत्य है. ग्रात्माकै अर ज्ञानकै अनि अर उजैसे भेदभाव है वैसे तादात्म्यभाव है ।। १७८ ॥ आगे भिन्नमाननेमें दूषण दिखावै हैं, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) जदि जीवादो भिण्णं सवपयारेण हवदितं णाणं । गुणगुणिभावो य तदा दूरेण प्पणस्सदे दुहूं ॥१७९॥ . भाषार्थ- जो जीवः ज्ञान सर्वथा भिन्न ही मानिये तौ तिन दोऊनिकै गुणगुणिभाव दूरतें ही नष्ट होय. भावार्थ-यह जीव द्रव्य है यह याका ज्ञान गुण है. ऐसा भाव न ठहरै। ___आगें कोई पूछै जो गुण अर गुणीका भेद विनादोय नाम कैसे कहिये नाका समाधान कर हैं- .. जीवस्स विणाणस्स वि गुणगुणिभावेण कीरए भेओ। जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कहं होदि ॥ १८०॥ ___ भाषार्थ-जीवकै अर बानकै गुणगुणीमावकरि भेद कथंचित कीजिये है. बहुरि जो जाणे सो ही आत्माका ज्ञान है ऐसे भेद कैसे होय. भावार्थ-सर्वथा भेद होय तौ. जाणे सो ज्ञान है ऐसा अभेद कैसैं कहिये तातें कथंचित गुणगुणीभाव करि भेद कहिये है, प्रदेशभेद नाहीं । ऐसे केई अन्यमती गुणगुणीमें सर्वथा भेद मानि जीवकै अर ज्ञानकै सर्वथा अर्थान्तरभेद मानें हैं तिनिका मत निषेध्या ॥ भागें चार्वाकमती ज्ञान• पृथ्वी आदिका विकार मानै है ताकू निषेधै हैं- . गाणं भूयवियारं जो मण्णदि सो वि भूदगहिदव्वो। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८) जीवेण विणा णाणं किं केणवि दीसए कत्थ॥१८१॥ भाषार्थ-जा चार्वाकमती ज्ञानकू पृथ्वी श्रादि जे पंच भूत तिनिका विकार मानै है सो चार्वाक, भूत कहिये पिशाच ताकरि गृह्या है गहिला है. जातै विना ज्ञानके जीव कहां कोईकरि कहूं देखिये है ? कहूं भी नाहीं देखिये है। आगे याकू दृषण बतावे हैं ॥ १८१ ॥ सच्चेयणपच्चरखं जो जीवं णेय मण्णदे मूढो । सो जीवं णमुणतो जीवाभावं कहं कुणदि॥१८२॥ ___ भाषार्थ-यह जीव सत्रूप अर चैतन्यरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाणकरि प्रसिद्ध है. ताहि चार्वाक नाहीं मान है. सो मुख है. 'जो जीवकू नाही जाणे है नाहीं माने है तौ जीवका प्रभाव कैसे करें है. भावार्थ-जो जीवकू जानै ही नाही सो अभाव भी न कहि सकै. अभावका कहनेवाला भी तो जीव ही है. जातें सद्भावविना अभाव कह्या न जाय १८२ आगें याहीकू युक्तिकरि जीवका सद्भाव दिखावै हैंजदि ण य हवेदिजीओ तो को वेदेदि सुक्खदुक्खाणि इंदियविसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण॥१८॥ ___ भाषार्थ-जो जीव नाहीं होय तो अपने सुखदुःखकू कौन जानै तथा इन्द्रियनिके स्पर्श आदि विषय हैं तिनि सनिकं विशेषकार कौन जानै. भावार्थ-चार्वाक प्रत्यक्ष प्र Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) माण मान है. सो अपने सुखदुःखईं तथा इंद्रियनिके विषयनिकू जानै सो प्रत्यक्ष, सो जीव विना प्रत्यक्षप्रमाण कौनकै होय ? तातै जीवका सद्भाव अवश्य सिद्ध होय है ।।१८३॥ - भागें आत्माका सद्भाव जैसे वणे तैसें कहै हैंसंकप्पमओ जीवो सुहदुक्खमयं हवेइ संकप्पो। तं चिय वेयदि जीवो देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥ भाषार्थ-जीव है सो संकल्पमयी है. बहुरि संकल्प है सो दुःखसुखमय है. तिस सुखदुःखमयी संकल्पकू जाणे सो जीव है जो देहविष सर्वत्र मिलि रहा है तोऊ जाननेवाला जीव है ॥ १८४ ॥ भागे जीव देहसू मिल्या हूवा सर्व कार्यनिकू करै है यह देहमिलिदो वि जीवो सव्वकम्माणि कुव्वदे जमा। तमा पयट्टमाणो एयत्वं बुझदे दोहं॥१८५॥ ___ भाषार्थ-जाते जीव है सो देह मिल्या हूवा' ही सर्व कर्म नोकर्मरूप सर्व कार्यनिकू करें ई तातै तिनि कार्यनिवि प्रवर्तता संता जो लोक ताकू देहकै अर जीवकै एकपना भास है. भावार्थ-लोककू देह अरजीव न्यारे तो दीखें नाहीं दोऊ मिलेहुये दीखे हैं संयोगते ही कार्यनिकी प्रवृत्ति दीखै है ताते दोऊनिको एक ही मान है ॥ १८५॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आगे जीवकू देहतै भिन्न जानने• लक्षण दिखावे हैंदेहमिलिदो वि पिच्छदि देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सदं । देहमिलिदो वि भुंजदि देहमिलिदो वि गच्छेई ॥ . भाषार्थ-जीव है सो देहसू मिल्या ही नेत्रनिकरि पदार्थनिकू देखें है. बहुरि देहसू मिल्या ही काननिकरि श. ब्दनिकों सुण है. बहुरि देहसू मिल्या ही मुखते खाय है, जीभौं स्वाद ले है बहुरि देहत मिल्या ही पगनिकरी ग. मन करै है. भावार्थ-देहमें जीव न होय तो जडरूप केवल देहहीकै देखना स्वाद लेना सुनना गमन करना ए क्रिया न होय. तातें जानिये है देहमें न्यारा जीव है. सोही ये क्रिया कर है ॥ १८६ ॥ . आगे ऐसे जीवकू मिले ही मानता लोक भेद है जान है, राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी हं चेव दुव्वलो बलिओ । इदि एयत्चाविठ्ठो दोह्न भेयं ण वुझेदि ॥ १८७ ॥ ____ भाषार्थ-देहकै अर जीवकै एकपणाकी मानिकरि Hहित जो लोक है सो ऎसैं मान है जो मैं राजा हूं मैं चाकर हूं मैं श्रेष्ठी हूं मैं दुर्बल हूं मैं दरिद्र हूं निवल हू बलवान हूं ऐसैं मानता संता देह जीव दोऊनिकै भेद नाहीं जान है१८७ भागें जीवकै कर्त्तापणा प्रादिकं च्यारि गाथानिकरि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) जीवो हवेइ कत्ता सव्वं कम्माणि कुव्वदे जमा ।। कालाइलद्धिजुत्तो संसारं कुणदि मोक्खं च ॥१८॥ भाषार्थ-जारौं यह जीव सर्व जे कर्म नोकर्म तिनिकू करता संता आपका कर्तव्य मान है तातें कर्ता भी है सो अापकै संसारकू करै है. बहुरि काल आदि लब्धिकरि युक्त हूवा संता आपकै मोक्षकू भी आप ही करै है. भावार्थ-कोई जानैगा कि या जीवकै सुखदुःख आदि कार्यनिकू ईश्वर आदि अन्य करै है सो ऐसें नाहीं है आप ही कता है. सब कायेनिकू आप ही करै है. संसार भी आपही करै है. काल लब्धि आवै तब मोक्ष भी आप ही करै है सर्वकार्यनिप्रति द्रव्य क्षेत्रकाल भावरूप सामग्री निमित्त है ही ॥ १८८ ॥ जीवो वि हवइ भुत्ता कम्मफलं सो वि भुंजदे जमा कम्मविवायं विविहं सो चिय भुंजेदि संसारे १८९॥ भाषार्थ-जातें जीव है सो कर्मका फल या संसारमें भोगवै है तातै भोक्ता भी यह ही है. बहुरि सो कर्मका वि. पाक संसारविष सुखदुःखरूप अनेक प्रकार है तिनकू भी भोगै है ॥ १८९॥ जीवो वि हवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिचं। जीवो हवेइ पुण्णं उवसमभावेण संजुत्तो ॥१९॥ . भाषार्थ-यह जीव अति तीव्र कषायकरि संयुक्त होय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२) तब यह ही जीव पापरूप होय है. बहुरि उपशम भाव जो मन्द कषाय ताकरि संयुक्त होय तब यह ही जीव पुण्यरूप होय है, भावार्थ-क्रोध मान माया लोभका अतितीव्रपणात तौ पाप परिणाम होय है. अर इनिका मंदपणात पुण्यपरिणाम होय है तिनि परिणामनिसहित पुग्यजीव पापजीव कहिये है एक ही जीव दोऊ परिणामयुक्त हुवा के पुण्यजीव पाफ्जीद कहिये है. सो सिद्धान्तकी अपेक्षा ऐसे ही हैं. जाते सम्यक्त्व सहित जीव होय ताकै तो तीव्र पायनिकी जड़ कटनेते पुण्य जीव कहिये. बहुरि मिथ्यादृष्टि जीवकै भेदज्ञानविना कषायनिकी जड़ कटै नाहीं तातें बाह्यते कदाचित् उपशम परिणाम भी दीखै तौ आफू पापजीव ही कहिये ऐसा जानना ।। रयणत्यसंजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो रयणत्तयदिठवणावाए ॥ १९१॥ भाषार्थ-जातें यह जीव रत्नत्रयरूप सुंदर नावकरि सं० सारनै तिरै है पार होय है. तात यह ही जीव रत्नत्रयकरि संयुक्त भया संता उत्तन तीर्थ है, भावार्थ-तीर्थ नाम जो तिरै तथा जाकरि तिरिये सो है. सो यह जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तेई भये रत्नत्रय, सोई भई नाव, ताकरि तरै है तथा अन्यकुँ तिरनको निमित्त होय है तातें यह जीव ही तीर्थ है ।। ___ आगै अन्यप्रकार जीवका भेद कहै हैं-- जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥ भाषार्थ - जीव बहिरात्मा अन्तरात्मा परमात्मा ऐसें तीन प्रकार हैं बहुरि परमात्मा भी अरहन्त तथा सिद्ध ऐसें दोय प्रकार हैं ।। १९२ ॥ अब इनका स्वरूप हैं हैं तहां बहिरात्मा कैसा है सो कहै हैं मिच्छत्त परिणदापा तिव्वकसाएण सुठु आविट्ठो । जीवं देहं एक मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३॥ भाषार्थ - जो जीव मिथ्यात्व कर्मका उदयरूप परिणाम्या होय बहुरि तीव्र कषाय अनन्तानुबन्धीकरि सुष्ठु कहिये अतिशयकरि युक्त होय इस निमित जीवकूं अर देहकूं एक मानता होय सो जीव बहिरात्मा कहिये. भावार्थ - बाह्य पर द्रव्यको श्रात्मा मानै सो बहिरात्मा है. सो यह मानना मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषायके उदयकरि होय है तातें भेदज्ञानकरि रहित हूवा संता देहकं आदिदेकरि समस्त परद्रव्यविषै अहंकार ममकारकरि युक्त हूवा सन्ता बहिरात्मा कहा है ॥ १९३ || या अंतरात्माका स्वरूप तीन गाथानिकरि कहै हैंजे जिणवणे कुसलो भेद जाणंति जीवदेहाणं । णिज्जियदुट्टट्ठमया अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) भाषार्थ-जे जीव जिनवचनविष प्रवीण हैं बहुरि जीवकै अर देहकै भेद जाणे हैं. बहुरि जीते हैं पाठ पद जिनने ते अंतरात्मा हैं. ते उत्कृष्ट मध्यम जघन्य भेदकरि तीन प्रकार हैं। भावार्थ-जो जीव जिनवानीका भले प्रकार अभ्यासकरि जीव अर देहका स्वरूप भिन्न भिन्न जाने ते अंतरात्मा हैं. तिनिकै जाति लाभ कुल रूप तप बल विद्या ऐश्वर्य ये पाठ मदके कारण हैं तिनिविष अहंकार ममकार नाहीं उ. पजै है जाते ये परद्रव्यके सयोगजनित हैं तातै इनिविषै गर्व नाहीं करै हैं ते तीन प्रकार हैं ॥ १९४ ॥ __ अब इनि तीन प्रकारविधै उत्कृष्टकू कहै हैंपंचमहव्वयजुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिया णिचं । णिजियसयलपमाया उक्किट्ठा अंतरा होंति ॥१९५॥ भाषार्थ-जे जीव पांच महाव्रतकरि संयुक्त होय बहुरि धर्म्यध्यान शुक्लध्यानविषै नित्य ही तिष्ठे होंय बहुरि जीते हैं सेकल निद्रा आदि प्रमाद जिनिने ते उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं। अब मध्यम अन्तरात्माकू कहै हैंसावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होति। जिणवयणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ॥ ___ भाषार्थ-जे जीव श्रावकके व्रतनिकरि संयुक्त होंय बहुरि प्रमत्त गुणस्थानवी जे मुनि होंय ते मध्यम अन्तरा. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) स्मा हैं. कैसे हैं ते, जिनवरवचनविषे अनुरक्त हैं लीन हैं. प्राज्ञा सिवायाप्रवन न करें. बहुरि उपशमभाव कहिये मन्द कषाय विसरूप है. स्वभाव निनिका, बहुरि महापराक्रमी हैं परीषहादिकके सहनेमें दृढ हैं उपसर्ग आये प्रतिज्ञातै टलैं नाहीं ऐसे हैं ॥ १९६ ।। अब जघन्य अंतरात्माकू कहै हैंअविरयसम्मट्ठिी होति जहण्णा जिणंदपयभचा। अप्पाणं जिंदंता गुणगहणे सुठुअणुरत्ता ॥१९॥ ___ भाषार्थ-जे जीव अविरत सम्यग्दृष्टो हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन तौ जिनके पाइये है अर चारित्रमोहके उदयकरि व्रतधारि सकें नाहीं ऐसे जघन्य अंतरात्मा हैं. ते कैसे हैं ? जिनेन्द्र के चरननिके भक्त हैं, जिनेन्द्र, तिनकी वाणी, तथा तिनिके अनुसार निर्ग्रन्थ गुरु तिनिकी भक्तिविष तत्पर हैं. बहुरि अपने आत्माकू निरन्तर निंदते रहै हैं जाते चारित्रमोहके उदयतें व्रत धारे जांय नाही, अर तिनकी भावना निरन्तर रहै तातें अपने विभाव परिणामनिकी निन्दा क. रते ही रहै हैं. बहुरि गुणनिके ग्रहणविषै भले प्रकार अनुरागी हैं जाते जिनिमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखें तिनित अत्यन्त अनुरागरूप प्रवन हैं गुणनितें अपना अर परका हित जान्या है, तातें गुणनित अनुराग ही होय है. ऐसे तीन प्रकार अन्तरात्मा कह्या सोगुणस्थाननिकी अपेक्षातें जानना । भावार्थ-चौथा गुणस्थानवर्ती तौ जघन्य अंतरात्मा, पांचवां Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) छठा गुणस्थानवर्ती मध्यम अंतरात्मा अर सातवां गुणस्थानतैं लगाय बारहमां गुणस्थानताई उत्कृष्ट अंतरात्मा जानना ॥ १९७ ॥ - अब परमात्माका स्वरूप हैं हैं, ससरीरा अरहंता केवलणाणेण मुणियसयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा सव्वुत्तम सुक्ख संपता ॥ १९८ ॥ भाषार्थ-जे शरीरसहित ते अहं हैं। कैसे हैं ? केवलज्ञान जाने हैं सकलपदार्थ जिनू ते परमात्मा हैं. वहुरि शरीरकरि रहित हैं ज्ञान ही है शरीर जिनकें, ते सिद्ध हैं. कैसे हैं ? सर्व उत्तम सुख प्राप्त भये हैं ते शरीररहित परमात्मा हैं. भावार्थ - तेरहमां चौदहमां गुणस्थानवर्ची अरहंत श रीरसहित परमात्मा हैं. अर सिद्ध परमेष्ठी शरीर र हित परमात्मा हैं । अब परा शब्दका अर्थ है हैंणिस्स कम्मणा से अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए वि य सा वि य पत्ती परा होदि ॥ १९९॥ भाषार्थ - जो समस्त कर्म्मका नाश होते संतैं अपने स्वभावकरि उपजै सो परा कहिये. बहुरि कर्मतें उपजे जे औदयिक आदि भाव तिनका नाश होतें उपजै सो भी परा क हिये. भावार्थ- परमात्मा शब्दका अर्थ ऐसा है जो परा कहिये उत्कृष्ट मा कहिये लक्ष्मी जाकैं होय ऐसा आत्माकूं प Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) रमात्मा कहिये है. सो समस्त कर्मनिका नाशकरि स्वभावरूप लक्ष्मीकू प्राप्त भये ऐसे सिद्ध, ते परमात्मा हैं. बहुरि घातिकर्मनिका नाशकरि अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीकं प्राप्त भये ऐसे अरहंत ते भी परमात्मा हैं. बहुरि ते ही औदयिक आदि भावनिका नाश कर भी परमात्मा भये कहिये। भागें कोई जीवनिकू सर्वथा शुद्ध ही कहै हैं तिनके मतकू निषेधै हैं,जइ पुण सुद्धसहावा सव्वे जीवा अणाइकाले वि । तोतवचरणविहाणं सव्वेसि णिप्फलं होदि ॥ २० ॥ भाषार्थ-जो सर्व जीव अनादि कालविङ्ग भी शुद्ध स्त्रभाव हैं तो सर्वहीके तपश्चरण विधान है सो निष्फल होय है। ता किह गिलदि देहं णाणाकम्माणि ता कहं कुडइ। सुहिदा वि यदुहिदा वियणाणारूवा कहं होंति २०१ ___ भाषार्थ-जो जीव सर्वथा शुद्ध है तो देहकू कैसे ग्रहण कर है ? बहुरि नाना प्रकारके कर्मनिकू कैसे करै है ? बहुरि कोई सुखी है कोई दुःखी है ऐसे नानारूप कस होय है ? तातें सर्वथा शुद्ध नाहीं है भागें अशुद्धता शुद्धताका कारण कहै हैं,सव्वे कम्माणबद्धा संसरमाणा अणाइकालाम । पच्छा तोडिय बंध सुद्धा सिद्धाधुवा होंति ॥२०॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) भाषार्थ - जीव हैं ते सर्व ही अनादिकालतें कर्मकरि बंधे हुये हैं तात संसारविषै भ्रमण करे हैं. पीछे कर्मनिके बंधन तोडि सिद्ध होय हैं, तब शुद्ध हैं और निश्चल होय हैं । आगें जिस बंधकरि जीव बंधे हैं तिस बंधका स्वरूप कहै हैं, ww जो अण्णोष्णपवसो जीवपएसाण कम्मखंधाणं । सव्वबंधाण विलओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥ २०३॥ भाषार्थ - जो जीवनि के प्रदेशनिका अर कम्र्मनिके बंधनिका परस्पर प्रवेश होना एक क्षेत्ररूप सम्बन्ध होना सो जीव प्रदेशबन्ध है, सो यह ही प्रकृति स्थिति अनुभारारूप जे सर्व बंध तिनिका भी लय कहिये एकरूप होना है। आगे सर्व द्रव्यनिविषै जीव द्रव्य ही उत्तम परप तच्च है ऐसा कहै हैं, - उत्तमगुणाण धामं सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परमतच्चं जीवं जाणेहि णिच्छयदो || २०४ || भाषार्थ - जीव द्रव्य है सो उत्तम गुणनिका धाम है ज्ञान आदि उत्तम गुण याहीमें हैं. बहुरि सर्व द्रव्यनिमें यह ही द्रव्य प्रधान है. सर्व द्रव्यनिक जीव ही प्रकास है, बहुरि सर्व तच्चनिमें परम तत्त्व जीव ही है, अनन्तज्ञान सुख आदिका भोक्ता यह ही है ऐसे हे भव्य ! तू निश्वयतें जाणि । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागें जीवहीकै उत्तम तत्त्वपणा कैसे है सो कहै हैं,अंतरतच्चं जीवो बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि । णाणविहीणं दव्वं हियाहियं णेय जाणादि ॥२०५॥ __ भाषार्थ-जीव है सो तो अन्तरतत्व है. बहुरि बाकीके सर्व द्रव्य हैं ते बाह्यतत्त्व हैं. ते ज्ञानकरि रहित हैं सो जो ज्ञानकरि रहित है सो द्रव्य हेय उपादेय वस्तुकू कैसे जाने ? भावार्थ-जीवतत्त्वविना सर्व शून्य है ताः सर्वका जाननेवाला तथा हेय उपादेयका जाननेगला जीव ही परम , तत्त्व है ॥ २०५॥ आगे जीव द्रव्यका स्वरूप कहकर अब पुद्गल द्रव्यका स्वरूप कहै हैं,सव्वो लोयायासो पुग्गलदठवेहिं सव्वदो भरिदो। सुहमेहिं वायरेहिं य णाणाविहसचिजुत्तेहिं ॥२०६॥ भाषाथ-सर्व लोकाकाश है सो सूक्ष्म वादर जे पुद्रल द्रव्य तिनकरि सर्व प्रदेशनिविष भरथा है. कैसे हैं पुद्गल द्रव्य ? नाना शक्तिकरि सहित हैं. भावार्थ-शरीर आदि अनेकप्रका. र परिणमन शक्तिकरि युक्त जे सुक्ष्म वादर पुदल तिनिकरि सर्वलोकाकाश भरया है ।। २०६ ॥ जे इंदिएहिं गिझं रूवरसगंधफासपरिणाम। तं चिय पुग्गलदत्वं अणंतगुणं जीवरासीदो ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (११०) भाषार्थ-जो रूप रस गन्ध स्पर्श परिणाम स्वरूपकरि इन्द्रियनिके ग्रहण करने योग्य हैं ते सर्व पुद्गल द्रव्य हैं. ते संख्याकरि जीवराशि अनन्तगुणे द्रव्य हैं ॥ २०७॥ ___ अब पुगल द्रव्यकै जीवका उपकारीपणाकू कहै हैं,जीवस्स बहुपयारं उवयारं कुणदि पुग्गलं दुव्वं । देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सासणिस्सासं ।२०८॥ ___ भाषार्थ-पुद्गल द्रव्य है सो जीवके बहुत प्रकार उपकार करै है. देह कर है, इन्द्रिय करै है, बहुरि बचन करै है, उस्वास निस्वास करै है. भावार्थ-संसारी जीवके देहादिक पुद्गल द्रव्यकरि रचित हैं. इनकरि जीवका जीवतव्य है यह उपकार है ॥ २० ॥ अण्णं पि एवमाई उवयारं कुणदि जाव संसारं । मोह अणाणमयं पि य परिणामं कुणइ जीवस्स ॥ भाषार्थ-पुद्गल द्रव्य है सो जीवके पूर्वोक्तकू आदिकरि अन्य भी उपकार करै है. जेते या जीवकै संसार है तैते घणे ही परिणाम करै है. मोहपरिणाम, पर द्रव्यनित ममत्त्व परिणाम, तथा अज्ञानमयी परिणाम, ऐसे सुख दुःख जीवित मरण आदि अनेक प्रकार करै है. यहां उपकार शब्दका अर्थ किछू परिणाम विशेष करै सो सर्व ही लेणा ।। २०९ ॥ आगे जीव भी जीरकू उपकार करे है, ऐसा कहै हैं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणइ सवपच्चखं ।। तत्थ वि पहाणहेओ पुण्णं पावं च णियमेण ॥२१॥ भाषार्थ-जीव हैं ते भी जीवनिके परस्पर उपकार करें हैं सो यह सर्वके प्रत्यक्ष ही है. सिरदार चाकरके, चाकर सिरदारके, आचार्य शिष्यके, शिष्य आचार्यके, पितामाता पुत्रके, पुत्र पिताशतायो, भित्र नित्र, स्त्री भरतारके इत्यादि प्रत्यक्ष देखिये है. सो तहां परस्पर उपकारकेविर्षे पुण्यपापकर्म नियमकरि प्रधान कारण है ।। २१० ॥ ____ आगे पुद्गलकै बडी शक्ति है ऐसा कहै हैं,का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती। केवलणाणसहाओ विणासिदोजाइ जीवस्स ॥२१॥ भाषार्थ-पुद्गल द्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति देखिये है जो जीवका केवल स्वभाव है सो भी जिस शक्तिकरि विनश्ग जाय है । सामार्थ- अनन्त शक्ति जीवकी है तामें केवलज्ञानशक्ति ऐसी है कि जाकी व्यक्ति (प्रकाश) . होय तब सर्व पदार्थनिकू एकै साल जानै । ऐसी व्यक्तित पुद्गल नष्ट करै है, न होने दे है, सो यह अपूर्व शक्ति है । ऐसे पुद्गलद्रव्यका निरूपण किया। ___ अब धर्मद्रव्य अर अधर्मद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,धम्ममधम्म दुव्वं गमणट्ठाणाण कारणं कमसो। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) जीवाण पुग्गलाणं विण्ण वि लोगप्पमाणाणि २१२ " भाषार्थ-जीव अर पुद्गल इनि दोऊ द्रव्यनिषू गमन अवस्थानका सहकारी अनुक्रमते कारण हैं, ते धर्म पर अ. धर्म द्रव्य हैं । ते दोऊ ही लोकाकाश परिमाणप्रदेशकू धरै हैं। भावार्थ-जीव पुद्गलकू गमनसहकारी कारण तौ धर्मद्र. व्य है अर स्थितिसहकारी कारण अधर्मद्रव्य है। ए दोऊ लोकाकाशप्रमाण हैं। _आगे आकाशद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,-- सयलाणं दव्वाणं जं दातुं सक्कदे हि अवगासं। तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेयेण ॥ २१३ ॥ भाषार्थ-जो समस्त द्रव्यनिकौं अवकाश देनेईं समर्थ है सो आकाश द्रव्य है । सो लोक अलोकके भेदकरि दोय प्रकार है। भावार्थ-जामें सर्व द्रव्य वसैं ऐसे अवगाहनगुग• धरै है सो यह आकाश द्रव्य है । सो जामें पांच द्रव्य बसे हैं सो तौ लोकाकाश है पर जामें अन्य द्रव्य नाही सो अलोकाकाश है, ऐसे दोय भेद हैं। . . भागें आकाशविर सर्व द्रनिकू अवगाहन देनेकी शक्ति है तैसी अवकाश देनेकी शक्ति सर्व ही द्रव्यनिमें है ऐसें कहै हैं,सवाणं व्वाणं अवगाहणसत्ति अत्थि परमत्थं । जह भसमपाणियाणं जीवपएसाण जाण बहुआणं ।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) भाषार्थ-सर्व ही द्रव्यनिकै परस्पर अवगाहना देनेकी शक्ति है। यह निश्चयतें जाणहु । जैसैं भस्मक अर जलकै अवगाहन शक्ति है तैसें जीवके असंख्यात प्रदेशनिकै जाने । भावार्थ-जैसे जलकुं पात्रविषै भरि तामें भस्म डारिये सो समावै । बहुरि तामें मिश्री डारिये सो भी समावै । बहुरि तामें सुई चोपिये सो भी समावै तैसे अवगाहनशक्ति जाननी. इहां कोई पूछै कि सर्व ही द्रव्यनिमें अवगाहन शक्ति है तो आकाशका असाधारण गुण कैसे है ? ताका समाधान-जो परस्पर तो अवगाह सर्व ही देहैं तथापि आकाशद्रव्य सर्वते बडा है। तात या सर्व ही समावै यह असाधारणता है । जदि ण हवदि सा सत्ती सहावभूदा हि सव्वदलवाणं एकेकास पएसे कह ता सव्वाणि वट्ठति ॥२१५॥ ___ भाषार्थ-जो सर्व द्रव्यनिकै स्वभावभूत अवगाहनशक्ति न होय तो एक एक आकाशके प्रदेशविष सर्व द्रव्य कैसे व● । भावार्थ-एक आकाश प्रदेशविर्षे अनन्त पुद्गलके प. रमाणु द्रव्य तिष्ठै हैं । एक जीवका प्रदेश एक धर्मद्रव्यका प्रदेश एक अधर्मद्रव्यका प्रदेश एक कालाणुद्रव्य ऐसें सर्व तिष्ठै हैं सो वह आकाशका प्रदेश एक पुद्गलके परमाणुकी बरावर है सो अवगाहनशक्ति न होय तो कैसे तिष्ठै ? ___ आगें कालद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,- . सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो। एकेकासपएसे सो वट्टदि एक्विको चेव ॥ २१६ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) भाषार्थ - जो सर्व द्रव्यनिकै परिणाम करै है सो काल द्रव्य है । सो एक एक प्रकाशके प्रदेशविषै एक एक कालाणुद्रव्य व है । भावार्थ - सर्व द्रव्यनिके समय समय पर्याय उपजै हैं अरविनसे हैं सो ऐसे परिणमनकूं निमित्त कालद्रव्य है । सो लोकाकाशके एक एक प्रदेशविषै एक २ काला तिष्ठै है । सो यह निश्चय काल है | २१६ ॥ आगे कहै हैं कि परिणमनेकी शक्ति स्वभावभूत सर्व द्रव्यनिमें है, अन्य द्रव्य निमित्तमात्र हैंणियणियपरिणामाणं णियणियदव्वं पि कारणं होदि । अण्णं बाहिरदव्वं णिमित्तमत्तं वियाह ॥ २१७ || 1 भाषार्थ - सर्व द्रव्य अपने अपने परिणमनिके उपादान कारण हैं । अन्य वाह्य द्रव्य हैं सो अन्यके निमितमात्र जाणूं । भावार्थ- जैसे घट यादिकूं माटी उपादान कारण है अर चाक दंडादि निमित्त कारण हैं । तैसें सर्व द्रव्य अपने पर्यायनिकं उपादान कारण हैं । कालद्रव्य निमित्त कार है ॥ कहै हैं कि सर्वही द्रव्यनिकै परस्पर उपकार है सो सहकारीकारणभावकरि हैसंव्वाणं दव्वाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारणभावो हवादे हु सहयारिभावेण || भाषार्थ - सर्व ही द्रव्यनिकै जो परस्पर उपकार है सो सहकारीभावकार कारणभाव हो है यह प्रगट है ।। २९८ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) आगे द्रव्यनिके स्वभावभूत नाना शक्ति हैं ताकौं कौन निषेधि सके है ऐसें कहै हैं,कालाइलद्धिजुत्ता णाणासचीहिं संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेहूँ ॥ । भाषार्थ-सर्व ही पदार्थ काल आदि लब्धिकरि सहित भये नाना शक्तिसंयुक्त हैं तैसे ही स्वयं परिणमै हैं तिनकू परिणामतै कोई निवारनेरू समर्थ नाहीं। भावार्थ-सर्व द्रव्य अपने अपने परिणामरूप द्रव्य क्षेत्र काल सामग्रीकू पाय आप ही भावरूप परिणमै हैं । तिनकू कोई निवारि न सकै है ॥ २१९ ॥ ___ आगे व्यवहारकालका निरूपण करै हैं,- । जीवाण पुग्गलाणं ते सुहमा वादरा य पजाया। तीदाणागदभूदा सो ववहारो हवे कालो॥२२०॥ . भाषार्थ-जीव द्रव्य अर पुद्गल द्रव्यके सूक्ष्म तथा वादर पर्याय हैं ते अतीत भये अनागत-आगामी होंयगे, भूत कहिये वर्तमान हैं सो ऐसा व्यवहार काल होय है. भावार्थजो जीव पुद्गलके स्थूल सूक्ष्म पर्याय हैं ते अतीतभये तिनिकू अतीत नाम कह्या. बहुरि जो आगामी होंयगे तिनिक अनागत नाम कह्या. बहुरि जो वर्ते हैं तिनिकू वर्तमान नाम कया. इनिङ जेतीवार लगै है तिसहीकू व्यवहार काल नाम करि कहिये हैं. सो जघन्य तौ पर्यायकी स्थिति एक समय Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) मात्र हैं बहुरि मध्य उत्कृष्ट अनेक प्रकार है. तहां श्राकाशके एक प्रदेशतें दूजे प्रदेशपर्यंत पुद्गलका परमाणु मन्दगतिकरि जाय तेता कालकू समय कहिये. ऐसे जघन्ययुक्ताऽसंख्यात समयको एक प्रावली कहिये, संख्यात आवलीके समूहको एक उस्वास कहिये, सात उच्छ्वासका एक स्तोक कहिये, सात स्तोकका एक लव कहिये, साढा अडतीस लवकी एक घटी कहिये, दोय घटीका मुहूते कहिये। तीस मूहूर्तका रात दिन कहिए, पनरै अहोरात्रिका पक्ष कहिये, दोय पक्षका मास कहिये, दोय मासका ऋतु कहिये, तीन ऋतुका प्रयन कहिये, दोय अयनका वर्ष कहिये, इत्यादि पल्यसागर कल्प प्रादि व्यवहार काल अनेक प्रकार है ॥ २२० ॥ । भागे अतीत अनागत वर्तमान पर्यायनिकी संख्याः कहैं हैं,तेसु अतीदा णता अणंतगुणिदा य भाविपज्जाया। एक्को विवट्टमाणो एत्तियमित्तो वि सो कालो॥२१॥ ___ भाषार्थ-तिनि द्रव्यनिके पर्यायनिविषै अतीतपर्याय अनन्त हैं. बहुरि अनागत पर्याय तिनित अनन्तगुणा हैं वर्तमान पर्याय एक ही है. सो जेता पर्याय है, तेता ही सो व्यवहार काल है. ऐसे द्रव्यनिका निरूपण कीया___ अब ट्रन्यनिकै कार्यकारणभावका निरूपण कर हैं,पुव्वपरिणामजुचं कारणभावेण वट्टदे दव्वं । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) उत्तरपारणामजुदंत चिय कज्जं हवेणियमा ॥२२२॥ ___ भाषार्थ-पूर्व परिणाम सहित द्रव्य है सो कारणरूप है बहुरि उत्तर परिणामयुक्त द्रव्य है सो कार्यरूप नियमकरि है ॥ २२२ ॥ ___ आगें वस्तुकै तीन कालविषे ही कार्यकारणभावका निश्चय करै हैं,कारणकज्जविसेसा तिस्सु वि कालेसु होंति वत्थूणं। एक्केक्कम्मि य समये पुवुत्तरभावमासिज्ज ॥२२३॥ ___ भाषार्थ-वस्तुनिकै पूर्व अर उत्तर परिणामकौं पायकरि तीनूं ही कालविष एक एक समयविषै कारण कार्यके विशेष होय हैं. भावार्थ-वर्तमान समयमें जो पर्याय है सो पूर्वसमय सहित वस्तुका कार्य है. तैसे ही सर्व पर्याय जाननी. ऐसे समय २ कार्यकारणभावरूप है ॥ २२३ ॥ - आगें वस्तु है सो अनंतधर्मस्वरूप है ऐसा निर्णय करै हैं-- संति अणंताणंता तीसु वि कालेसु सव्वदव्वाणि । सव्वं पि अणेयंतं तत्तो भणिदं जिणिंदेहिं ॥२२॥ भाषार्थ-सर्व द्रव्य हैं ते तीनूं ही कालमें अनंतानंत हैं अनन्त पर्यायनिसहित हैं ताते जिनेन्द्र देवने सर्व ही वस्तु अनेकांत कहिये अनंतधर्मस्वरूप कह्या है ॥ २२४ ॥ . ___ आज कहै हैं जो अनेकांतात्मक वस्तु है सो अर्थ क्रियाकारी है, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) जं वत्थु अयंतं तं चिय कज्जं करेइ नियमेण । बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकर दीसए लोए ॥ २२५ ॥ भावार्थ- जो वस्तु अनेकांत है अनेक धर्मस्वरूप है सो ही नियमकरि कार्य करें है. लोकवि बहुतधर्मकरियुक्त पदार्थ है सो ही कार्य करनेवाला देखिये है. भावार्थ - लोकविषै नित्य नित्य एक अनेक भेद इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तु हैं सो कार्यकारी दीखै हैं जैसे माटीके घट आदि कार्य हैं सो सर्वथा मांटी एक रूप तथा नित्य रूप तथा अनेक अनित्य रूप ही होय तौ घट आदि कार्य व नाहीं, तैसें ही सर्व वस्तु जानना !! २२५ ॥ सर्वथा एकान्त वस्तुकै कार्यकारीपणा नाहीं है ऐसें कहैं हैं, - 1 एतं पुणु दव्वं कज्जं ण करेदि लेसमित्तं पि । जं पुणु ण करेदिकज्जं तं वुच्चदि के रिसं दव्वं ॥ २२६॥ भाषार्थ - बहुरि एकांत स्वरूप द्रव्य है सो लेशमात्र भी कार्यकूं नाहीं करे है, बहुरि जो कार्य ही न करै सो कैसा द्रव्य हैं. वह तो - शून्यरूपसा है. भावार्थ- जो अर्थक्रियास्वरूप होय सो ही परमार्थरूप वस्तु कला है अर जो अर्थक्रियारूप नाहीं सो आकाश के फूलकी क्यों शून्यरूप है ॥ २२६ ॥ या सर्वथा नित्य एकांतविषै अर्थक्रियाकारीपणाका अभाव दिखावे हैं, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) परिणामेण विहीणं णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेयं । णो उप्पज्जदि य सया एवं कज्जं कहं कुणइ ॥२२॥ __ भाषार्थ-परिणामकरिहीण जो नित्य द्रव्य, सो विनसे नहीं, तब कार्य कैसे करै १ अर जो उपजै विनशै तो नित्य. पणा नाहीं ठहरै. ऐसे कार्य न करै सो वस्तु नाहीं है २२७ । आगें पुनः क्षणस्थायीकै कार्यका अभाव दिखावे हैंपज्जयमित्तं तच्चं विणस्सरं खणे खणे वि अण्णणं । अण्णइदव्वविहीणंणय कज्जं किं पिसाहेदि॥२२८॥ भाषार्थ- जो क्षणस्थायी पर्यायमात्र तत्त्व क्षणक्षणमें अन्य अन्य होय ऐसा विनश्वर मानिये तौ अन्वयीद्रव्यकरि रहित हूवा संता कार्य किछू भी नाही साधै है. क्षणस्थायी विनश्वरकै काहेका कार्य ॥ २२८॥ ___ आगें अनेकान्तवस्तुकै कार्यकारणभाव वणे है सो दि. खावै हैं,णवणवकज्जविसेसा तीसु वि कालेसुहोति वत्थूणं । एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासिज्ज॥२२९॥ भाषार्थ-जीबादिक वस्तुनिक तीनही कालविर्षे एक एक समयविष पूर्वउत्तरपरिणामका पाश्रयकरि नवे नवे का. यविशेष होय हैं नवे नवे पर्याय उपजै हैं ॥ २२९ ॥ .. आरौं पूर्वोत्चरभावकै कारणकार्यभावकू दृढ करै हैंपुव्वपरिणामजुचं कारणभावेण वट्टदे दव्वं । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) उत्तरपरिमाणजुदंत चिय कज्ज हवेणियमा ॥ २३० ।। , भाषार्थ-पूर्वपरिणामकरियुक्त द्रव्य है सो तौ कारणभावकरि वर्त है बहुरि सो ही द्रव्य उत्तरपरिणामकरि युक्त होय तब कार्य होय है. यह नियमते जाणूं. भावार्थ- जैसे मांटीका पिंड तौ कारण है अर ताका घर बगमा सो कार्य है. तैसे पहले पर्यायका स्वरूप कहि अब जीव पिछले पर्याय सहित मया तब सो ही कार्यरूप भया. ऐसँ नियम है ऐसे वस्तुका स्वरूप कहिये है ॥ २३० ॥ ___ अब जीव द्रव्यकै भी तैसे ही अनादिनिधन कार्यकारणभाव साथै हैंजीवो अणाइणिहणो परिणयमाणो हुणवणवं भावं । सामग्गीसु पवट्ठदि कज्जाणि समासदे पच्छा ॥२३१॥ भाषार्थ-जीव द्रव्य है सो अनादिनिधन है सो नवे नवे पर्यायनिरूप प्रगट परिणमै है. सो पहले द्रव्य क्षेत्र काल भावकी सामग्रीविषै वर्ने है. पीछे कार्यनिकू पर्यायनिकू प्राप्त होयहै। भावार्थ-जैसे कोई जीव पहले शुभ परिणामरूप प्रवः पीछे स्वर्ग पावै तथा पहलै अशुभ परिणामरूप प्रवत पीछे नरक आदि पर्याय पावे ऐसें जानना ॥ २३१ ॥ आगे जीवद्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावविष तिष्ठया ही नवे पर्यायरूप कार्यकू कर ऐसे कहै हैंससरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) खिचे एकम्मि ठिदो णियदव्वं संठिदो चेव ॥२३२॥ __ भाषार्थ-जीव द्रव्य है सो अपने चैतन्यस्वरूपविष तिष्ठया अपने ही क्षेत्रविष तिष्ठया अपने ही द्रव्यमें तिष्ठता अपने परिणमनरूप समयविष अपनी पर्यायस्वरूप कार्यकू साथै है. भावार्थ-परमार्थतें विचारिये तब अपने द्रव्य क्षेत्रकालभा. वस्वरूप होता संता जीव पर्यायस्वरूप कार्यरूप परिणमै है पर द्रव्यक्षेत्रकालभाव हैं तो निमित्तमात्र हैं ॥ २३२ ॥ श्रागें अन्यस्वरूप होय कार्य करे तौ तामें दुषण दि. खावे हैं-- ससरूवत्थो जीवो अण्णसरूवम्मि गच्छए जदि हि । अण्णुण्णमेलणादो इक्कसरूवं हवे सव्वं ॥२३३ ॥ ____ भाषार्थ-जो जीव अपने स्वरूपविष तिष्ठता पर स्वरू. पविष जाय तो परस्पर मिलने सर्व द्रव्य एकस्वरूप होय जाय, तहां बडा दोष आवे. सो एकस्वरूप कदाचित् होय नाहीं यह प्रगट है ॥ २३३॥ भागें सर्वथा एकस्वरूप मानने में दूषण दिखावे हैंअहवा बंभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे जदि हि। चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोई ॥२३॥ भाषार्थ-जो सर्वथा एक ही वस्तु मानि ब्रह्मका स्वरूपरूप सर्व मानिये तो ब्राह्मण अर चाण्डालका किछू भी भेद न ठहरे. भावार्थ-एक ब्रह्मस्वरूप सर्व जगत्कू मानिये Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) तौ नानारूप न ठहरे. बहुरि अविद्याकरि नाना दीखता माने तो अविद्या उत्पन्न कोन भई कहिये ! जो ब्रह्म भई कहिये तो ब्रह्मतें भिन्न भई कि अभिन्न भई, अथवा सतरूप है कि असरूप है कि एकरूप है कि अनेक रूप है. ऐसे विचार कीये कहूं ठहरना नहीं तात वस्तुका स्वरूप अनेकांत ही सिद्ध होय है सो ही सत्यार्थ है ॥ २३४ ॥ ___ श्रागें अणूमात्र तत्वषं मानने में दूषण दिखावे हैंअणुपरिमाणं तचं अंसविहणिं च मण्णदे जदि हि । तो संबंधाभावो तत्तो वि ण कजसांसद्धि॥२३५॥ ___ भाषार्थ-जो एक वस्तु सर्वगत व्यापक न मानिये अर अंशकरि रहित अणुपरिणाम तत्व मानिये तो दोय अंशके तया पूर्वोत्तर अंशके सम्बन्धका अभावते अणुमात्र वस्तु कार्यकी सिद्धि नाहीं होय है. भावार्थ-निरंश क्षणिक निरन्वयी वस्तु के अर्थक्रिया होय नाहीं, ताः सांश नित्य अ. न्वयी वस्तु कथंचित् मानना योग्य है ॥ २३५ ।। आगे द्रव्यके एकत्वपणा निश्चय करे हैंसव्वाणं दवाणं दव्वसरूवेण होदि एयत्वं । णियणियगुणभेएण हि सव्वाणि वि होति भिण्णाणि भावार्थ-सर्व ही द्रव्यनिके द्रव्यस्वरूपकरि तौ एकत्वपणा है बहुरि अपने अपने गुणके भेदकरि सर्व द्रव्य भिन्न भिन्न हैं, भावार्थ-द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूप Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) सत् है सो इस स्वरूपकरि तौ सर्वके एकपणा है. बहुरि अ. पने अपने गुण चेतनपणा जडपणा आदि भेदरूप हैं. ताते गुणके भेदत सर्व द्रव्य न्यारे २ हैं. तथा एक द्रव्यकेत्रिकालवर्ती अनन्तपर्याय हैं सो सर्व पर्यायनिविषै द्रव्य स्वरूपकरि तो एकता ही है. जैसे चेतनके पर्याय सर्व ही चेतन स्वरूप हैं. बहुरि पर्याय अपने अपने स्वरूपकरि भिन्न भी हैं. भिन्न कालवर्ची भी हैं. तातै भिन्न २ भी कहिये. तिनके प्रदेश भेद भी माहीं तातै एक ही द्रव्यके अनेक पर्याय हो हैं यामें विरोध नाहीं ॥ २३६ ॥ आगें द्रव्यकै गुणपर्यायस्वभावपणा दिखावै हैं,जो अत्यो पडिसमयं उप्पादव्वयधुवचसम्भावो । गुणपज्जयपरिणामो सचो सो भण्णदे समये ॥२३॥ __ भाषार्थ-जो अर्थ कहिये वस्तु है सो समय समय उत्पाद व्यय ध्रुवपणाके स्वभावरूप है सो गुणपर्यायपरिणामस्वरूप सत्त्व सिद्धांतविष कहै हैं. भावार्थ-जे जीव आदि ' वस्तु हैं ते उपजना विनसना अर थिर रहना इन तीन भावमयी हैं. अर जो वस्तु गुणपर्याय परिणामस्वरूप है सो ही सत् हैं. जैसे जीवद्रव्यका चेतनागुण है जिसका स्वभाव.. विभावरूप परिणमन है. तेसैं समय समय परिणमैं हैं ते पर्याय हैं. तैसे ही पुद्गलका स्पर्श रस गन्धवर्ण गुण हैं ते स्वभावविभावरूप समय समय परिणमै हैं हे पर्याय हैं. ऐसे सर्व द्रव्य गुणपर्यायपरिणामस्वरूप प्रगटें हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) प्रागें द्रव्यनिके व्यय उत्पाद कहा है सो कहै हैं,पडिसमयं परिणामो पुव्वो णस्सेदि जायदे अण्णो। वत्थुविणासो पढमो उववादो भण्णदे विदिओ॥२३८|| भाषार्थ-जो वस्तुका परिणाम समयसमयप्रति पहले तो विनसै है अर अन्य उपजै है सो पहला परिणामरूप व. स्तुका तौ नाश है, व्यय है. अर अन्य दूसरा परिणाम उ. पज्या ताकू उत्पाद कहिये. ऐसें व्यय उत्पाद होय हैं । आगे द्रव्यकै ध्रुवपणाका निश्चय कहै हैं,णो उप्पजदि जीवो दव्वसरूवेण णेय णस्सेदि। तं चेव दवमित्वं णिचचं जाण जीवस्स ॥ २३९ ॥ भाषार्थ:-जीव द्रव्य है सो द्रव्यस्वरूपकरि नाशकू प्राप्त न होय है अर नाहीं उपजै है सो द्रव्यमात्रकरि जीवकै निस्यपणा नाणूं. भावार्थ-यह ही ध्रुवपणा है जो जीव सचा पर चेतनताकरि उपजे विनसे नाही, नवा जीव कोई नाही उपज है विनसे भी नाहीं है ॥ २३६ ॥ श्रा द्रव्यपर्यायका स्वरूप कहै हैं,अण्णइरूवं दुवं विसेसरूबो हवेइ पज्जाओ। दत्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदिणस्सदे सतदं॥२४०॥ भाषार्थ-जीवादिक वस्तु अन्वयाकरि द्रव्य है सो ही विशेषकरि पर्याय है. बहुरि विशेषरूपकरि द्रव्य भी निरंतर उपजे विनस हैं. भावार्थ-अन्वयरूप पर्यायनिविष सामान्य Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) भावकों द्रव्य कहिये. अर विशेष भाव हैं ते पर्याय हैं. सो विशेषरूपकार द्रव्य भी उत्पादव्ययस्वरूप कहिये. ऐसा नाहीं कि पर्याय द्रव्यतै जुदा ही उपजै विनसै है किंतु प्र. भेद विवक्षात द्रव्ध ही उपजै विनसै है. भेदविवक्षात जुदे भी कहिये. ___ आगें गुणका स्वरूप कहै हैं,सरिसोजो परिमाणो अणाइणिहणो हवे गुणो सो हि। सो सामण्णसरूवो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥२४॥ - भाषार्थ-जो द्रव्यका परिणाम सदृश कहिये पूर्व उत्तर सर्व पर्यायनिविष समान होय अनादिनिधन होय सो ही गुण है. सो सामान्यस्वरूपकरि उपजे विनर्स नाहीं है. भावार्थ-नैसैं जीवद्रव्यका चैतन्य गुण सर्व पर्यायनिमें वि. द्यमान है अनादिनिधन है सो सामान्यस्वरूपकरि उपजे विनसे नाहीं है. विशेषरूपकारि पर्यायनिमें व्यक्तिरूप होय ही है, ऐसा गुण है. ते ही अपना अपना साधारण असाधारण गुण सर्व द्रव्यनिमें जानना। आज कहै हैं गुणाभास विशेषस्वरूपकार उपजे विनसै है गुणपर्यावनिका एकपणा है सो ही द्रव्य है,सोवि विणस्सदि जायदि विसेसरूवेण सव्वदव्वेसु। दव्वगुणपज्जयाणं एयत्तं वत्थु परमत्थं ॥२४॥ ... भषा -जो गुण है सो भी द्रव्यनिविषै विशेषरूपकार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) उपजै विनसै है ऐसे द्रव्यगुणपर्यायनिका एकत्रपणा है सो ही परमार्यभूत वस्तु है. भावार्थ-गुणका स्वरूप ऐसा नाही जो वस्तुतै न्यारा ही है. नित्यरूप सदा रहै है. गुण गुणीके कथंचित् अभेदर्पणा है, ता” जे पर्याय उपजै विनस हैं ते गुणगुणीके विकार हैं तातें गुण उपजते विनसते भी कहिये. ऐसा ही नित्यानित्यात्मक व तुका स्वरूप है. ऐसे द्र व्यगुणपर्यायनिकी एकता सो ही परमार्थरूप वस्तु है २४२ .. आगे आशंका उपजै है जो व्यनिविषै पर्याय विद्यमान उपजै है कि अविद्यमान उपजै है ? ऐसी श्राशकाकू दुरि करैहैं,जदि दवे पज्जाया वि विजमाणा तिरोहिदा संति। ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्व ॥२४३॥ भाषार्थ-जो द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं अर तिरोहित कहिये ढके हैं ऐसा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है, जैसे देवदत्त कडा ढक्या था नाकौं उघडया तब कहैं कि यह उपज्या सो ऐसा उपजना कहना तो परमार्थ नाहीं विफल है, तैसे द्रव्यपर्याय ढकीकौं उघडीकौं उपजती कहना परमार्थ नाही, ताक् अविद्यमानपर्यायकी ही उत्पत्ति कहिये ॥ २४३॥ सव्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती । कालाईलद्धीए अणाइणिहणम्मि दवम्मि ॥२४॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१२७) . भाषार्थ-अनादि निधन द्रव्यविष काल आदि लब्धिकरि सर्व पर्यायनिकी अविद्यमानकी ही उत्पत्ति है. भावार्थअनादिनिधन द्रव्यविष काल आदि लब्धिकरि पर्याय अ. विद्यमान कहिये अणछती उपजै हैं. ऐसें नाहीं कि सर्व पर्याय एक ही समय विद्यमान हैं ते ढकते जाय हैं. समय समय क्रम” नवे नवे ही उपजै हैं. द्रव्य त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायनिका समुदाय है, कालभेदकरि क्रमसे पर्याय होय हैं। ____ आगे द्रव्य पर्यायनिकै कथंचित् भेद कथंचित् अभेद दिखावै हैं,दव्वाणपज्जयाण धम्मविवक्खाइ कीरए भेओ। वत्थुसरूवेण पुणो ण हि भेओ सक्कदे काउं॥२४५॥ __भाषार्थ-द्रव्यके भर पर्यायके धर्मधर्मीकी विवक्षाकरि भेद कीजिये है बहुरि वस्तुस्वरूपकरि भेद करनेकू नाहीं स. मर्थ हूजिये है. भावार्थ-द्रव्यपर्यायकै धर्म धर्म की विवक्षाकरि भेद करिये है. द्रव्य धर्मी है पर्याय धर्म है बहुरि वस्तुकरि अभेद ही है. केई नैयायिकादिक धर्मधर्मीके सर्वथा भेद मानै हैं तिनका मत प्रमाणवाधित है ॥२४५॥ श्रागें द्रव्यपर्यायकै सर्वथा भेद माने हैं तिनकू दूषणे 'दिखावै हैं, जदि वत्थुदो विभेदो पज्जयदव्वाण मण्णसे मूढ। . तो णिरवेक्खा सिद्धी दोडं पिय पावदेणियमा॥२४॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) भाषार्थ - द्रव्य पर्यायकै भेद माने ताकूं कहै हैं कि - हे मूढ ! जो तू द्रव्यकै अर पर्यायकै वस्तुतैं भी भेद माने है तो द्रव्य र पर्याय दोऊकैं निरपेक्षासिद्धि नियमकरि प्राप्त होय है. भावार्थ- द्रव्यपर्य्याय न्यारे न्यारे वस्तु ठहरे हैं. धर्मधर्मीपया नाहीं ठहरे है || २४६ ॥ आगे विज्ञानको ही अद्वैत कहै हैं अर बाहय पदार्थ नहीं मानें है तिनकं दूषण बतावै हैं, - जर्दि सव्वमेव णाणं णाणा रूवेहिं संठिदं एक्कं । तो ण वि किंपि वि णेयं णेयेण विणा कहं णाणं ॥ २४७॥ भाषार्थ - जो सर्व वस्तु एक ज्ञान ही है सो ही नानारूपकरि स्थित है ति है. तो ऐसें माने ज्ञेय किछू भी न ठहरथा. बहुरि ज्ञेय विना ज्ञान कैसे ठहरे. भावार्थ-विज्ञानाद्वैतबादी बौद्धमती कहै हैं जो ज्ञानमात्र ही तत्त्व है सो ही नानारूप तिष्ठै है. ताकूं कहिये जो ज्ञानमात्र ही है तो ज्ञेय किछू भी नाहीं. र ज्ञेष नाहीं तब ज्ञान कैसे कहिये ? शेषकूं जाणे सो ज्ञान कहावे. ज्ञेयविना ज्ञान नाही. ॥ २४७ ॥ घडपडजडव्वाणि हि णेयसरुवाणि सुप्पसिद्धाणि । जादि यदो अप्पादो भिण्णरूवाणि ॥ २४८॥ माषार्थ - घट पट आदि समस्त जडद्रव्य ज्ञेयस्वरूपकरि भलेमकार प्रसिद्ध हैं. तिनकूं ज्ञान जाये है. ता ते आत्मा aria fraरूप न्यारे तिष्ठे हैं। भावार्थ- ज्ञेयपदार्थ जडद्रव्य Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) न्यारे न्यारे प्रात्माते भिन्नरूप प्रसिद्ध हैं, तिनकं लोप कैसे करिये १ जोन मानिये तो ज्ञान भी न ठहरे. जाने विना वान काहेका १॥ २४८॥ जं सव्वलोयसिद्ध देहं गेहादिवाहिरं अत्यं। . जो तंपि णाणमण्णदिण मुणदि सो णाणणाम पि ॥ ___ भाषार्थ-जो देह गेह आदि बाहय पदार्थ सर्व लोकप्रसिद्ध हैं निनकू भी जो ज्ञान ही माने तो वह वादी ज्ञानका नाम भी जाने नाही. मानार्थ-बाहय पदार्थकू भी ज्ञान, ही माननेवाला ज्ञानका स्वरूप नाही जाण्या सो तो दुरि हीरहो ज्ञानका नाम मी नाहीं जान है ॥ २४९ ॥ आगें नास्तित्ववादीके प्रति कहै हैं,अच्छीहिं पिच्छमाणो जीवाजीवादि बहुविहं अत्य। जो भणदि णत्थि किंचि विं सो झुट्ठाणं महाझुटो॥ भाषार्थ-जो नास्तिक वादी जीव अजीव आदि बहुत प्रकारके अर्थनिकू प्रत्यक्ष नेत्रनिकरि देखतो संतो भी कहै 'किछ भी नाही है सो असत्यवादीनिमें महा असत्यवादी है भावार्थ-दीखती वस्तुकू भी नाहीं बतावै सो महाझूठा है। जं सव्वं पि य संत तासो वि असंतउं कहं होदि। णस्थिति किंचि तचो अंहवा सुण्णं कहं मुणदि। . भाषार्थ-जो सर्व वस्तु सवरूप है विद्यमान है सो वस्तु Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) असत्यरूप अविद्यमान कैसें होय अथवा किछू भी नाहीं है ऐसौ तो शून्य है ऐसा भी कैसे जानें, भावार्थ-छती वस्तु प्रणती कैसे होय तथा किछू भी नाहीं है तो ऐसा कहनेवाला जाननेवाला भी नाहीं ठहरचा. तब शून्य है ऐसा कौन जा ॥ २५९ ॥ मार्गे इस ही गाथाका पाठान्तर है सो इस प्रकार है, जदि सव्वं पि असतं तासो वि य संतउं कहं भणदि । स्थिति किं पि तच्चं अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ भाषार्थ - जो सर्व ही वस्तु असत् है तो वह ऐसें कहनेवाला नास्तिकवादी भी असतुरूप ठहरया तब किछु भी तत्त्व नाही है ऐसे कैसे कहै है. अथवा कहें भी नाही सो शून्य है ऐसे कैसे जाने है. भावार्थ- आप छता है और कहै कि कछू भी नहीं सो यह कहना तो बडा अज्ञान हैतथा शून्यच्च कहना तो प्रलाप ही है कहनेवाला ही नाही तब कहै कौन ? सो नास्तित्ववादी प्रलापी है | २५१ ॥ किं बहुणा उत्तेण य जित्तियमेत्ताणि संति णामाणि । तित्तियमेत्ता अत्था संति हि नियमेण परमत्था २५२ - बहुत कहनेकरि कहा ? जेता नाम है तेता ही निमकर पदार्थ परमार्थ रूप हैं. भावार्थ - जेते नाम हैं तेते सत्यार्थ पदार्थ हैं. बहुत कहनेकरि पूरी पडो. ऐसें पदार्थका स्वरूप कहया ।। २५२ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) अब तिनि पदार्थनिका जाननेवाला ज्ञान है ताका स्वस्प कहै हैं,णाणाधम्मेहि जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयो। जंजाणेदि सजोगंतं णाणं भण्णए समये ॥२५३ ॥ भाषार्थ-जो नाना धर्मनि सहित प्रात्मा तग पर द्र. व्यनिकू अपने योग्यळू जाणे सो निश्चयनै सिद्धान्तविष ज्ञान कहिये. भावार्थ -जो आपकू तथा परकू अपने आवरणके - योपशम तथा क्षयके अनुसार जाननेयोग्य पदार्थकू जानै सो ज्ञान है. यह सामान्य ज्ञानका स्वरूप कहया ॥२५३ ॥ अब सर्वप्रत्यक्ष जो केवलज्ञान ताका स्वरूप कहै हैं,जंसव्वं पि पयासदि दव्वपजायसंजुदं लोयं । तह य अलोयं सव्वं तं णाणं सव्वपञ्चक्खं ॥२५४ ॥ ___भाषार्थ-जो ज्ञान द्रव्यपर्यायसंयुक्त लोककू तथा अलोककू सकू प्रकाशक जाण सो सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है ॥ ____ आगें ज्ञानकू सर्वगत कहै हैंसव्वं जाणदि जसा सव्वगयंत पिवुच्चदे तह्मा । ण य पुण विसरदिणाणं जीवं चइऊण अण्णत्थ २५५ ___भाषार्थ-जाते ज्ञान सर्व लोकालोककू जाणे है ता ज्ञानकू सर्वगत भी कहिये है. बहुरि ज्ञान है सो जीवकू छोडि करि अन्य जे ज्ञेय पदार्थ तिनिधि न जाय है. भावार्थभान सर्व लोकालोककू जानै है. या सर्वगत तथा सर्वव्याप Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) क कहिये है परन्तु जीवद्रव्यका गुण है तातें जीवकू छोडि अन्य पदार्थ में जाय नाहीं है ॥ २५५ ॥ आार्गे ज्ञान जीवके प्रदेशनिविषे तिष्ठता ही सर्वकूं जाने है ऐसें कहे हैं, गाणं ण जादि णेयं णेयं पिण जादि णाण सम्मि । णियणिय देसठियाणं ववहारो णाणणेयाणं ॥ २५६ ॥ भाषार्थ - ज्ञान है सो ज्ञेयविषै नाहीं जाय है, बहुरि ज्ञेय भी ज्ञान के प्रदेशनिविषै नाही आवै है. अपने अपने प्रदेशनिषेति है तौऊ ज्ञानकै अर ज्ञेयकै ज्ञेयज्ञायक व्यवहार है. भावार्थ - जैसे दर्पण अपने ठिकाण है. घटादिक वस्तु अपने ठिका है, तौऊ दर्पण की स्वच्छता ऐसी है मानूं दर्पघटाय ही बैठे है. ऐसें ही ज्ञानज्ञेयका व्यवहार जानना ॥ २५६ ॥ आगे मन:पर्यय अवधिज्ञान अर मति श्रुतज्ञानका सा मर्थ्य क है हैं, जयविणाणं ओहीणाणं च देसपचक्खं । मइ सुयणाणं कमसेो विसदपरोक्खं परोक्खं च २५७ भाषार्थ - मन:पर्ययज्ञान बहुरि अवधिज्ञान ए दोऊ तौ देशप्रत्यक्ष हैं, बहुरि मतिज्ञान है सो विशद कहिये प्रत्यक्ष भी है परोक्ष भी है. अर श्रुतज्ञान है सो परोक्ष ही है. भा वार्थ - मन:पर्यय अवधिज्ञान तो एकदेशप्रत्यक्ष हैं जातें जेते Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) अपना विषय है तेते विशद स्पष्ट जाने हैं सर्वकू न जाने, ताते एकदेश कहिये. बहुरि मतिज्ञान है सौं इन्द्रियमनकरि उपजै है ताते व्यवहारकरि इन्द्रियनिके संबंधौं विशद भी कहिये. ऐसे प्रत्यक्ष भी है परमार्थ परोक्ष ही है. बहुरि श्रुतज्ञान है सो परोक्ष ही है जातें यह विषद स्पष्ट जानैं नाहीं॥ भागें इन्द्रियज्ञान योग्य विषयकू जान है ऐसें कहै हैं.इंदियजमदिणाणं जुग्गंजाणेदि पुग्गलं दव। . . माणसणाणं च पुणो सुयविसयं अक्खविसयं च ॥ .. भाषार्थ-इन्द्रियनित उपज्या जो मतिज्ञान सो अपने योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य ताकू जाण है. जिस इन्द्रियका जैसा विषय है तैसे ही जाणै है. बहुरि मनसम्बधी ज्ञान है सो श्रुतविषय कहिये शास्त्रका वचन सुणै ताके अर्थकुं जान है. बहुरि इन्द्रियकरि जानिये तांकू भी जान है ॥२५८॥ ___आगें इंद्रियज्ञानके उपयोगकी प्रवृत्ति अनुक्र है ऐसे कहै हैं,पंचेंदियणाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुतं । मणणाणे उवजुत्ते इंदियणाणंण जाएदि ॥ २५९ ॥ ____ भाषार्थ-पांचूं ही इंद्रियनिकरि ज्ञान हो है सो विनिमेंझू एकेन्द्रियद्वारकरि ज्ञान उपयुक्त होय है. पांचूं ही एक काल उपयुक्त होय नाही. बहुरि मन ज्ञानकरि उपयुक्त होय सब इन्द्रियज्ञान नाहीं उपजे है. भावार्थ-इन्द्रिय मनसम्बन्धी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) जो ज्ञान हैं सो तिनिकी प्रवृत्ति युगपत् नाहीं एककाल एक ही ज्ञानसं उपयुक्त होय है. जब यह जीव घटकूं जानें विस काल पटकूं नाहीं जानें, ऐसैं क्रमरूप ज्ञान है ॥ २५९ ॥ इन्द्रियमन्धी ज्ञानकी क्रम प्रवृति कही तहां आशंका उपजै है जो इन्द्रियनिका ज्ञान एककाल कि नाहीं ? ताकी आशंका दूर करनेकौं कहै हैं, एक्के काले एवं गाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं । गाणाणाणाणि पुणो ला द्वे सहावेण वुच्चंति ॥ २६० ॥ भावार्थ-जीवकै एक क में एक ही ज्ञान उपयुक्त कहिये उपयोगकी प्रवृत्ति हो " है . बहुरि लब्धिस्वभावकरि एक काल नाना ज्ञान कहे हैं. भावार्थ-भाव इन्द्रिय दोय प्रकारकी कही है. लfor उपयोगरूप. तहां ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम आत्माक जानने की शक्ति होय सो लब्धि कहिये सो तो पांच इन्द्रिय अग् मन द्वारा जानने की शक्ति एक काळही तिष्ठे हैं. बहुरि निकी व्यक्तिरूप उपयोगकी प्र वृचि है सो ज्ञेय उपयुक्त होय है तब एक काल एकहीं होय है ऐसी ही क्षयोपशमका योग्यता है || २६० ॥ आगें वस्तु अनेकात्मा है तौऊ अपेक्षा एकात्म - पणा भी है ऐसे दिखावे हैं, 1 जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपक्खं । सुयणाणण णयेहिं य णिरविक्खं दीसए णेव ॥२६२॥ I Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) भाषार्थ-जो वस्तु अनेकान्त है सो अपेक्षासहित ए. कान्त भी है तहां श्रुतज्ञान जो प्रमाण ताकरि साधिये नौ अनेकान्त ही है. बहुरि श्रुतज्ञान प्रमाणके अंश जे नय तिनिकरि साधिये तब एकान्त भी है. सो अपेक्षारहित नाहीं है जाते निरपेक्ष नय मिथ्या हैं. निरपेक्षात वस्तुका रूप नाही देखिये है. भावार्थ-प्रमाण नौ वस्तुके सर्वधर्षकौं एक काल साधै है अर नय हैं ते एक एक धर्महीको ग्रहण करै हैं ताते एकनयके दूसरी नयकी सापेक्षा होय तौ वस्तु सधे अर अपेक्षारहित नय वस्तुकौं साधे नाही, ताते अपेक्षा वस्तु अनेकान्त भी है ऐसे जानना ही सम्यग्ज्ञान है ॥२६॥ भाग श्रुतज्ञान परोक्षपणे सर्वकू प्रकाशै है यह कहै हैं,सव्वं पिअणेयंतं परोक्खरूवण पयासेदि। तं सुयणाणं भण्णदि संसयपहुदीहिं परिचित्र।२६२॥ भाषार्थ-जो ज्ञान सर्व वस्तुकू अनेकान्त परोक्षरूपकरि प्रकाश जाणें कहै सो श्रुतज्ञान है । सो कैसा है संशयविपयेय अनध्यवमायकरि रहित है। ऐसा सिद्धांतमें कहे हैं। भावार्थ-जो सर्व वस्तुकं परोक्षरूपकरि, अनेमन्त प्रकाशै सो श्रुतज्ञान हैं । शास्त्र के वचन सुननेते अर्थक जाने सो परोक्ष ही जाने अर शास्त्रमें सर्व ही वस्तुका अनेकान्तात्पक स्व. रूप कह्या है सो सर्व ही वस्तुकू जाने । बहुरि गुरुनिके उ. पदेशपूर्वक जाने तब संशयादिक भी न रहै ॥ २६२॥ । आगे श्रुतज्ञानके विकल्स जे मेद ते नय हैं तिनिका Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) स्वरूप कहै हैं,लोयाणं ववहारं धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि। सुयणाणस्स त्रियप्पो सो विणओ लिंगसंभूदो २६३ भाषार्थ-जो लोकनिका व्यवहारकू वस्तुका एक धर्मकी विवक्षाकरि साथै सो नय है सो कैसा है श्रुतज्ञानका विकस कहिये भेद है बहुरि लिंगकरि उपज्या है । भावार्थ-वस्तुका एक धर्मकी विवक्षा ले लोकव्यवहारकू साथै सो श्रुतज्ञानका अंश नय है. सो साध्य जो धर्म ताकू हेतुकरि साथै 'है. जैसे वस्तुका सत् धर्मकू ग्रहणकरि याकू हेतुकरि साथै जो अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव वस्तु सवरूप है ऐसे नय हेतु उपजै है। ... प्रागें एक धर्मकू नय कैसे ग्रहण करै है सो कहै हैं,णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मपि वुच्चदे अत्थं । तस्सेयविवक्खादोणत्थि विवक्खा हु सेसाणं २६४ • भाषार्थ-नाना धर्मकरि युक्त पदार्थ है तौऊ एक धर्मरूप पदार्थको कहै जाते एक धर्मकी जहां विवक्षा करै तहां तिसही धर्म कहै अवशेष सर्व धर्मकी विवक्षा नाहीं करै है. भावार्थ-जैसे जीव वस्तुविष अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व चेतनत्व अमृतत्व आदि अनेक धर्म हैं विनिमें एक धर्मकी विवक्षाकरि कहे जो जीव चेतनत्वरूप ही है इत्यादि, तहां अन्य धर्मकी विवक्षा नाही करै Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) तहां ऐसा न जानना जो अन्यधर्मनिका अभाव है किंतु प्र. योजनके पाश्रय एक धर्म• मुख्यकरि कहै है, अन्यकी विवक्षा नाहीं है। - भागें वस्तुका धर्मकू अर तिसके वाचक शब्दकू पर तिसके ज्ञानकू नय कहै हैं,सो चिय इक्को धम्मो वाचयसदो दि तस्स धम्मस्स । तं जाणदितं णाणं ते तिण्णि विणयविसेसा य २६५ भाषार्थ-जो वस्तुका एक धर्म बहुरि तिस धर्मका वाचक शब्द बहुरि तिस धर्म• जानने वाला ज्ञान ए तीनू ही नयके विशेष हैं. भावार्थ-वस्तुका ग्राहक ज्ञान अर ताका बाचक शब्द अर वस्तु इनकू जैसे प्रमाणस्वरूप कहिये तैसे ही नय कहिये। आगें पूछे हैं कि वस्तुका एक धर्म ही ग्रहण करै ऐसा जो एक नय ताळू मिथ्यात्व कैसे कह्या है ताका उत्तर ते साविक्खा सुणया णिरावक्खा ते वि दुग्णया होति सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण २६६ . भाषार्थ-ते पहले कहे जे तीन प्रकार नय ते परस्पर अपेक्षासहित होय तब तौ सुनय हैं. बहुरि ते ही जब अपेक्षारहित सर्वथा एक एक ग्रहण कीजै तब दुर्नय हैं बहुरि सुनयनि सर्व व्यवहार वस्तुके स्वरूपकी सिद्धि होय है. भावा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) 4-नय हैं ते सर्व ही सापेक्ष तौ सुनय हैं. निरपेक्ष कुनय हैं. वहां सापेक्षते सर्व वस्तु व्यवहारकी सिद्धि है, सम्पखानस्वरूप है. पर कुनयनित सर्व लोकन्यवहारका लोप होय है, मिथ्याज्ञानरूप है। ___ आगें परोक्ष ज्ञानमै अनुमान प्रमाणभी है ताका उदाहरणपूर्वक स्वरूप कहै हैं,जं जाणिज्जइ जीवो इंदियवावारकायचिट्टाहिं । तं अणुमाणं भण्णदित पि णयं बहुविहं जाण २६७ . भाषार्थ-जो इन्द्रियनिके व्यापार अर कायकी चेष्टानिकरि शरीरमै जीवकू जाणिये सो अनुमान प्रमाण कहिये है सो यह अनुमान ज्ञान भी नय है सा अनेक प्रकार है. भावार्थ-पहलै श्रुतज्ञान के विकल्प नय कहे थे, इहां अनुमानका स्वरूप कह्या जो शरीरमै तिष्ठता जीव प्रत्यक्ष ग्रहणमैं नाही श्रावै यात इन्द्रियनिका पार स्पर्शना स्वादलेना बोलना सूंघना सुनना देखना आदि चेष्टा गमन प्रादिक चिन्हनित जानिये कि शरारमैं जीव है सो यह अनुमान है जातै साधन साध्य का ज्ञान होय सो अनुमान कहिये. सो यह भी नय ही है. परोक्ष प्रमाणके भेदनिमैं कहया है सो परमार्थकरि नय ही है. सो स्वार्थ परमार्थके भेदते तथा हेतु चिन्हनिके भेदते अनेक प्रकार कया है ।। २६७॥ .. भागें नयके भेदनिकू कहै हैं, Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९) सो संगहेण इक्को दुविहो वि य दवपज्जएहितो। तोस च विसेसादो णइगमपहुदी हवे गाणं २६८ ____ भाषार्थ-सो नय संग्रहकरि कहिये सामान्यकरि तौ एक है. द्रव्यर्थिक पर्यायार्थिक भेदकरि दोय प्रकार है. बहुरि विशेषकरि तिनि दोऊनिके विशेषतनै गमेनया आदि देकर हैं सो नय हैं ते ज्ञान ही हैं ॥२६ ॥ __ श्रागें द्रव्यनयका स्वरूप कहै हैं,जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि २६९ भाषार्थ-जो नय वस्तुकू विशेषरूपनि अविनाभूत सामान्य स्वरूकू नाना प्रकार युक्तिके बलते साधै सो द्रव्यार्थिक नय है. भावार्थ-वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक है सो विशेषविना सामान्य नाहीं ऐसे सामान्यकू युक्तिके बलः साधै सो द्रव्यार्थिक नय है ॥ २६९॥ . ___ आगें पर्यापार्थिक नयकू कहै हैं,जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्ण संजुदे सव्वे। साहणलिंगवसादो पज्जयविसयो णयो होदि २७० भाषार्थ-जो नय अनेक प्रकार सामान्यकरि सहित सर्व विशेष तिनिके साधनका जो लिंग ताके वश साधै सो प. र्यायार्थिक नय है. भावार्थ-सामान्य सहित विशेषनिकू हेतुहैं साथै सो पर्यायार्थिक नय है. जैसे सत् सामान्य करि स. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) हित चेतन अचेतनपणा विशेष है, बहुरि चित् सामान्यकरि संसारी सिद्ध जीवपणा विशेष है, बहुरि संसारीपणा साषान्यकरिसहित त्रस थावर जीवपणाविशेष है. इत्यादि. बहुरि अचेतन सामान्यकरिकै सहित पुद्गल आदि पांच द्रव्यविशेष हैं. बहुरि पुगलसामान्यकरिसहित अणु स्कन्ध घट पट आदि विशेष हैं इत्यादि पर्यायार्थिक नय हेतुतै साधै है॥२७॥ . आगे द्रव्यार्थिक नयका भेदनिकू कहै हैं तहां प्रथमही नैगम नयकू कहै हैं,-- जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समत्थं च । संपडिकालाविट्रं सोहणयो गमोणेयो॥२७॥ भाषार्थ-जो नय अतीत तथा भविष्यत तथा वर्तमानकूविकल्परूपकरि संकल्पमात्र साधै सो नैगम नय है. भा. वार्थ-द्रव्य है सो तीन कालके पर्यायनितें अन्वयरूप है ताकू अपना विषयकरि अतीतकाल पर्यायकू भी वर्तमानवत् संकल्पमें ले आगामी पर्यायकू भी वर्तमानवत् संकल्पमें ले वर्तमानमें निष्पन तथा अनिष्पन्नकू निष्पन्नरूप संकल्पमें ले ऐसे ज्ञानकू तथा वचनकू नैगमनय कहिये है. याके भेद अनेक हैं. सर्वनयके विषयकू मुख्य गौणकरि अपना संकल्परूप विषय करै है. इहां उदाहरण ऐसा-जैसे इस मनुष्य नामा जीव द्रव्यकै संसार पर्याय है पर सिद्धपर्याय है यह मनुष्य पर्याय है ऐसे हैं । तहां संसार अतीत अनागत वर्तमान तीन काल सम्बन्धी भी है, सिद्धपणा अनागत ही है, मनुष्यपणा वर्ग Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१), मान ही है परन्तु इस नयके वचनकरि अभिप्रायमें विद्यमान संकल्पकरि परोक्ष अनुभवमें लेकहैं कि या द्रव्यमें मेरे ज्ञानमें अबार यह पर्याय भासै है ऐसे संकल्पक नैगम नयका विषय कहिये. इनमेंमं मुख्य गौर कोईकू कहैं । ___आगें संग्रहनया कहै हैं,जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदवपज्जायं। अणुगमालिंगविसि, सो वि णयो संगहो होदि ॥ ___ भाषार्थ-जो नय सर्व वस्तुकू तया देश कहिये एक वस्तुके भेद... अनेक प्रकार द्रव्यपर्यायसहित अन्वय लिंग. करि विशिष्ट संग्रह करै, एकस्वरूप कहै, सो संग्रह नय है. भावार्थ-सर्व वस्तु उत्पादव्ययधौव्यलक्षण सत्करि द्रव्य पर्यायनितूं अन्वयरूप एक सत्पात्र है ऐसें कहै, तथा सामा. न्य सतस्वरूप द्रव्य मात्र है, तथा विशेष सतरूप पर्याय मात्र है तथा जीव वस्तु चित् सामान्यकरि एक है तथा सि. दत्व सामान्यकरि सर्व सिद्ध एक है तथा संसारित्व सामान्यकरि सर्व संसारी जीव एक है इत्यादि तथा अजीव सामान्यकरि पुदगलादि पांच द्रव्य एक अजीव द्रव्य है तथा पुद्गलत्व सामान्यकरि अणु सन्ध घटपदादि एक द्रव्य हे इत्यादि संग्रहरूप कहै सो संग्रह नय है। ... आगे व्यवहार नयकू कहै हैं,-- जो संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) परमाणूपज्जतं ववहारणओ हवे सो वि ॥२७३॥ भाषार्थ-जो नय संग्रह नयकरि विशेषरहित वस्तुकंग्र. हण कीया या, ताकू परमाणु पर्यन्त निरन्तर भेदै सो व्यवहार नय है. भावार्थ-संग्रह नय सर्व सव सर्वकू कथा वहां व्यवहार भेद करै सो सद्रव्यपर्याय है. बहुरि संग्रह द्रव्य सामान्यकू अहै तहां व्यवहार नय भेद करै. द्रव्य जीव अजीव दोय भेदरूप है बहुरि संग्रह जीव सामान्यकू ग्रहै तहां व्यवहार भेद करै । जीव संसारी सिद्ध दोय भेदरूप है इत्यादि। बहुरि पर्यायसामान्यकू संग्रहण करै तहां व्यवहार भेद करै पर्याय अर्थपर्याय व्यंजनपर्याय भेदरूप है तैसे ही संग्रह अ. जीव सामान्यकू अहै तहां व्यवहारनय भेद करि अजीव पु. दूलादि पंच द्रव्य भेदरूप है, बहुरि संग्रह पुगल सामान्यकुं ग्रहण करे तहां व्यवहारनय अणु स्कंध घट पट आदि भेदरूप कहै ऐसें जावं संग्रह ग्रहै तामें भेद करता जाय तहां फेरि भेद न होय सकै तहां ताई संग्रह व्यवहारका विषय है. ऐसे तीन द्रव्यर्थिक नयके भेद कहे ॥ २७३ ॥ .. अव पर्यायाथिकके भेद कहै हैं तहां प्रथम ही ऋजुसूत्र जयकू कहे हैं,जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं । संतं साहदि सव्वं तं वि णयं रिजुणयं जाण २७४ . भाषार्थ-जो नय वर्तमान कालविङ्ग अर्थ पर्यायरूप परि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) यया जो अर्थ ताहि सर्वकू सवरूप साथै सो ऋजुसूत्र नय है. भावार्थ-वस्तु समय समय परिणमै है सो एक समयवर्चमान पर्यायकू अर्थपर्याय कहिये है. सो या ऋजुसूत्र नय का विषय है. निस मात्र ही वस्तुकौं कहै है. बहुरिघडी मुहूर्त आदि कालकौं भी व्यवहारमें वर्तमान कहिये है सो तिस वर्तमान कालस्यायी पर्यायकौं भी साधै तातें स्थूल अजुसूत्र संज्ञा है. ऐसे तीन तौ पूर्वोक्त द्रव्यार्थिक अर एक ऋजुसूत्र ए च्यारि नय तौ अर्थनय कहिये हैं ॥ २७४ ॥ - आगें तीन शब्दनय हैं तिनिकौं कहै हैं तहां प्रथमही शब्दनयकौं कहै हैं,सव्वेसिं वत्थूणं संखालिंगादिबहुपयारोहिं । जो साहदि णाणत्तं सद्दणयं तं वियाह ॥ २७५ ॥ _भाषार्थ-जो नय सर्व वस्तुनिकै संख्या लिंग आदि बन हुत प्रकार करि नानागााकौं साथै सो शब्द नय जाणूभावार्थ-संख्या एक वचन द्विवचन बहुवचन, लिंग स्त्री पुरुष नपुंसकका वचन, प्रादि शब्दमें काल कारक पुरुष उ. पर्सग लेो. सो इनिकरि व्याकरणके प्रयोग पदार्यकौं भेदरूपकार कहै सो शब्द नय है. जै पुष्य तारका नक्षत्र एक ज्योतिषीके विमानकै तीन लिंग कहै नहां व्यवहार में विरोध दीख जातै सो ही पुरुष सो ही स्त्री नपुंसक कैसे होय ! तथापि शब्द नयका यह ही विषय है जो जैसा शब्द कहै वैसा ही अर्थकू भेदरूप मानना ॥ २७५॥ . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) आगें समभिरूढ नयकौं कहे हैं,जो एगेगं अत्थं परिणादिभेएण साहए णाणं । मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णयंजाण २७६ ___भाषार्थ-जो नय वस्तुकौं परिणामके भेदकरि एक एक न्यारा न्यारा भेद रूप सधि अथवा तिनिमें मुख्य अर्थ ग्रहण करि साधै सो समभिरूट नय जाणूं. भावार्थ-शब्द नय वस्तुके पर्याय नामकरि भेद नाहीं करै अर यह समभिरूढ नेय है सो एक वस्तुके पर्याय नाम हैं तिनिके मेदरूप न्यारे न्यारे पदार्थ ग्रहण करै तहां जिसकौं मुख्यकरि पकडै तिस: कौं सदा तैसा ही कहै. जैसे गऊ शब्दके बहुत अर्थ थे तथा गऊ पदार्थके,बहुत नाम हैं.,तिनकौं यह नय न्यारे न्यारे पदार्य मानै है. तिनिमें मुख्यकरि गऊ पकडया ताकौं चा. लतां बैठतां सोवतां गऊ ही कहवो करै. ऐसा समभिरूढ नय है ॥ २७६ ॥ ____एवंभूत नयकौं कहै हैं.जेण सहावेण जदा परिणदरूवम्मि तम्मयचादो। तप्परिणाम साहदि जो वि णओ सो वि परमत्यो॥ भाषार्थ-वस्तु जिस काल जिस स्वभावकरि परिणमनरूप होय तिस काल तिस परिणाम तन्मय होय है. ताते विस ही परिणामरूप साथै, कहै सो नय एवंभूत है. यह नय परमार्थरूम है. भावार्थ-वस्तुका जिस धर्मकी मुख्यता करि .. ... ... Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) नाय होय तिस ही अर्थके परिणमनरूप जिस काल परिणमै ताकौं तिस नामकरि कहै सो एवंभूत नय है. याकौं निश्चय भी कहिये हैं. जैमैं गऊकौं चाले तिस काल गऊ कहै. अन्य काल कछु न कहै ॥ २७७॥ भागें नयनिके कथनकौं संकोचे हैं,एवं विविहणएहिं जो वत्थू ववहरेदि लोयाम्म । दसणणाणचरितं सो साहदि सरगमोक्खं च २७८ ____ भाषार्थ-जो पुरुष या प्रकार नयनिकरि वस्तुकौं व्यवहाररूप कहै है, साधे है अर प्रवर्चाव है सो पुरुष दर्शन ज्ञान चारित्रको साधै है. बहुरि स्वर्ग मोक्षको साथै है.भा. चार्य-प्रमाण नयनिकरि वस्तुका स्वरूप यथार्थ सधै है. जो पुरुष प्रमाण नयनिका स्वरूप जाणि वस्तुकौं यथार्थ व्यव. हाररूप प्रवर्ताव है तिलके सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी अर नाका फल स्वर्ग मोक्षकी सिद्धि होय है ।। २७८ ॥ ___ आगें कहै हैं जो तत्त्वार्थका सुनना जानना धारणा भावना करनेवाले विरले हैं,विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणति तच्चदो तच्चं। विरला भावहिं तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥७९॥ __ भाषार्थ-जगतविष तत्वकौं विरले पुरुष सुणै हैं. वहुरि सुनि करि भी तत्वकौं यथार्थ विरले ही जाणै हैं. बहुरि जानि करि भी विरले ही तत्त्वकी भावना कहिये बारबार प्र. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) भ्यास करै हैं. बहुरि अभ्यास कीये भी तवकी धारणा विरले निकै होय है. भावार्थ-तत्वार्थका यथार्थ स्वरूप सुनना जानना भावना धारणा उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं इस पांचमां का. लमें तत्त्वके यथार्थ कहनेवाले दुर्लभ हैं अर धारनेवाले भी दुर्लभ हैं ॥ २७६ ॥ आगे कहै हैं जो कहे तत्वकौं सुनिकर निश्चल भावते मात्रै सो तत्त्वकौं जाणै,तचं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिलदे जो हि । तं चिय भावेइ सया सो वि य तच्चं वियाणेई २८० ___ भाषार्थ-जो पुरुष गुरुनिकरि कह्या जो तत्त्वका स्वरूप ताकौं निश्चल भाव करि ग्रहण करै है, बहुरि तिसकौं अन्य भावना छोडि निरंतर मात्रै है, सो पुरुष तत्वकौं जाण है। ___ आगे कहै हैं तत्त्वकी भावना नाहीं करै है, सो स्त्री प्रादिके वश कौन नाही है ? सर्व लोक है,- .. को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहिं संतत्तो॥ भाषार्थ-या लोकविष स्त्रीजनके वश कौन नाहीं है ? बहुरि कामकरि जाका मन खण्डन न भया ऐसा कौन है ? बहुरि इन्द्रियनिकरि न जीया ऐसा कौन है ! बहुरि कषायनिकरि तक्षायमान नाहीं ऐसा कौन है ? भावार्थ-विषय Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) कषायनिके वशमें सर्व लोक हैं भर तत्त्वकी भावना करनेवाले विरले हैं ।। २८१ ॥ आगे कहै हैं जो तत्त्वज्ञानी सर्व परिग्रहका त्यागी हो है सो स्त्रीयादिके वश नाहीं होय है, - सो वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहिं मोहेण जो ण य हृिदि गंथं अब्भंतर बाहिरं सव्वं २८२ न्तर भाषार्थ - जो पुरुष तत्त्वका स्वरूप जाणि बाहय अभ्यतर सर्व परिग्रहकों नाहीं ग्रहण करें है, सो पुरुष स्त्रीजनके - बश नाहीं होय है. बहुरि सो ही पुरुष इंद्रियनिकरि जीत्या न होय है. बहुरि सो ही पुरुष मोह कर्म जे मिध्यात्व कर्म ति-संकरि जीत्या न होय है. भावार्थ- संसारका बन्धन परिग्रह है सो सर्व परिग्रहकौं छोडै सो ही स्त्री इंद्रिय कषायादिकके वशीभूत नाहीं होय है. सर्वत्यागी होय शरीरका ममत्व न राखै, तब निजस्वरूपमें ही लीन होय है ।। २८२ ॥ आर्गे लोकानुप्रेक्षाका चितवनका माहात्म्य प्रगट करें हैं, एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसम्भाओ । सो खविय कम्मपुंजं तस्सेव सिहामणी होदि ॥ २८३॥ भाषार्थ - जो पुरुष इस प्रकार लोकस्वरूपकौं उपशमकपर एक स्वभावरूप हुंवा संता ध्यावे है, चित्रवन करे है, सो पुरुष क्षेपे हैं ना किये हैं कर्मके पुंज जाने ऐसा तिस लो . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) कहीका शिखामणि होय है. भावार्थ - ऐसें साभ्यभाव करि लोकानुप्रेक्षाका चितवन करै सो पुरुष कर्मका नाशकरि लोकके शिखर जायति है. तहां अनन्त अनौपम्य बाधारहि तस्वाधीन ज्ञानानन्दस्वरूप सुखकों भोगवै है । इहां लोक भावनाका कथन विस्तारकरि करनेका आशय ऐसा है जो अन्यमती लोकका स्वरूप तथा जीबका स्वरूप तथा हिताहितका स्वरूप अनेक प्रकार अन्यथा असत्यार्थ प्रमाणविरुद्ध है हैं सो कोई जीत सुनिरि विपरीत श्रद्ध' करें हैं, केई संशयरूप होय हैं, केई अनध्यवसायरूप होय हैं, तिनिकै विपरीत श्रद्धात चित थिरताकौं न पावै है । अर चित्त थिर निश्चित हुवा विना यथार्थ ध्यानकी सिद्धि नाहीं । ध्यान विना कर्मनिका नाश होय नाहीं, तातैं विपरीत श्रद्धान दुरि होनेके अर्थ यथार्थ लोका तथा जीवादि पदार्थनिका स्वरूप जानने के अर्थ विस्तारकरि कथन किया है, ताकूं जानि जीवादिका स्वरूप पहिचान अपने स्वरूपविषै निश्चल चित्त ठानि कर्म कलंक मानि भव्य जीव मोक्षकूं प्राप्त होहु, ऐसा श्रीगुरुनिका उपदेश है ।। २८३ ॥ कुंड लिया. लोकाकार विचार, सिद्धस्वरूपचितारि । रागविरोध विद्यारिकै, बातमरूपसंवारि ॥ श्रातम संवार मौलपुर वसो सदा ही । आधिव्याधिजरमरन श्रादि दुख है न कदा ही || Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) श्रीगुरु शिक्षा धारि टारि अमिमान शोका। मनथिरकारन यह विचारि निजरूप सुलोका॥१०॥ ... इति लोकानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ १० ॥ अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा लिख्यते। जीवो अणंतकालं बसइ णिगोएसु आइपरिहीणो । तत्तो णीसरिऊणं पुढवीकायादियो होदि ॥२८४.॥ ____ भाषार्थ-ये जीव अनादि काल लेकरि संसारविषेध नन्त काल तौ निगोद विषै सै है. बहुरि तहात नीसरिकरि पृथ्वीकायादिक पर्यायकू धारै है. अनादितै अनन्तकालपयन्त नित्य निगोदमें जीवका वास है. तहां एक शरीरमें अ. नन्तानन्त जीवनिका आहार स्वासोच्छास जीवन मरन समान है. स्वासके अठारहवें भाग श्रायु है तहात नीसरि कदाचित् पृथिवी अप तेज वायुकाय पर्याय पावै है सो यह पावना दुर्लभ है ॥ २८४ ॥ ___कहै हैं यातें नीसरि त्रसपर्याय पावना दुर्लभ है, तत्थ वि असंखकालं वायरसुहमेसु कुणइ परियत्वं । चिंतामाणिव दुलहं तसत्तणं लहदि कट्ठण २८५ .. भाषार्थ-तहां पृथिवीकाय आदिविष सूक्ष्म यता वादरनिर्विषे असंख्यात काल भ्रमण करै है. तहांतें नीसरि त्रसपणा पावना बहुत कष्टकर दुर्लभ है. जैसे चिंतामणिरत्नका Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) पावना दुर्लभ होय तैसें । भावार्थ-पृथिवीआदि थावरकायतें नीसरि चिन्तापणि रत्नकी ज्यौं त्रस पर्याय पावना दुर्लभ है आगें कहै हैं सपणा भी पावै तहां पंचेन्द्रियपणा पा. वना दुर्लभ है,वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अत्थेइ पुव्वकोडीओ। तत्वो णीसरिऊणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥२८॥ ____ भाषार्थ-थावर नीसरि त्रस होय तहाँ भी विकलत्रय वेइन्द्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रियपणा पावै तहां कोटिपूर्व तिष्ठं तहां तैं भी नीसरि करि पंचेंद्रियपणा पावना महा कष्टकर दुर्लभ है. भावार्थ-विकलत्रयतें पंचेंद्रियपणा पावना दुर्लभ है जो विकलत्रयतै फेरि थावर कायमें जाय उपजै तौ फेरि बहुत काल भुगतें. ताते पंचेद्रियपणा पावना अतिशय दुर्लभ है। सो विमणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि। अहमणसहिओहोदि हुतह वि तिरक्खो हवे रुद्दो॥ भाषार्थ-विकलत्रयत नीसरि पंचेन्द्रिय भी होय तौ अ सैनी मनरहित होय है. आप अर परका भेद जाण नाही. बहुरि कदाचित् मनसहित सैनी भी होय तो तिर्यञ्च होय है. रौद्र क्रूर परिणामी विलाव घूघु सर्प सिंह मच्छ आदि होय है. भावार्थ-कदाचित् पंचेन्द्रिय भी होय तौ असैनी होय सैनीपणा दुर्लभ है बहुरि सैनी भी होभ तो कर तिर्यऽच होय ताकै परिणाम निरन्तर पापरूप ही रहै हैं २८७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) भागें ऐसे क्रूर परिणामीनिका नरकपात होय है, ऐसे कहे हैं-- सो तिव्वअसुहलेसो णरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे । तत्थ वि दुक्खं भुजदि सारीरं माणसं पउरं ॥२८॥ भाषार्थ-ऋर तियेच होय सो तीव्र अशुभ परिणामकरि अशुभ लेश्या सहित मरि नरकमें पडै है. कैसा है नरक दुःखदायक है भयानक है तहां शरीरसम्बन्धी तथा मनस. म्बधी प्रचुर दुःख भोगवै है ॥ २८८॥ भागें कहै हैं तिस नरकतें नीसरि तिर्यंच होय दुःख तत्तो णीसरिऊणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावं । तत्थ विदुक्खमणंतं विसहदिजीवोअणेयविहं २८९ भाषार्थ-तिस नरक नीसरि फेरि भी तिर्यंच गतिविफै उपजे है तहां भी पापरूप जैसैं होय तेसैं यह जीव अनेक प्रकारका अनन्त दुःख विशेषकरि सहै है ॥ २८९ ॥ . . ___ आगे कहै हैं कि मनुष्यपणा पावना दुर्लभ है सो भी मिथ्याती होय पाप उपजावै है,रयणं चउप्पहेपिव मणुअत्त्रं सुट्ठ दुल्लहं लहिय । मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समज्जेदि ॥२९॥ भाषार्थ-तियच नीसरि मनुष्यगति पावणा अति द. ल्लेभ है. जैसैं चौपथमें रत्न पड्या होय सो बडा भाग्य हाथ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) लागै तैसें दुर्लभ है. बहुरि ऐसा दुर्लभ मनुष्यपणा पायकरि भी मिध्यादृष्टी होय पाप उपनाव है. भावार्थ-मनुष्य भी होय अर म्लेच्छखंड आदि तथा मिथ्यादृष्टीनिकी संगतिविष उपजि पाप ही उपजावै है ॥ १९० ॥ आगे कहै हैं मनुष्य भी होय अर आर्य खंडविष भी उपजै तौऊ उत्तम कुलआदिका पावणा अति दुर्लभ है,अह लहइ अजवंतं तह ण वि पावेइ उत्तमं गोतं । उत्तम कुले वि पत्चे धणहीणो जायदे जीवो ॥२९॥ ___ भाषार्थ-मनुष्य पर्याय पाय आर्यखंडविधै भी जन्म पावै तौ ऊंच कुल पावना दुर्लभ है बहुरि कदाचित् ऊंच कुल विषै भी जन्म पावै तौ धनहीन दरिद्री होय तासू कछू सुकृत वर्ण नाही पापहीमें लीन रहै ।। २९१ ॥ अह धनसाहओ होदि हुइंदियपरिपुण्णदा तदो दुलहा अह इंदिय संपुण्णो तह वि सरोओ हवे देहो २९२ भाषार्थ-बहुरि जो धनसहितपणा भी पाबै तौ इन्द्रियनिकी परिपूर्णता पावना अति दुर्लभ है. बहुरि कदाचित् इन्द्रियनिकी संपूर्णता भी पावै तौ देह रोग सहित पावै निरोग होना दुर्लभ है ॥ २९२ ॥ अह णीरोओ होदि हु तह विण पावेइ जीवियं सुइरं। अह चिरकालं जीवदि तो सीलं णेव पावेइ ॥२९॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ-अथवा कदाचित् नीरोग भी होय तो जीवित कहिये श्रायु दीर्घ न पावे यह पावना दुर्लभ है अथवा जो कदाचित आयु भी चिरकाल कहिये दीर्घ पावै तौ शील कहिये उत्तम प्रकृति भद्र परिणाम न पावै जाते सुष्टु स्वभाव पावना दुर्लभ है ॥ २९३॥ अह होदि सीलजुत्तो तह वि ण पावेइ साहुसंसरगं। अहतंपि कह वि पावइ सम्मत्वं तह वि अइदुलहं २९४ ____ भाषार्थ-बहुरि सुष्ठु स्वभाव भी कदाचित् पावै तो साधु पुरुषका संसर्ग संगति नाही पावै हैं. बहुरि सो भी कदाचित् पावै तौ सम्यक्त्व पावना श्रद्धान होना अति दुर्लभ है ॥ २९४॥ सम्मचे वि य लढे चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो। अह कह वि तं पिगिण्हदितो पालेदंण सकेदि२९५ . भाषार्थ-बहुरि सम्यक्त भी कदाचित् पावै तौ यह जीव चारित्र नाही ग्रहण करै है. बहुरि कदाचित चारित्र भी प्रइण करै तौ तिसकू निर्दोष न पालि सके है ॥ २९५ ॥ रयणचये वि लढे तिव्वकसायं करेदि जइ जीवो। तो दुग्गईसु गच्छदि पणहरयणचओ होऊ ॥२९॥ भाषार्थ-जो यह जीव कदाचित रत्नत्रय भी पावै भर तीनकषायं करै तौ नाशकू प्राप्त भया है रत्नत्रय जाका ऐसा होयकरि दुर्गतिकू गमन कर है ॥ २९६ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) बहुरि ऐसा मनुष्यपणा ऐसा दुर्लभ है जा रत्नत्रयकी प्राप्ति हो ऐसा कहै हैं,रयणुव्व जलहिपाडियं मणुयत्वं तं पि होइ अइदुलह एवं सुणिचइत्ता मिच्छकसायेय वजेह ॥३९७॥ भाषार्थ-यह यनुष्यपणा जैसैं रत्न समुद्र में पड्या फेरि पावणा दुर्लभ होय तैसें पावना दुर्लभ है ऐसे निश्चयकरि अर हे भव्य जीवो थें मिथ्या अर कषायनिकू छोडौ ऐसा उपदेश श्रीगुरुनिका है ।। २९७ ॥ आगे कहै हैं जो कदाचित् ऐसा मनुष्यपला पाय शुभपरिणामनित देवपणा पावै तौ तहां चारित्र नाही पावै है,अहवा देवो होदि हु तत्थ वि पावेइ कह वि सम्मत्वं । सो तवचरणं ण लहदि देसजमं सीललेसं पि २९८ भाषार्थ-अथवा मनुष्यपणात कदाचित् शुभपरिणामतें देव भी होय अर कदाचित् तहां सम्यक्त्व भी पावै तौ तहां तपश्चरण चारित्र न पावै है. देशव्रत श्रावकव्रत तथा शीलवत कहिये ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशीलका लेश भी न पावै है। ____ आगे कहै हैं कि इस मनुष्यगतिविष ही तपश्चरणादिक है ऐसा नियम है,मणुअगईए वि तओ मणुअगईए महत्वयं सयलं । मणुअगईए झाणं मणुअगईए वि णिव्वाणं ॥२९९॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) भाषार्थ-हे भव्य जीव हो इस मनुष्यगतिविष ही तपका आचरण होय है बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही समस्त महावत होय हैं. बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही धर्म्यशुक्लध्यान होय हैं. बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही निर्वाण कहिये मोक्षकी प्राप्ति होय है ॥ २९९ ।। इय दुलहं मणुयत्वं लहिऊणं जे रमंति विसएसु । ते लहिय दिव्वरयणं भूहाणमित्वं पजालंति ॥३०॥ भाषार्थ-ऐसा यह मनुष्यपणा पायकरि जे इन्द्रिय विषयनिविषै स्मै हैं ते दिव्य (अमोलिक) रत्नकू पाय भस्मके अर्थ दग्ध करै हैं. भावार्थ-अति कठिन पावने योग्य यह मनुष्य पर्याय अमोलिक रत्नतुल्य है. ताकू विषयनिविषै रमिकरि वृथा खोवना योग्य नाहीं ॥३००॥ आगे कहै हैं जो या मनुष्यपणामें रत्नत्रय पाय बडा आदर करो, इय सव्वदुलहदुलहं दसण णाणं तहा चरित्वं च। मुणिउण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि॥३०॥ ____ भाषार्थ-ए सर्व दुर्लभतें भी दुर्लभ जाणि बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र संसारविषै दुर्लभसों दुर्लभ जाणि अर दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीनिविष हे भव्य जीव हो ! बडा आदर करौ.! भावार्थ-निगोदतें नीसरि पूर्व कहै तिस अनुक्रमते दुः लभरां दुर्लभ जाणू, बहुरि तहां भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्राप्ति अति दुर्लभ जाणू. तिसकू पायकरि भव्य जीवनि• महान् आदर करना योग्य है॥३०१॥ छप्पय. वसि निगोदचिर निकसि खेद सहि धरनि तरुनि बहु । पवनवोद जल अगि निगोद लहि जरन मरन सहु ॥ लट गिंडोल उटकम मकोड तन भमर भमणकर । जलविलोलपशु तन सुकोल नभचर सर उरपर ।। फिरि नरकपात अति कष्टसहि, कष्टकष्ट नरतन महत । तहँ पाय रत्नत्रय चिगद जे, ते दुर्लभ अवसर लहत ११ इति बोधिदुर्लमानुप्रेक्षा समाप्ता ॥११॥ अथ धम्मानुप्रेक्षा प्रारभ्यते. आगे धर्मानुप्रेक्षाका निरूपण करै हैं तहां धर्मका मूल सर्वज्ञ देव है ताकू भगठ करै हैं,जो जाणदि पच्चक्खं तियालगुणपज्जएहि संजुत्वं । लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देओ ॥ ३०२॥ भाषार्थ-जो समस्त लोक अर अलोक तीनकालगोचर समस्त गुणपर्यायनिकरि संयुक्त प्रत्यक्ष जाणे सो सर्वज्ञ देव है. भावार्थ-या लोकविष जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं. तिनिते अनन्तानन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं. एक एक प्राकाश, धर्म, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) अधर्म द्रव्य है. असंख्यात कालाणु द्रव्य है. लोकके परै अनन्तप्रदेशी आकाश द्रव्य अलोक है. तिनि सर्व द्रव्यनिके अतीत काल अनन्त समयरूप आगामी काल तिनितें अनन्तगुणा समर रूप तिस कालके समयसमयवर्ती एक द्रव्य के अनन्त अनन्त पर्याय हैं. तिनि सर्व द्रव्यपर्यायनिकू युगपत् एक समयविषै प्रत्यक्ष स्पष्ट न्यारे न्यारे जैसे हैं तैसें जाने ऐसा जाके ज्ञान है सो सर्वज्ञ है. सो ही देव है अन्यकू देव कहिये सो कहने मात्र है। इहां कहनेका तात्पर्य ऐसा जो धर्मका स्वरूप कहिथेगा सो धर्मका स्वरूप यथार्थ इन्द्रियगोचर नाही अतीन्द्रिय है. जाका फल स्वर्ग मोक्ष है, सो भी अतीन्द्रिय है. छद्मस्थकै इन्द्रिय ज्ञान है. परोक्ष है सो याके गोचर नाहीं सो जो सर्व पदार्थनिकू प्रत्यक्ष देखै सो धर्मका स्वरूप भी प्रत्यक्ष देखै सो धर्मका स्वरूप सर्वज्ञके वचनहीते प्रमाण है. अन्य छनस्थका ह्या प्रमाण नाही. सो सर्वज्ञके वचनकी परंपरानै छद्मस्थ कहै सो प्रमाण है तातें धर्मका स्वरूप कहनेकू आदिवि सर्वज्ञका स्थापन कीया ॥३०२॥ भागें ज सर्वज्ञकुं न मान हैं तिनि कहै हैं,जदिण हवदि सव्वण्हू ता कोजाणदिआदिदियं अत्थं इंदियणाणं ण, मुणदि थूलं पि असेस पन्जायं ३०३ - भाषार्थ-हे सर्वज्ञके अभाववादी! जो सर्वज्ञ न होय तौ मीन्द्रियपदार्थ इन्द्रियगोचर नाहीं ऐसे पदार्थकू कौन जानै ? इन्द्रियज्ञानतौ स्थूलपदार्थ इन्द्रियनित सम्बन्धरूप वर्तमान. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) होय ताकू जाने है ताके भी समस्तपर्याय हैं तिनिळू नाही जाने है. भावार्थ-सर्वज्ञका अभाव मीमांसक अर नास्तिक कहै हैं ताकं निषेध्या है जो सर्वज्ञ न होय तो अतीन्द्रिय पदार्थकू कौन जानै ? जात धर्म अर अधर्मका फल अतीन्द्रिय है ताकं सर्वज्ञविना कोऊ नाहीं जानै तातें धर्म अर अधर्मका फलफू चाहता जो पुरुष है सो सर्वज्ञकू मानि करि ताके वचन” धर्मका स्वरूप निश्चय करि अंगीकार करौ ॥ ३०३॥ तेणुवइट्टो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो वारहभेओ दसभेओ भासिओ विदिओ ३०४ __भाषार्थ-तिस सर्वज्ञकरि उपदेस्या धर्म है सो दोय प्रकार है. एक तौ संगासक्त कहिये गृहस्थका अर एक असंग कहिये मुनिका. तहां पहला गृहस्थका धर्म तौ बारह भेदरूप है. बहुरि दुना मुनिका धर्म दश भेदरूप है ॥ ३०४॥ आगें गृहस्थके धर्मके बारह भेदनिके नाम दोय गाथा सम्मदसणसुद्धो रहिओ मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइओ पव्ववई पासु आहारी ॥ ३०५॥ राईभोयणविरओ मेहुणसारंभसंगचचो य । कज्जाणुमोयविरओ उद्दिट्टाहारविरओ य ॥ ३०६॥ भाषार्य-सम्पग्दर्शन हैं शुद्ध जाकै ऐसा, १ मद्य आदि Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) स्थूल दोषनित रहित दर्शन प्रतिमाका धारी, २ पांच अणुव्रततीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत ऐसे बार व्रतनिसहित व्रतधारी,३ तथा समायिकवती, ४ पर्वती, ५ मासुकाहारी ६ रात्रीभोजनत्यागी, ७ मैथुनत्यागी, ८ आरंभत्यागी, ९ परिग्रहत्यागी, १० कार्यानुमोदविरत ११ अर उद्दिष्टाहारविरत, १२ इसप्रकार श्रावकधर्मके १२ भेद हैं. भावार्थ-पहला भेद तौ पच्चीसमलदोषरहित शुद्धअविरतसम्यग्दृष्टी है. बहुरि ग्यारह भेद प्रतिमानके व्रतनिकरि सहित होंय सो व्रती श्रावक है ॥ ३०५-३०६ ॥ आगे इनि बारहनिका स्वरूप प्रभृतिका व्याख्यान करै हैं. तहां प्रथम ही अविरत सम्यग्दृष्टीका कहै हैं. तहां भी पहले सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यताका निरूपण करै हैं,चउगदिभव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाणपज्जचो। संसारतडे नियडो णाणी पावेह सम्मत्वं ॥ ३०७॥ भाषार्थ-ऐसा जीव सम्यक्त्वकू पावै है. प्रथम ही भव्य जीव होय ना अभव्यकै सम्यक्त्व होय नाही. बहुरि च्यारूं ही गतिविष सम्यक्त्व उपजे है तहां भी मन सहित सैनीकै उपजै है. असनीकै उपजे नाही. तहां भी विशुद्ध परिणामी होय, शुभ लेश्या सहित होय, अशुभ लेश्यामें भी शुभ लेश्यासमान कषायनिके स्थानके होय तिनिक विशुद्ध उपचारकरि कहिये संक्लेश परिणामनिविषै सम्यक्त्व उपजे नाही. बहुरि जागताकै होय. भूताकै नाही होय. बहुरि प Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) प्तिपूर्णकै होय, अपर्याप्त अवस्थामें उपजै नाही. बहुरि सं. सारका तट जाकै निकट आया होय निकट भव्य होय, अ पुद्गल परावर्तन काल पहलै सम्यक्त्व उपजै नाही. बहुरि ज्ञानी होय साकार उपयोगवान होय निराकार दर्शनो. पयोगमें सम्यक्त्व उपजै नाहीं ऐसे जीवकै सम्यक्त्वकी उ. त्पत्ति होय है ॥ ३०७॥ भागें सम्यक्त्व तीन प्रकार है. तिनिमें उपशम सम्यक्व पर क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति कैसे है सो कहै हैं,सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो य होइ खइयं केवलिमूले मणुसस्स ॥३०॥ ___ भाषार्थ-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिध्यात्व, अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इनि सात मोहकमकी प्रकृतिनिके उपशम होते उपशम सम्यक्त्व होय है अर इनि सातों मोहकर्मकी प्रकृतिका क्षय होनेः क्षायिक सम्यक्त्व उपजे है. सो यह क्षायिक सम्क्त्व केवलि कहिये केबलज्ञानी तथा श्रुतकेवलीकै निकट कर्मभूमिके मनुष्यकै ही उपजै है, भावार्थ-इहां ऐसा जानना जो क्षायिक सम्यक्त्व. का प्रारम्भ तौ केवलि श्रुतकेवलीके निकट मनुष्यकै ही होय है. अर निष्ठापन अन्यगतिमें भी होय है ॥ ३०८॥ प्रागें क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होय सो कहै हैं,अणउदयादो छहं सजाइरूवेण उदयमाणाणं । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) 'सम्मत्तकम्मउदए खयउवसमियं हवे सम्मं ॥ ३०९ || भाषार्थ- पूर्वोक्त सात प्रकृति तिनिमेंसूं छह प्रकृतिनिका उदय न होय तथा सजाति कहिये समान जातीय प्रकृतिकरि उदयरूप होय बहुरि सम्यक् कर्म प्रकृतिका उदय sia क्षायोपशमिक होय. भावार्थ- मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वका तीव्र उदयका अभाव होय घर सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होय अर अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभका उदयका प्रभाव होय तथा विसंयोजनकरि अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूपकरि उदयमान होय तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उप है, इनि तीनूं ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विशेष कथन गोमट्टसार लब्धिसारतें जानना ॥ ३०९ ॥ मागें औपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अर अनंतानुवधीका विसंयोजन भर देशव्रत इनिका पावना अर छूटि जाना उत्कृष्टकरि कहै हैं, gapant गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंखवाराओ । पढमकसायाविणासं देसवयं कुणइ उक्किट्ठे ॥ ३१०॥ भाषार्थ - यह जीव औपशमिक क्षायोपशमिक ए दोष तौ सम्यक्त्व अर अनंतानुबन्धीका विनाश विसंयोजन अप्रत्याख्यानादिरूप परिणमावना अर देशव्रत इनि व्यारिनिकं असंख्यातवार ग्रहण करें है अर छोडे है. यह उत्कृष्टकरि कया है. भावार्थ- पल्यका श्रसंख्यातवां भाग परिमाण जो ११ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) असंख्यात तेतीवार उत्कृष्टपणे ग्रहण करै अर छोडे पीछे मुक्ति प्राप्ति होय ॥ ३१०॥ प्रागें ऐसे सप्त प्रकृतिके उपशम सय क्षयोपशमते उपज्या सम्यक्त्व कसैं जाणिये ऐसा तत्वार्थश्रद्धानकौं नव गाथानिकरि कहै हैं,जो तश्चमणेयतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहि । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटुं च ॥ ३११ ॥ जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं । सुदणाणेण णयहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२ भाषार्थ-जो पुरुष सप्तभंगनिकरि अनेकांत तत्त्वनिका नियात श्रदान करे, जाते लोकनिका प्रश्नके वश विधिनिषेधन वचनके सात ही भंग होय हैं तातै व्यवहारके प्रब नेके अर्थि भी सातभंगनिका वचनकी प्रवृत्ति होय है. 4हुरि नो जीव अजीव आदि नवप्रकार पदार्थकौं श्रुतज्ञान प्रमाणकरि तथा तिसके भेद जे नय तिनिकरि अपना प्रादर मन उद्यमकरि मान श्रद्धान करै सो शुद्ध सम्यग्दृष्टी है. भावार्थ-वस्तुका स्वरूप अनेकांत है. जामें अनेक अंत कहिये धर्म होय सो अनेकान्त कहिये. ते धर्म अस्तित्व नास्तित्व एकत्व अनेकत्व नित्यत्व अनित्यत्व भेदत्व अभेदत्व अपेक्षात्व वैवसाध्यत्व पौरुषसाध्यत्व हेतुसाध्यत्व आगमसाध्यत्व अंतरगत्व बहिरंगत्व इत्यादि तो सामान्य हैं. बहुरि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) द्रव्यत्य पर्यायस्व जीवत्व अजीवत्व स्पर्शत्व रसत्व गन्धत्व व. र्णत्व शब्दत्व शुद्धत्व अशुद्धत्व मूर्तत्व अमूर्चत्र संसारित्व सिद्धत्व अवगाहत्व गतिहेतुत्व स्थितिहेतुत्व वर्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं: सो तिनिके प्रश्नके वशते विधिनिषेधरूप वचनके सात भंग होय हैं. तिनिकै ' स्यात् । ऐसा पद लगावणा. स्यात् नाम कथंचित कोईप्रकार ऐसा अर्थमें है. तिसकरि वस्तुकौं अनेकान्त साधणा. तहां बस्तु स्यात् अस्तित्वरूप है, ऐसे कोईप्रकार अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि अस्तित्वरूप कहिये है. बहुरि स्यात् नास्तित्वरूप है, ऐसे पर वस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि नास्तित्वरूप कहिये है. बहुरि वस्तु स्यात् अस्तित्व नास्तित्वरूप है, ऐसे वस्तुमें दोऊ ही धर्म पाइये हैं अर वचनकरि क्रमतें कहे जाय हैं, बहुरि स्यात् अवक्तव्य है. ऐसे वस्तुमें दोऊ ही धर्म एक काल पाइये है तथापि एक काल वचनकरि कहे न जाय हैं तारै कोई प्रकार प्रवक्तव्य है. बहुरि अस्तित्व करि कया जाय है दोऊ एक काल हैं, तातें कहा न जाय ऐसे वक्तव्य भी है पर अवक्तव्य भी है तातें स्यात् अस्तित्व प्रवक्तव्य है. ऐसे ही नास्तित्व अवक्तव्य कहना. बहुरि दोऊ धर्म क्र. मकरि कहा जाय युगपत् कह्या न जाय तातै स्यात् अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य कहना. ऐसे सात ही भंग कोई प्रकार संभव है. ऐसे ही एकत्व अनेकत्व आदि सामान्य धर्मनिपरि सात भंग विधिनिषेधत लगावणा. जैसे २ जहां अपेक्षा सं. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) भवे सोलगावणी. बहुरि तैसें ही विशेषत्व धर्म जीवत्व आदिमें लगावना जैसे जीव नामा वस्तु सो स्यात् जीवत्व स्यात् अजीवत्व इत्यादि लगावणा. तहां अपेक्षा ऐसें जो अपना जीवत्व धर्म आपमें है तातें जीवत्व है. पर अजीवका अजीवत्व धर्म या नाहीं तौऊ अपने अन्य धर्मको मुख्य करि कहिये ताकी अपेक्षा अजीवत्व है इत्यादि लगावणा. तथा जीव अनन्त हैं ताकी अपेक्षा अपना जीवस्व आपमें परका जीवत्व यामें नाहीं है. तातै ताकी अपेक्षा अजीवत्व है ऐसे भी सधै है. इत्यादि अनादि निधन अनन्त जीव अजीव वस्तु हैं, तिनिविषै अपने अपने द्रव्यत्व पर्यायत्व अनन्त धर्म हैं तिनि सहित सप्त भंगरौं साधना. तथा तिनिके स्थूल प. र्याय हैं ते भी चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होय हैं- जैसे जीव संसारी सिद्ध, बहुरि संसारीमें त्रस यावर, तिनिमें मनुष्य तियच इत्यादि. बहुरि पुद्गलमें अणु स्कन्त्र तथा घट फ्ट आदि, सो इनिकै भी कचित् वस्तुपणा संभव है. सो भी तेसैं ही सप्तभंगतै साधणा. बहुरि तैसें ही जीव पुद्गलके संयोग” भये आस्रव बंध संवर निर्जरा पुण्य पाप मोक्ष आदि भाव तिनिमें भी बहुत धर्मपणाकी अपेक्षा तथा परस्पर विधिनिषेधत अनेक धर्मरूप कथंचित वस्तुपणा संभवै है. सो सप्तभंगतै साधणा. जैसे एक पुरुषमैं पिता पुत्र मामा भाणजा काका भतीजापणा आदि धर्म संभवै हैं. सो अपनी अपनी अपेक्षातें Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) विधिनिषेधकरि सात भंगरौं साधणा. ऐसा नियमकरि जानना, जो वस्तुमात्र अनेक धर्म स्वरूप है सो सर्वकू अ -नेकांत जाणि श्रद्धान करै, बहुरि तैसे ही लोककेविर्षे व्यवहार प्रवर्तावै सो सम्यग्दृष्टी है. बहुरि जीव अजीव प्रा. स्रव बन्ध पुण्य पाप संवर निर्जरा मोक्ष ये नव पदार्थ हैं तिनिङ तैसे ही सप्तभंगत साधने. ताका साधन श्रुतज्ञान प्र. माण है. अर ताके भेद द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तिनिके भी भेद नैगम संग्रह व्यवहार अजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत नय हैं. बहुरि तिनिके भी उत्तरोत्तर भेद जेते वचनके प्रकार हैं तेते हैं, तिनिकू प्रमाणसप्तभंगी अर नयसप्तभंगीके विधानकरि साधिये है. तिनिका कथन पहले लोकभावना में कीया है. बहुरि तिसका विशेष कथन तत्वार्थसूत्रकीटीकातें जानना. ऐसे प्रमाण नयनिकरि जीवादि पदार्थनिकू जानिकरि श्रद्धान करे सो शुद्ध सम्यग्दृष्टी होय है. बहुरि इहां यह विशेष और जानना जो नय हैं ते वस्तुके एक २ धर्मके ग्राहक हैं ते अपने अपने विषयरूप धर्मकू ग्रहण करनेविष समान हैं तोऊ पुरुष अपने प्रयोजनके वश” तिनिकौं मुख्य गौणकरि कहै हैं जैसें जीव नामा वस्तु है तामैं अनेक धर्म हैं. तौऊ चेतनपणा आदि प्राणधारणपणा अजीवनित असाधारण देखि तिनि अजीवनित न्यारा दिखावनेके प्रयोजनके वश मुख्यकरि वस्तुका जीव नाम धरथा. ऐसे ही मुख्य गौण करनेका सर्व धर्मके प्रयोजनके वशतें जानना. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) इहां इस ही आंशयतें अध्यात्म कथनीविष मुख्या तौ निश्चय कह्या है. अर गौणकू व्यवहार कह्या है. नहां अभेद धर्म तौ प्रधानकरि निश्चयका विषय कह्या. अर भेद नयकू गौणकरि व्यवहार कह्या सो द्रव्य तौ अभेद है. तातै निश्चयका आश्रय द्रव्य है. बहुरि पर्याय भेद रूप है. तातें व्यवहारका आश्रय पर्याय है तहां प्रयोजन ऐसा जो भेदरूप वस्तुकू सर्व लोक जाने है. तातै जो जानै सो ही प्रसिद्ध है. याहीत लोक पर्यायबुद्धि हैं. जीवकै नरनारक आदि पयाय हैं. तथा राग द्वेष क्रोध मान माया लोभ श्रादि पर्याय हैं, तथा ज्ञानके भेदरूप मतिज्ञानादिक पर्याय हैं तिनि पर्यायनिहीकौं लोक जीव जाने हैं. तातै इनि पर्यायनिविषे अभेदरूप अनादि अनन्त एकभाव जो चेतना धर्म ताकौं ग्रहणकरि निश्चय नयका विषय कहिकरि जीव द्र. व्यका ज्ञान कराया. पर्यायाश्रित जो भेद नय ताकौं गौण कीया. तथा अभेद दृष्टिमें यह दीखे नाहीं तातै प्रभेद नयका हड़ श्रद्धान करावनेकौं कहा जो पर्याय नय है सो व्य. पहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है. सो भेद बुद्धिका एकांत निराकरण करनेके अर्थ यह कहना जानना. ऐसा नाहीं कि यह भेद है, सो असत्यार्य करा. जो वस्तुका स्वरूप नाही है जो ऐसे सर्वथा माने तो अनेकांतमें समझा नाहीं सर्वथा एकांत श्रद्धानत मिथ्यादृष्टी होय है. जहां अध्यात्मशास्त्र निविष निश्चय व्यवहार नय कहे हैं तहां भी विनि दोऊ: Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) निका परस्पर विधिनिषेधर्तें सप्तभंगकरि वस्तु साधणा. एक कौं सर्वथा सत्यार्थ माने अर एककौं सर्वथा असत्यार्थ मान तौ मिथ्या श्रद्धान होय है, तातैं तहां भी कथंचित् जानना. बहुरि अन्य वस्तु अन्य विषै आरोपणकरि प्रयोजन साधिये है तहां उपचार नय कहिये है सो यह भी व्यवहारविषै ही गर्भित है ऐसें कहा है. जो जहां प्रयोजन निमित्त होय तहां उपचार प्रवर्त्ते है. घृतका घट कहिये तहां माटीका वडा श्राश्रय घृत भरया होय तहां व्यवहारी जननिकूं आधार आधेय भाव दीखें है ताकूं प्रधानकरि कहिये है, जो घृतका घडा है ऐसें ही कहें लोक समझें. घर घृतका घडा मगावै तब तिसकूं ले आवै, तातें उपचारविषै भी प्रयोजन संभव है ऐसे ही अभेद नयकूं मुख्य करै तहां प्रमेद दृष्टिमें भेद दीखे नाहीं तब तिसमैं ही भेद कहै सो असत्यार्थ है तहां भी उपचारसिद्धि होय है यह मुख्य गौणका भेदकं सम्यग्ध्ष्टी जाने है. मिथ्यादृष्टी अनेकांत वस्तुकूं जानै नाहीं. भर सक्या एक धर्म ऊपरि दृष्टि पडै तब तिसहीकूं सर्वथा वस्तु मानि अन्य धर्मकूं के तौ सर्वथा गौणकरि असत्यार्थ माने, के सर्वथा अन्य धर्मका अभाव ही मानै, तथा मिथ्यात्र दृढ होय है सो यह मिध्यात्वनामा कर्मकी प्रकृतिके उदय य थार्थ श्रद्धा न होय है तातें तिस प्रकृतिका कार्य है सो भी मिथ्यात्व ही कहिये है. भर तिस प्रकृतिका प्रभाव भये तवार्थका यथार्थ श्रद्धान होय है सो यह अनेकान्त वस्तुविषै Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण नयकरि सात भंगकरि साध्या हुवा सम्यक्त्वका कार्य है. तातें याकू भी सम्यक्त्व ही कहिये. ऐसें जानना. जिनमतकी कथनी अनेक प्रकार है सो अनेकान्तरूप समझना. अर याका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेयकी बुद्धि अर वीतरागताकी प्राप्ति है. सो इस कथनिका मर्म पावना बढे भाग्य” होय है. इस पञ्चम कालमें अबार इस कथनीका गुरुका निमित्त सुलभ नाहीं है तातै शास्त्र समझनेका निरन्तर उद्यम राखि समझना योग्य है. जाते याके श्राश्रय मुख्यपण सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति है. यद्यपि जिनेन्द्रकी प्रतिमाका दर्शन तथा प्रभावना अंगका देखना इत्यादि सम्यक्त्वकी प्राप्ति• कारण है तथापि शास्त्रका श्रवण करना, पढना, भावना करना, धारणा, हेतुयुक्तिकरि स्वमत परमतका भेद जानि नयविवक्षाकू समझना वस्तुका अनेकान्तस्वरूप निश्चय करना मुख्य कारण हैं. तातें भव्य जीवनि• इसका उपाय निरन्तर राखणा योग्य है। श्रागें कहै हैं जो सम्यग्दृष्टी भये अनन्तानुबंधी कषाय का प्रभाव होय है ताके परिणाम कैसे होय हैं,जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्तकलचाइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमित्रं ३१३ भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी होय है सो पुत्र कलत्र आदि सर्व परद्रव्य तथा परद्रव्यनिके भावनिविषै गर्व नाहीं करें हैं. परद्रव्यतै आपकै बढापणा मानै तौ सम्यक्त्व काहेका. बहुरि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) उपशम भावनिकू भावे है अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी तीव्र रागद्वेष परिणामके प्रभावतें उपशम भावनिकी भावना निरन्तर राखे है बहुरि अपने श्रात्माकूं तृण समान हीण माने है जातें अपना स्वरूप सौ अनन्त ज्ञानादिरूप है, सो जेवे तिसकी प्राप्ति न होय तेतै आपकं तृणबराबरी माने है. का हू विषै गर्व नाहीं करे है || ३१३ ॥ विसयासतो विसया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि । मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥ ३१४ ॥ भाषार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टी यद्यपि इन्द्रिय विषयनिविषयासक्त है बहुरि त्रस यावर जीबके घात जामें होंय ऐसे सर्व प्रारम्भविषै वर्तमान है. अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायनिके तीव्र उदयनित बिरक्त न हुवा है तौऊ ऐसा जा है कि यह मोहकर्मका उदयका विकास है. मेरे स्वभावमें नहीं है उपाधि है रोगवत है त्यजने योग्य है, वर्चमान कषायनिकी पीडा न सही जाय है तातें असमर्थ हूवा विषयनिका सेवना तथा बहु प्रारंभ में प्रबचना हो है ऐसा माने है ॥ ३१४ ॥ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो । साहम्मियअणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ॥ ३१५ ॥ भाषार्थ - बहुरि कैसा है सम्यग्दृष्टी उत्तम गुण जे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप श्रादिक तिनिविषै तौ अनुरागी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७० ) होय. बहरि तिनि गुणनिके धारक जे उत्तम साध विनिके विनयकरि संयुक्त होय, बहुरि भाप समान जे सम्यग्दृष्टी साधर्मी तिनिविष अनुरागी होय, वात्सल्यगुणसहित होय, सो उत्तम सम्यग्दृष्टी होय है. ए तीणू भाव न होंय तौ नानिये याकै सम्यक्त्वका यथार्थपणा नाही ।। ३१५ ॥ देहमिलियं पि जीवणियणाणगुणेण मुणदिजो भिषणं जीवमिलियं पि देहं कंचुअसरिसं वियाणेई ॥३१६॥ भाषार्थ-यह जीव देहतै मिलि रहा है तौऊ अपना ज्ञानगुण जाणे है. तातै प्राप• देह भिन्न ही जाणै है. बहुरि देह जीव मिलि रहा है तोऊ ताकं कंचुक कहिये कपडेका जामासारिखा जाणै है जैसे देहत जामा भिन्न है तैसे जीवतै देह भिन्न है. ऐसें जाणै है॥ ३१६ ॥ णिज्जियदोसं देवं सव्वाजवाणं दयावरं धम्म । वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदिसो हु सददिठ्ठी ३१७ ____ भाषार्थ-जो जीव दोषवर्जित तौ देव माने बहुरि सर्व जीवनिकी दयाकं श्रेष्ठ धर्म मान. बहुरि निग्रन्थ गुरुवं गुरु मानै सो प्रगटपणे सम्यग्दृष्टी है. भावार्थ-सर्वज्ञ वीतराग अ. ठारह दोषनिकरि रहित देवकू माने, अन्य दोषसहित देव हैं तिनिळू संसारी जारी, ते मोक्षमार्गी नाहीं, ऐसा जानि बंदै पूजे नाही. तथा अहिंसारूप धर्म जानै, यज्ञादि दे. क्वानिकै अर्थ पशुपातकरि चढावै वाकू धर्म माने हैं. विसकों Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) पाप ही जानि आप तिसविष नाहीं प्रवर्ते. बहुरि जे ग्रन्थ. सहित अनेक भेष अन्यमतीनके हैं तथा काल दोषतें जैनमतमें भी भेष भये हैं तिनि सर्वनिकौं भेषी पाषंडी जान, वंदै पूजे नाही. सर्व परिग्रहत रहित होय तिनिहीकू गुरु मानि बन्दै पूज, जातें देव गुरु धर्मके प्राश्रय ही मिथ्या सम्यक उपदेश प्रवत है. सो कुदेव कुधर्म कुगुरुका बन्दना पूजना तो दूर ही रहौ तिनिके संसर्गहीत श्रद्धान विगडै है. तातै सम्यग्दृष्टी तिनिकी संगति भी न करे । स्वामी समन्तभद्र भाचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें ऐसे कया है, जो सम्यग्दृष्टी है सो कुदेव कुत्सित आगम पर कुलिंगी भेषी तिनिक भयते तथा किछू पाशाते तया लोभतें भी प्रणाम तथा तिनिका विनय न करै इनिका संसर्गत श्रद्धान विगडै है, धमकी प्राप्ति तो दुरि ही रहौ. ऐसा जानना। ___ आगे मिथ्यादृष्टी कैसा होय सो कहै हैं,दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइसंजुदं धम्म । गंथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुट्ठिी ३१८ भाषार्थ-जो जीव दोषनिसहित देवनिक तौ देव माने बहुरि जीवहिंसादिसहितकं धर्म मान, बहुरि परिग्रहकेविष आशककं गुरु मानै, सो प्रगटपणे मिथ्यादृष्टी है. भावार्थभाव मिथ्यादृष्टी तौ अदृष्ट छिप्या मिथ्याती है. बहुरि जो कुदेव राग द्वेष मोह आदि अठारह दोषनिकरि सहितकं देव मानिकरि पूजे बन्दै हैं, अर हिंसा जीवघात प्रादिकरि धर्म Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) मानें हैं बहुरि परिग्रहकेविष प्रासक्त ऐसे भेषीनिक गुरु माने हैं ते प्रगट प्रसिद्ध मिथ्यादृष्टी हैं। आगे कोई कहै कि व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी दे हैं, उपकार करै हैं तिनिकौं पूर्णं वन्दै कि नाही ताकू कहै हैं । णय को विदेदिलच्छी ण को वि जीवस्स कुणइ उवयार उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥३१९॥ ____ भाषार्थ-या जीव... कोई व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी नाही देवै है बहुरि कोई अन्य उपकार भी नाहीं करै है. जीवके पूर्वसंचित शुभ अशुभ कर्म हैं ते ही उपकार तथा अपकार करै हैं. भावार्थ-केई ऐसे मान है जो व्यंतर आदि देव हमकू लक्ष्मी दे हैं हमारा उपकार करै हैं सो तिनिकू हम पूजै वन्दै हैं. सो यह मिथ्या बुद्धि है. प्रथम तौ अवार कालमें प्रत्यक्ष कोई व्यंतर आदि श्राप देता देख्या नाही. उपकार करता दीखै नाहीं जो ऐसे होय तो पूजनेवाले दरिद्री रोगी दुःखी काहेकू रहैं. तातै वृथा कल्पना करै हैं. बहुरि परोक्ष भी ऐसा नियमरूप सम्बन्ध दीख नाहीं जो पूजै तिनिक अवश्य उपकारादिक होय ही. ताः यह मोही जीव वृथा ही विकल्प उपजाबै है. जो पूर्वकर्म शुभाशुभ संचित हैं सो ही या प्राणीकै सुख दुःख धन दरिद्र जीवन मरन• करै हैं ॥३१९॥ भत्तीए पुज्जमाणो वितरदेवो वि देदि जदि लच्छी। तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेइ सट्ठिी ॥३२०॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३) भाषार्थ-सम्यग्दृष्टी ऐसे विचारै जो व्यंतर देव ही भक्तिकरि पूज्या हवा लक्ष्मी दे है तौ धर्म काहेकू कीजिये. भावार्थ-कार्य तौ लक्ष्मी” है सो व्यंतर देव ही पूजेते लक्ष्मी दे तो धर्म काहेकू सेवना ? बहुरि मोक्षमार्गके प्रकरणमें संसारकी लक्ष्मीका अधिकार भी नाहीं तातै सम्यग्दृष्टी तौ मोक्षमार्गी है. संसारकी लक्ष्मीकू हेय जानै है ताकी वांछाही न करें है. जो पुण्यका उदयतें मिलै तौ मिलौ, न मिलै. तौ मति मिलौ, मोक्षहीके साधनेकी भावना करै है. ताते संसारीक देवादिककू काहे• पूजै बन्दै ? कदाचित हू नाही' पूजै बन्दै ॥ ३२०॥ श्रागें सम्यग्दृष्टीकै विचार होय सो कहै हैं,जं जस्स जम्मिदेसे जेण विहाणेण जम्मि कालाम्मा णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ३२१ तं तस्स ताम्म देसे तेण विहाणेण ताम्म कालम्मि। को सक्कइ चालढुं इंदो वा अह जिणिंदो वा ३२२ ___भाषार्थ-जो जिस जीवकै जिस देशविषै जिस कालविपै जिस विधानकरि जन्म तथा मरण उपलक्षणते दुःख सुख रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञ देवनें जागया है जो ऐसे ही नियक करि होयगा, सो ही तिस प्राणीकै तिस ही देशमें तिसही कालमें तिस ही विधानकरि नियमतें होय है. ता इन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थकर देव कोई भी निवारि नाही सके है.. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्य- सर्वज्ञ देव सर्वे द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अवस्था नाण है. सो जो सर्वज्ञके ज्ञानमें प्रतिमास्या है सो नियमकरिहोय है तामें अधिक हीन किछु होता नाहीं ऐसे सम्यदृष्टी विचार है ।। ३२१-३२२ ।। ___आगें ऐसे बौ सम्यग्दृष्टी है अर यामें संशय करै सो मिथ्यादृष्टी है ऐसें कहै हैं,- - एवं जो णिच्चयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपजाए । सो सद्दिट्ठो सुद्धो जो संकदि सो हुँ कुदिट्ठो ३२३ ___ भाषार्थ-या प्रकार निश्चयते सर्व द्रव्य जीव पुद्गल धर्म अधर्म प्राकाश काल इनिकू बहुरि इनि द्रव्यनिकी सर्व पर्यायनिकू सर्वझके प्रागमके अनुसार जाणे है श्रदान करै है सो शुद्ध सम्यग्दृष्टी होय है. बहुरि ऐसे श्रद्धान न करैशंका संदेह कर है सो सर्वशके आगमतै प्रतिकूल है प्रगटपणे मिथ्यादृष्टी है ॥ ३२३ ॥ प्रागें कहै हैं जो विशेष तत्त्वकू नाहीं जान है अर जिनवचनविष प्राज्ञा मात्र श्रद्धान कर है सो भी श्रद्धावान कहिये है,-- जोण वि जाणइ तच्चंसोजिणवयणे करेइ सदहणं जंजिणवरेहिं भाणयं तं सव्वमहं समिच्छामि ३२४ ___ भाषार्थ-जो जीव अपने ज्ञानावरणके विशिष्ट क्षयोपशमाविना तथा विशिष्ट गुरुके संयोगविना तत्त्वार्थकू नाही Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) जान सकें हे सो जीव जिनवचनविषे ऐसें श्रद्धान करे है जो जिनेश्वर देवने जो तत्त्व कहया है, सो सर्व ही मैं भले प्रकार इष्ट करूं हूं ऐसे भी श्रद्धावान् होय हैं. भावार्थ - जो जिनेश्वरके बचनकी श्रद्धा करें है जो सर्वज्ञ देवने कहा है सो सर्व मेरे इष्ट है. ऐसें सामान्य श्रद्धातें भी भाता सम्यक्त्व का है ॥ ३२४ ॥ मार्गे सम्यक्त्वका माहात्म्य तीन गाथाकरि कहे हैं, - रयणाण महारयणं सव्वजोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धियरं ॥ ३२५॥ भावार्थ - सम्यक्त्व है सो रत्ननिविषै तौ महारत्न है बहुरि सर्व योग कहिये वस्तुकी सिद्धि करनेके उपाय, मंत्र, ध्यान आदिक तिनिमें उत्तम योग है जातैं सम्यक्त्वतैं मोक्ष सधै है . बहुरि अणिमादिक ऋद्धि हैं तिनिमें बडी ऋद्धि है बहुत कहा कहिये सर्वसिद्धि करनेवाला यह सम्यक्त्व ही है। सम्मत्तगुणप्पहाणी देविंदणरिंदवदिओ होदि । चत्तवयो वि य पावड़ सग्गसुहं उत्तमं विविहं ३२६ भाषार्थ - सम्यक्त्व गुणकरि सहित जो पुरुष प्रधान है सो देवनि इन्द्रनिकरि तथा मनुष्यनिके इन्द्र चक्रवर्त्यादिकरि बन्दनीय हो हैं . बहुरि व्रतरहित होय तौक उद्यम नानो प्रकारके स्वर्गके सुख पावै है. भावार्थ- जामें सम्यक्त्र गुण होय सो प्रधान पुरुष है देवेन्द्रादिककरि पूज्य होय है. ब Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) हुरि सम्यक्त्वमें देवहीकी आयु बांधै है तातै व्रतरहितकै भी स्वर्गहीका जाना मुख्य कह्या है. बहुरि सम्यक्त्वगुणप्रधानका ऐसा भी अर्थ होय है जो सम्यक्त्व पच्चीस मल दोषनितें रहित होय अपने निशकित आदि गुणनिकरि सहित होय तथा संवेगादि गुणनिकार सहित होय ऐसे सम्यक्त्वके गुणनिकरि प्रधान पुरुष होय सो देवेन्द्रादिकरि पूज्य होय है अर स्वर्गक प्राप्त होय है ॥ ३२६ ।। सम्माइट्टी जीवो दुग्गइहेतुं ण बंधदे कम्मं । जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ॥३२७॥ __ भाषार्थ-सम्यग्दृष्टा जीव है सो दुर्गतिका कारण जो अशुभ कर्म ताकू नाहीं बांधे है. बहुरि जो पापकर्म पूर्वं बहुत भवनिविषै बांध्या है तिमका भी नाश करै है. भावार्थ-सभ्यग्दृष्टी मरणकार द्वितीयादिक नरक जाय नाही. ज्योतिष व्यंतर भवनवासी देव होय नाही. स्त्री उपजै नाही. पांच थावर विकलत्रय असैनी निगोद म्लेच्छ कुभोगभूमि इनिविष उपजै नाही. जात याकै अनन्तानुबंधी के उदयके अभा. वते दुर्गातके कारण कषायनिके स्थानकरूप परिणाम नाहीं हैं इहां तात्पर्य ऐसा जानना जो तीनकाल तीन लोकविष स. म्यक्त्व समान कल्याणरूप अन्य पदार्थ नाहीं है. बहुरि मि. ध्यात्वसमान शत्रु नाहीं है. तातै श्रीगुरुनिका यह उपदेश है बो अपना सर्वस्व उद्यम उपाय यत्नकरि मिथ्यात्वका नाश Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) करि सम्यक्त्व अंगीकार करना. ऐसे गृहस्थधर्मके बारह भेदनिमें पहला भेद सम्यक्त्वसहितपणा है ताका निरूपण किया ॥३२७ ॥ आगे ग्यारह भेद प्रतिमाके हैं तिनिका स्वरूप कहै हैं तहां प्रथम ही दार्शनिक नामा श्रावककू कहै हैं,बहुतससमण्णिदं जं मज मंसादिाणदिदं दव्वं । जो ण य सेवदि णियमा सो दंसणसावओहोदि३२८ भाषार्थ-बहुत त्रस जीवनिके घातकार तथा निकरि सहित जो मदिग तथा अति निन्दनीक जोमांस भादि द्रव्य तिनिङ जो नियमन सेवै, भक्षण न करै सो दार्शनिक श्रावक है. भावार्थ-पदिरा अर मांस अर आदि शब्दतै मधु अर पंच उदंबर फन ए वस्तु बहुत प्रस जीवनिके घातकरि सहित हैं तातें दार्शनिक श्रावक है सो तिनिक भक्षण न करे। मद्य तौ मनकू मोहै है तब धर्मकू भूलै है. बहुरि मांस त्रस घातविना हाय ही नाही. मधुकी उत्पत्ति प्रसिद्ध है उस घातका ठिकाणा ही है. बहुरि पाल बड पीलू फलनिमें प्र. त्यक्ष त्रस जीव उडते देखिये हैं। अन्य ग्रंथनिमें कड्या है जो एश्रावकके आठ मूल गुण हैं अर इनिळू त्रस हिंसाके उपलक्षण कहे हैं तातै जिनि वस्तुनिमें त्रसहिंसा बहुत होय ते श्रावकके अभक्ष्य हैं. ताते भक्षण योग्य नाही. तथा सात विसन अन्याय प्रवृत्तिका मूल हैं तिनिका भी त्याग इहां कहया है. जूवा मांस मद वेश्श सिकार चोरी परस्त्री ए सात व्य Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) सन कहे हैं. सो व्यसन नाम आपदा वा कष्टका है सो इनिके सेवनहारेकू आपदा आवै है, राज पंचनिका दंडयोग्य होय है तथा तिनिका सेवन भी आपदा वा कष्टरूप है, श्रावक ऐसे अन्याय कार्य करै नाही. इहां दर्शन नाम सम्य. क्त्वका है तथा धर्मकी मूर्ति सर्वके देखनेमें श्रावै ताका भी नाम दर्शन है. सो सम्यग्दृष्टी होय जिनमतकू सेवै अर अभक्ष अन्याय अंगीकार करै तौ सम्यक्त्वकू तथा जिनमतकों लजावै मलिन करै ताते इनिकौं नियमकरि छोडे ही दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक होय है ॥ ३२८॥ दिढचित्तो जो कुव्वदि एवं पि वयं णियाणपरिहीणो वेरग्गभावियमणो सो वि य दसणगुणो होदि ३२९ भाषार्थ-ऐसे व्रत; दृढाचत्त हूवा संता, निदान कहिये इह लोक परलोकनिके भोगनिकी बांछा ताकरि रहित हूवा संता वैराग्यकार भावित (आला ) है चित्त जाका, ऐसा हुवा संता जो सम्यग्दृष्टी पुरुष कर है सो दार्शनिक श्रावक कहिए है । भावार्थ-पहिली गाथामें श्रावक कह्या ताके ए तीन विशेषण और जानने. प्रथम तौ दृढचित्त होय परीषह आदि कष्ट आवै तौ व्रतकी प्रतिज्ञात चिगै ना. हीं, बहुरि निदानकरि रहित होय पर इस लोकसम्बन्धी जस सुख संपत्ति वा परलोकसम्बन्धी शुभगतिकी बांछा रहित पैराग्य भावनाकरि चित जाका आला कहिये सींच्या होय अभक्ष अन्यायकू अत्यन्त अनर्थ जाणि त्याग करै ऐसा नाही Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७९) जो बास्त्रमें त्यागने योग्य कहे तातें छोडने, परिणाममें राग मिटै नाही त्यागके अनेक आशय होय हैं सो याकै अन्य प्राशय नाही केवल तीवू कषायके निमित्त महापाप जानि त्यागै है इनिकं त्यागे ही आगामी प्रतिमाके उपदेशयोग्य होय है. वृती निःशल्य कह्या है सो शल्परहित त्याग होय है ऐसे दर्शनप्रतिमाघारी श्रावकका स्वरूप कह्या ॥ २३० ॥ आगे दुजी व्रतप्रतिमाका स्वरूप कहै हैं,पंचाणुव्वयधारी गुणवयसिक्खावएहिं संजुत्तो । दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावओ होदि ३३० भाषार्थ-जो पांच अणुब्रतका धारी होय बहुरि गुणव्रत तीन अर शिक्षाबत च्यारि इनिकरि संयुक्त होय बहुरि दृढचित होय बहुरि समभावकरि युक्त होय बहुरि ज्ञानवान होय सो व्रत प्रतिमाका धारक श्रावक है. भावार्थ-इहां अणु शब्द अल्पका बाचक है जो पंच पापमें स्थूल पाप हैं तिनिका त्याग है. तातें अणुव्रत संज्ञा है. बहुरि गुणव्रत अर शिक्षाव्रत तिनि अणुव्रतनिकी रक्षा करनहारे हैं तात अणुव्रती निनिकू भी धारै हैं. याकै प्रतिज्ञा व्रतकी है सो दृढचित्त है कष्ट उपसर्ग परीषद भाये शिथिल न होय है. ब. हुरि अप्रत्याख्यानावरण कषायके प्रभावतें ये व्रत होय है. अर प्रत्याख्यानावरण कषायक मन्द उदय होय हैं. ताते उपशमभाव सहितपणा विशेषण कीया है. यद्यपि दर्शनप्रतिमा धारीके भी अप्रत्याख्यांनावरणका अभाव नौ भया है. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) परन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय के तीव्र स्थानकनिके उदयते प्रतीचार रहित पंच अणुव्रत होय नाहीं ताने अणुव्रतसंज्ञा नाहीं आ है अर स्थूल अपेक्षा अगुव्रत ताकै भी त्रसका भक्षणका त्याग अगुत्व है व्यसननिमें चोरीका त्याग है सो असत्य भी यामें गर्मित है परस्त्रीका त्याग है वैराग्य भावना है तातै परिग्रहके भी मू के स्थानक घटते हैं परि. माण भी करै है परन्तु नितिचार नाही होय, तातै व्रतम तिमा नाम न पा है. बहुरि ज्ञानी विशेषण है सो युक्त ही है सम्यग्दृष्टी होय करि व्रतका स्वरूप जाणि गुरुनिकी दीई प्रतिज्ञा ले है सो ज्ञानी ही होय है, ऐसें जानना ॥ ३३० ।। । भागें पंच अणुव्रतमें पहला अणुव्रत कहै हैं, जो वावरई सदओ अप्पाणसमं परं पि मण्णंतो। निंदणगरहणजुत्तो परिहरमाणो महारंभे ।।३.१॥ तसधादं जो ण करदि मणवयकाएहिं णेव कारयदि । कुव्वंतं पि ण इच्छंदि पढमवयं जायदे तस्स १२३३ ___ भाषार्थ-जो श्रावक बस जीव वेन्द्रिय तेन्द्रिय चौन्द्रिय पंचेंद्रियका घात मन वचन काय करि आप करै नाही परके पास करावे नाही अर परळू करताकौं इष्ट ( भला ) न माने ताकै प्रथम अहिंसा नामा अणुव्रत होय है. सो कै । है श्रावक ? दयासहित तौ व्यापार कार्य में प्रति है अर सर्व प्रा. णीकू आप समान मानता है. बहुरि व्यापारादि कार्यनिमें Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१) हिंसा होय है ताकी अपने मनविष अपनी निंदा करै है. अर गुरुनिपास अपना पापकू कहै है सो गर्दाकरि युक्त है. जो पाप लगै है ताका गुरुनिकी आज्ञा प्रमाण आलोचना प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्त ले है. बहुरि जिनिमें त्रस हिंसा बहुत होती होय ऐसे बड़े व्यापार आदिके कार्य महा श्रारम्भ तिनिकौं छोडता संता प्रवत है. भावार्थ-वस घात पाप करै नाही. पर पासि करावै नाही करतेकू भला जान नाही पर जीवकों आप समान जानै तब परघात करै नाही. बहुरि बडे आरंभ जिनिमें त्रस घात बहुत होय ते छोडै अर अल्प आरम्भमें त्रस घात होय तिससे आपकी निन्दा गर्दा करै आलोचन प्रतिक्रमणादि प्रायश्चित्त करै. बहुरि इनिके अ. तीचार अन्य ग्रन्थनिमें कहे हैं तिनिकौं टालै. इहां गाथामें अन्य जीवकों आप समान जानना कह्या है तामें अतीचार टालना भी आय गया. परके बध बंधन अतिभारारोपण अ. नपाननिरोधमें दुःख होय है सो श्राप समान परकू जानै तब काहेकू करै ॥ ३३१-३३२ ।। आगे दूपरा अणुव्रतकौं कहै हैं,-- हिंसावयणं ण वयदि कक्कसवयणं पि जो ण भासेदि। णिठ्ठरवयणं पि तहा ण भासदे गुज्झवयणं पि ३३३ हिदमिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासणवयणं अणुव्वई हवदि सो विदिओ। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) भाषार्थ-जो हिंसाका वचन न कहै बहुरि कर्कश वचन न कहै बहुरि निष्ठुर वचन न कहै बहुरि परका गुह्य वचन न कहै. तो कैसा बचन कहै ? परके हितरूप तथा प्रमाणरूप वचन कहै. बहुरि सर्व जीवनिकै संतोषका करनहारा वचन कहै, बहुरि धर्मका प्रकाशनहारा वचन कहै सो पुरुष दूसरा अणुव्रतका धारी होय है। भावार्थ-असत्य वचन अनेक प्र. कार है. तहां सर्वथा त्याग तौ साल चारित्री मुनिकै होय है अर अणुव्रतमें स्थूलका ही त्याग है. सो जिस वचननै प. रजीवका घात होय ऐसा तो हिंपाका वचन न कहै बहुरि जो वचन पर• कडवा लागै सुगाते ही क्रोधादिक उपजै ऐसा कर्कश वचन न कहै. बहुरि परके उद्वेग उपजि आवै, भय उपजि आवै, शोक उपजि आवै कलह उपजि आवै ऐसा निष्ठुरवचन न कहै. बहुरि परके गोप्य मर्मका प्रकाश कर नेवाला वचन न कहै. उपलक्षणत और भी ऐसा जामैं परका बुरा होय सो वचन न कहै. बहुरि कहै तौ हितमित वचन कहै । सर्व जीवनिक संतोष उपजै ऐसा कहै. बहुरि धर्मका जात प्रकाश होय ऐसा कहै. बहुरि याके अतीचार अन्य ग्रंथनिमें कहे हैं जो मिथ्या उपदेश रहोभ्याख्यान कूटलेखक्रिया न्यासापहार साकारमन्त्रभेद सो गाथामें विशे. पण कीये तिनित सर्व गर्भित भये. इहां तात्पर्य ऐसा जा. नना जो जाते परजीवका बुरा होय जाय अपने उपरि आ. पदा आवै तथा या प्रलाप वचन" अपने प्रमाद बढे ऐसा स्थूल असत्य वचन अणुव्रती कहै नाही. परपासि कहाकै Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) नाही. कहनेवालेकुं भला न जानै ताकै दूसरा अणुव्रत होय है ॥ ३३३-३३४ ॥ __ भागें तीसरा अणुव्रतकू कहै हैं,जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पमुल्लेण णेय गिढेदि । वीसरियं पि ण गिहृदि लाभे थूये हि तूसेदि ३३५ जो परदव्वं ण हरइ मायालोहेण कोहमाणेण । दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ ३३६ ___ भावार्थ-जो श्रावक बहु मोलकी वस्तु अल्पमोलकरि न ले, बहुरि कपटकार लोभकरि क्रोधकरि मानकरि परका द्रव्य न ले, सो तीसरा अणुव्रत धारी श्रावक होय है. सो कैसा है ? दृढ है चिच जाका, कारण पाय प्रतिज्ञा विगाडै नाहीं। बहुरि शुद्ध है उज्वल है बुद्धि जाकी. भावार्थ-सातव्य. सनके त्यागमें चोरीका त्याग तौ किया ही है तामें इहां यह विशेष जो बहु मोलकी वस्तु अल्प मोलमें लेनेमें भी झगडा उपजै है न जाणिये है कौन कारणनै पैला अल्पमैं दे है बहुरि परकी भूली वस्तु तथा मार्गमें पड़ी वस्तु भी न ले, यह न जाणै तौ पैला न जाणे ताका डर कहा ? बहुरि व्यापार में थोडे ही लाभ वा नफाकरि संतोष करै, बहुत लालच लोभते अनर्थ उपजै है. बहुरि कपट प्रपंचकरि काहूका धन ले नाही. कोईनै आपके पास धरया होय तौ ताकू न देनेके भाव राखै नाही. बहुरि लोभकरि तथा क्रोधकरि परका धन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) खोसि न ले तथा मानकरि कहै हम बड़े जोरावर हैं लीया तौलीया. ऐसे परका धन ले नाही. ऐसे ही परकौं लि. वाव नाहीं. ऐसे लेतेकू भला जाण नाही. बहुरि अन्य प्रन्थनिमें याके पांच अतीचार कहे हैं. चोरकौं चोरीके अर्थ प्रेरणा करणा, तिसका ल्याया धन लेना, राज्य विरुद्ध होय सो कार्य करना, व्योपारके तोल बाट हीनाविक रखणे, अल्पमोलकी वस्तुकू बहु मोलकी दिखाय ताका व्योहार करना, ए पांच अतीचार हैं सो गाथामें विशेषण किये तिनिमें आय गये. ऐसें निरतिचार स्तेयत्यागवत पालै सो तीसरा अणुव्रतका धारी श्रावक होय है ।। ३३५-३३६ ॥ ____ आगे ब्रह्मचर्यव्रतका व्याख्यान करै हैं,असुइमयं दुग्गंधं महिलादेहं विरच्चमाणो जो । रूवं लावण्णं पि य मणमाहेणकारणं मुणइ॥३३७ जो मण्णदि परमाहलं जणणीवहणीसुआइसारित्थं । मणवयणे कायेण वि बंभवई सो हवे थूलो ॥३३८॥ भाषार्थ-जो श्रावक स्त्रीकी देह अशुचिमयी दुर्गन्ध जागतो संतो तथा ताका रूप लावण्य ताकौं भी मनके विष मोह उपजावनेकौं कारण जाण है यात विरक्त हवा सन्ता प्रवते है बहुरि जो परस्त्री बडीकौं माता सरिखी, परावरिकीकू बहणसारिखी, छोटीकौं वेटीसारिखी, मनवचनकायकरि जो जाणे है सो स्थूल ब्रह्मचर्यका धारक श्रावक है. 4. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) रस्त्रीका तौ मनवचनकाय कृतकारित अनुमोदनाकरि त्याग करै अर स्वस्त्रीकै विष संतोष करै. तीवकामके विनोद क्रीडारूप न प्रवः. जात स्त्रीके शरीरकू अपवित्र दुर्गन्ध जाणि वैराग्य भावनारूप भाव राख. अर कापकी तीव्र वेदना इस स्त्रीके निमिच होय है ताके रूप लावण्य आदि चेष्टाकूम. नके मोहनेकौं ज्ञानके भुलाउनेकौं कामके उपजाबनेकौं कारण जाणि विरक्त रहै सो चतुर्थ अणुव्रतका धारी होय है. बहुरि याके अतीचार परविवाह करणा, परकी परणी वि. नापरणी स्त्रीका संसा, कामकी क्रीडा, कामका तीव्र अभिमाय, ए कह्या है. ते स्त्रीका देहत विरक्त रहना इस विशेषणमें आय गये. परस्त्रीका त्याग तौ पहली प्रतिमा सात व्यसनके त्यागमें आय गया, इहां अति तीव्र कामकी वासनाका भी त्याग है. तातें अतीचार रहित व्रत पलै है. अपनी स्त्रीकेविष भी तीव्रपणा नाहीं होय है. ऐसे ब्रह्मैचर्य व्रतका कथन कीया ॥ ३३७-३३८ ॥ अब परिग्रहपरिमाण पांचमा अणुव्रतका कथन कर हैंजो लोहं णिहणिता संतोसरसायणेण संतुट्ठो। णिहणदि तिला दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ३३९॥ जो परिमाणं कुव्वदि धणधाणसुवण्णखित्तमाईणं । उवओगं जाणिचा अणुव्वयं पंचमं तस्स ॥३४॥ भाषार्थ-जो पुरुष लोभ कषायकौं हीनकरि संतोषरूप है Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) रसायण करि संतुष्ट हूवा संता सर्व धन धान्यादि परिग्रहकौं विनाशीक मानता संता दुष्ट तृष्णाक अतिशयकरि ह है. बहुरि धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहका अपना उपयोग सामर्थ्य जाण कार्य विशेष जाणि तिसके अनुसार परिमाण करै है ताकै पांचमा अणुव्रत होय है. अंतरंगका परिग्रह at लोभ तृष्णा है ताकौं क्षीण करें अर बाह्यका परिग्रह परिमाण करें अर दृढचित्तरि प्रतिज्ञाभंग न करें सो अतिचाररहित पंचम अणुवती होय है. ऐसें पांच अणुव्रत निरतिचार पाले सो व्रत प्रतिमाघारी श्रावक है ऐसें पांच च व्रतका व्याख्यान कीया ॥ ३३९ - ३४० ॥ अब इनि व्रतनिकी रक्षाकरनेवाले सात शील हैं ति निका व्याख्यान करे हैं तिनिमें पहले तीन गुणव्रत हैं तामें पहला गुणवतकौं कहे हैं, जह लोहणासणट्टं संगपमाणं हवेइ जीवरस | सव्वं दिसिसु पमाणं तह लोहं णासए णियमा ३४१ जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उवओगं जाणिता गुणस्वयं जाण तं पढमं ॥ ३४२ ॥ भाषार्थ - जैसें लोभके नाश करनेके अर्थ जीवकै परिग्रहका परिमाण होय है तैसें सर्व दिशानिविधै परिमाण कीया हूवा भी नियमतें लोभका नाश करें है. तातें जे सर्व ही जे पूर्व आदि प्रसिद्ध दश दिशा तिनिका अपना उपयोग प्रयो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) जन कार्य जाणिकरि परिमाण करै है सो पहला गुणव्रत है. पहले पांच अणुव्रत कहे तिनिका ए गुणव्रत उपकारी है. इहां गुण शब्द उपकारबाचक लेणा सो लोभके नाश करनेकौं जैसैं परिग्रहका परिमाण करै तैसे ही लोभके नाश करनेकौं भी दिशाका परिमाण करै. जहांताई परिमाण कीया ताके परैं जो द्रव्य आदिकी प्राप्ति होती होय तौऊ तहां . जाय नाही. ऐसे लोभ घट्या. बहुरि हिंसाका पापभी परिमाण परौं न जानेरौं तहां सम्वन्धी न लागै, तब तिस सम्बन्धी महाव्रत तुल्य भया ॥ ३४१-३४२॥ अब दूसरा गुणव्रत अनर्थदंड विरतिकू कहै हैं,कजं किंपि ण साहदि णिचं पावं करेदि जो अत्थो सो खलु हवे अणत्थोपंचपयारो वि सो विविहो ३४३ भाषार्थ-जो कार्य प्रयोजन तो अपना किछ साधे नाहीं घर केवल पापहीकौं उपजावै ऐसा कार्य होय ताकौं अनर्थ कहिये. सो पांच प्रकार है तथा अनेक प्रकार भी है. भावार्थ, निःप्रयोजन पाप लगावै सो अनर्थदंड है सो पांच प्रकार करि कहै हैं. अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान, दुः. श्रुतश्रावणादि बहुरि अनेक प्रकार भी है ॥ ३४३ ॥ __ अब प्रथम भेदकू कहै हैं,परदोसाणं गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थीआलोओ परकलहालोयणं पढमं ।। ३४४॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) भाषार्थ - परके दोपनिका ग्रहण करना परकी लक्ष्मी धन सम्पदाकी बांधा करना परकी स्कूं रागसहित देखना परकी कलह देखना इत्यादि कार्यनिकू करें सो पहला अनर्थदंड है. भावार्थ- परके दोषनिका ग्रहण करनेमें अपने भाव तो बिगड़ै अर प्रयोजन अपना किछू सिद्ध नाहीं, परका बुरा होय आपके दुष्टपना टहरे, बहुरि परकी सम्पदा देखि आप ताकी इच्छा करें तो आपके किछु आय जाय नाहीं यामें भी निःप्रयोजन भाव बिगडे है. बहुरि परकी स्त्रीकूं रागसहित देखने में भी आप त्यागी होयकरि निःप्रयोजन भाव काकूं बिगाडे ? बहुरि परकी कलहके देखने में भी किछु अपना कार्य सधता नहीं. उलटा आपमें भी किछू आफति आय पडे है. ऐसें इनिकूं आदि देकर जिन कार्यनिर्विषै अपने भाव विगडें तहां अपध्यान नामा पहला अनदंड होय है सो अणुव्रतभंगका कारण है याके छोडें व्रत दृढ रहे हैं || ३४४ || अब दूज | पापोपदेश नाम/ अनर्थदंड कहै हैं,— जो उवएसो दिज्जइ किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु । पुरि सित्थी संजोए अणत्थदंडो हवे विदिओ ॥ ३४५॥ भाषार्थ - जो खेती करना पशुका पालना वाणिज्य कर ना इत्यादि पापसहित कार्य तथा पुरुष स्त्रीका संजोग जैसे होय तैसें करना इत्यादि कार्यनिका परकूं उपदेश देना इनिका विधान बतावना जामैं किछू अपना प्रयोजन सधै Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) नाहीं केवल पाप ही उपजै सो दूजा पापोपदेश नाम अनर्थदंड है, परकं पापके उसमें अपने केवल पाप ही बंधै है. ताते व्रतभंग होय है तात याकू छोडे उनकी रक्षा है व्रत परि गुण करै है उपकार करै है ताते याका नाम गुणवत ____ आगें तीसरा भमादचरित नाम अनर्थदंडका भेदकू कहै विहलो जो वावारो पुढवीतोयाण अग्गिपवणाण । तह वि वणप्फदिछेओअणत्थदंडोहवे तिदिओ३४६ - भाषार्थ-पृथ्वी जल अग्नि पवन इनिके विफल निःयोजन व्यापार में प्रवृत्ति करना तथा निःप्रयोजन वनस्पति हरतिकायका छेदन भेदन करना सो तीसरा प्रमादचरित नामा अनर्थ दण्ड है. भावार्थ- जो प्रमादके पशि होकर पृथिवी जल अग्नि पवन हरितकायकी निःप्रयोजन विराधना करै तहां त्रस थावरनिका घात ही होय अपना कार्य किछ सधै नाहीं तात याके करने में व्रत भंग है. छोडें व्रतकी रक्षा होय है ॥ ३४६ ॥ भागें चौथा हिंसादान नामा अनर्थदंडकू कहै हैं, मज्जारपहुदिधरणं आयुधलोहादिविकणं जं च। लक्खाखलादिगहणं अणत्थदंडो हवे तुरिओ३४७ भाषार्थ-जो बिलाव श्रादि जो हिंसक जीवोंका पाल Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) ना बहुरि लोहका तथा लोह आदिके आयुधनिका व्योपार करना, देना लेना बहुरि लाख खला आदि शब्दतै विष वस्तु प्रादिका देना लेना विणज करना यह चौथा हिंसा. दान नामा अनर्थदंड है. भावार्थ-हिंसक जीवनिका पालन तौ निःप्रयोजन अर पाप प्रसिद्ध ही है. बहुरि बहुत हिंसाके कारण शस्त्र लोह लाख आदिका विणज करणा देना लेना भी करनेमें फल अल्प है. पाप बहुत है । तातें अनर्थदंड ही है या प्रवर्ते व्रतभंग होय है, छोडे व्रतकी रक्षा है ॥ ३४७ ॥ श्रागें दुःश्रुतिनामा पांचमा अनर्थदण्डकू कहै हैं,जं सवणं सत्थाणं भंडणवसियरणकामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा अणत्थदंडो हवे चरमो ॥३४८ भाषार्थ-जो सर्वथा एकान्ती तिनिके भाषे शास्त्र शत्रसारिखे दीखें ऐसे कुशास्त्र तथा भांडक्रिया हास्य कौतुइलके कपनके शास्त्र तथा वशीकरण मंत्रमयोगके शास्त्र तथा स्त्रीनिके चेष्टाके वर्णनरूप कामशास्त्र तिनिका सुनना तथा उपलक्षणते वांचना सीखना सुनावना भी जानना. बहुरि परके दोषनिकी कथा करना सुनना यह दुःश्रुतिश्रवण नाम अन्तका पांचवा अनर्थदंड है. भावार्थ-खोटे शास्त्र सुनने वाचने सुनावने रचनेमैं किछू प्रयोजन सिद्धि नाही. केवल पाप ही होय है अर आजीविका निमित्त भी इनिका व्योहार करना श्रावककं योग्य नाही. व्योपार आदिकी योग्य Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) आजीविका ही श्रेष्ठ है. जामें व्रतभंग होय सो काहेकू करें? व्रतकी रक्षा ही करनी ॥ ३४८ ॥ आगें इस अनर्थदंडके कथनकू संकोचे हैं,एवं पंचपयारं अणत्थदंडं दुहावह णिच्चं । जो परिहरेइ णाणी गुणव्वदी सो हवे विदिओ ३४९ __ भाषार्थ-जो ज्ञानी श्रावक इसपकार अनर्थदंडकू दुःखनिका निरन्तर उपजावनहारा जाणि छोडै है सो दूसरा गुणव्रतका धारी श्रावक होय है. भावार्थ-यह अनर्थदंडका त्यागनामा गुणवत अणुव्रतनिका बड़ा उपकारी है नाते श्रावकनिकू अवश्य पालना योग्य है ॥ ३४९॥ आगे भोगोपभोगनामा तीसरा गुणतकू कहै हैं,-- जाणित्ता संपत्ती भोयणतंबोलवत्थुमाईणं । जं परिमाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स ॥ ३५०॥ भाषार्थ-जो अपनी सम्पदा सामर्थ्य जाणि भर भोजन तांबूल वस्त्र आदिका परिमाण मर्याद करै तिस श्रावककै भोगोपभोग नाम गुणवूत होय है. भावार्थ- भोग तौ भोजन तांबूल आदि एकबार भोगमैं प्रावै सो कहिए. बहुरि उपभोग वस्त्र गहणा आदि फेरि २ भोगमैं आवै सो कहिये. तिनिका परिमाण यमरूप भी होय है पर नित्य नियमरूप भी होय है सो यथाशक्ति अपनी सामग्रीकू विचारि यमरूप करि ले तथा नियमरूप भी कहे हैं तिनित नित्य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२) काम जाणे तिप्त अनुसार करवो करै. यह अणुव्रतका बडा उपकारी है ॥ ३५० ॥ भागें भोगपभोगकी छती बस्तुकं छोडै है ताकी प्रशं. सा करै है,जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदेहि । जो मणुलड्डुव भनखदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ॥ भाषार्थ-जो पुरुष छती वस्तु छोडै है त के वनवू सुरेन्द्र भी सग है प्रशंसा करै है बहुरि अणछतीका छो. दणा तौ ऐसा है जैसे लाडू तो होय नाहीं अर संकल्पमात्रमनमें लाडूकी कल्पनाकार लाडू ग्वाय तैसा है. सो अणछत्ती वस्तु तौ संकल्पमात्र छोडी ताकै वह छोडना व्रत तो है प. रन्तु अल्पसिद्धि करनेवाला है. ताका फल थोडा है. इहां कोई पूछे भोगोपभोग परिमाणकू तीसरा गुणवूत कया सो तत्त्वार्थसूत्रविष तौ तीसग गुणवत देशवत कहया है भोगपभोग परिमाणकू तीसरा शिक्षावून कथा है सो यह कैसे ? ताका समाधान-जो यह प्राचार्यनिकी विवक्षाका विचित्रपणा है. स्वामी समंतभद्र आचार्यने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें इहां कह्या वैसे ही कहथा है सो यामैं विरोवनाही. इहां तौ अणुव्रतकी उपकारीकी अपेक्षा लई है अर तहां सचित्तादि भोग छोडनेकी अपेक्षा मुनिव्रतकी शिक्षा देनेकी अपेक्षा लई है किछू विरोध है नाहीं. ऐसें तीन गुणवतका व्याख्यान किया ॥३५१ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) आगे च्यारि शिक्षात्रतका व्याख्यान करें हैं तहां प्रथम ही सामायिक शिक्षाव्रतकूं कहे हैं, - सामाइयस्स करणं खेत्तं कालं च आसणं विलओ । मणवयणकायसुद्धी णायव्वा हुंति सचैव ॥ ३५२ ॥ भाषार्थ - पहले तो सामायिकके करणेविषै क्षेत्र काल आसन बहुरि लय बहुरि मनवचनकायकी शुद्धता ए सात सामग्री जानने योग्य हैं. तहां क्षेत्रकूं कहें हैं ॥ ३५२ ॥ जत्थ ण कलयलसद्दं बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि । जत्थ ण दंसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥ ३५३ ॥ भाषार्थ - जहां कलकलाट शब्द नाहीं होय. बहुरि जहां बहुत लोकनिका संघट्ट भावना जावना न होय. बहुरि जहां डांस मच्छर कीडी पीपल्या इत्यादि शरीरकूं बाधा करनहारे जीव न होंय, ऐसा क्षेत्र सामायिक करनेकूं योग्य है. भावार्थ - जहां चित्तकूं कोऊ क्षोभ उपजानेके कारण न होंय वहां सामायिक करना ॥ ३५३ ॥ अब सामायिक के कालकूं कहे हैं, - पुव्व मज्झ अवरह्ने तिहि वि जालियाको । सामाइयस्स कालो सविणयणिस्सेसणिद्दिट्ठो ३५४ भाषार्थ पूर्णा कहिये प्रभातकाल मध्याहन कहिये बीचिका दिन अपराह्न कहिये पाहिला दिन इनि तीनूं काल १३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) विषै छह छह घडीका काल सामायिकका है, सो यह विनय सहित निःस्व कहिये परिग्रह रहित तिनिके ईश जो गणधर देव तिनिने का है. भावार्थ-प्रभात तीन घड़ीका तड़के लगाय तीन घडी दिन चढ्यां ताई ऐसें छह घड़ी पूर्वाह्नकाल दोय पहर पहलां तीन घडी लगाय पीछें तीन घडी ऐसें छह घडी मध्यान्हकाल. तीन घडी दिन लगाय तीन घडी राति ताई ऐसे छह घडी अपराहूकाळ. यह सामायिककालका उत्कृष्ट काल है. बहुरि दोय घडीका भीका है ऐसें तीनूं कालकी छह घडीं होय हैं ।। अब आसन तथा लय र मन वचन कायकी शुद्धत. कूं क है हैं . - वेधितो पज्जकं अहवा उडूढेण उब्भओ ठिच्चा । कालपमाणं किच्चा इंदियवावारवज्जिओ होऊ ३५५ जिणवययग्गमणो संपुडकाओ य अंजलिं किच्चा ससरूवे मलीणो बदणअत्थं वि चितित्तो ।। ३५६ ॥ किच्चा देसपमाणं सव्वं सावज्जवज्जिदो होऊ । जो कुब्वदि सामइयं सो मुणिसरिसो हवे सावो || भाषा जो आसन बांधिकरि अथवा ऊभा खडा आसनविष्ठिकर, कलका प्रमाणकरि, इन्द्रियनिके व्यापार विषयनिर्विषै न हीं होने के अर्थ जिनवचन के विषै एकाग्र मनकरि, काकूं संकोचकरि, हस्तकी अंजलि जोडिकरि, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरि अपना स्वरूपविष लीन हवा संता अथना सायिक का बंदनाका पाठके अर्थकू चितवता सता प्रव, बहुरि क्षेत्रका परिमाणकरि सर्व सावधयोग जो गृह 8 दि पापयोग ताकौं त्यागकरि पापयोग” रहित होय शायिक करें सो श्रावक तिसकाल मुनि सारिखा है. भावार्थ-ह शिक्षाव्रत है तहां यह अर्थ सूचै है जो सामायिक है सो सर्व रागद्वेषसू रहित होय सर्व बाहय के पायोग क्रिया र देत होय अपने आत्मस्वरूपकेविषे लीन हूवा मुनि प्र है सो यह सामायिक चारित्र मुनिका धर्म है. हो ही शिक्षा श्रावककू दीजिये है जो सामायिक कालकी मर्यादाकरि तिस कालमें मुनिकी रीति प्रवत जातैं मुनि भये ऐसे सदा रहना होयगः, इस ही अपेक्षाकरि तिसकाल मुनि सारिखा थावक कया है ।। ३५५-३५७ ॥ आगें दूसरा शिक्षाव्रत प्रोग्योपासकू कहै हैं,ण्हाणविलेवणभूसणइत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि। जो परिहरेदि णाणी वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा ३५८ दोसु वि पव्वेसु सया उववासं एपमहामिबियडी जो कुणइ एवमाई तस्स वयं पोसह विदियं ॥३५९॥ भावार्थ-जो ज्ञानी श्रावक एक पक्ष होय पर्व आ चौदसिविपै स्नान विलेपन भाभूषण स सर्ग सुगंध धूप दीप आदि भोगोपभोग वस्तुकू छोडे अर वैराग्य भा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) बना सोई भए भाभरण तिसकरि आत्माकू. शोभायमानकरि उपवास तथा एकभक्त तथा नीरस आहार करै तथा आदि शब्दकरि कांजी करै. केवल भात पाणी ही ले. ऐसे करै ता प्रांषधोपवासवत नामका शिक्षाबत होय है. भावार्थजैसैं सामायिक करने• कालका नियमकरि सर्व पापयोगसू निवृत्त होगकरि एकान्त स्थानमें धर्मध्यानकरता संता बैठे. तैसे ही सर्व गृहकार्यकू त्यागकरि समस्त मोग उपभोग सामग्रीकू छोडिकरि सातै तेरसिके दोय पहर दिन पीछ एकान्त स्थानक बैठे, धर्मध्यान करता संता सोलह पहर ताई मुनिकी ज्यों रहै, नवमी पूर्णमासीकू दोयपहरां प्रतिज्ञा पूरण होय, तब गृहकारजमें लागै. ताकै प्रोषधवत होय है. आ3 चौदसिके दिन उपवासकी सामर्थ्य न होय तो एक बार भोजन करै. तथा नीरस भोजन कांजी आदि अला पाहार कर ले. समय धर्मध्यानमें लगावै. सोलह पहर आगे प्रोषध प्रतिमागे कही है. तैसे करै, परन्तु इहां गायामें न कही तात सोलह पहरका नियम न जानना. यह भी मुनिव्रतकी शिक्षा ही है ॥ ३५८-३५९ ॥ भागें अतिथिसंविभाग नामक तीसरा शिक्षाबूत कहै हैं,.. तिविहे पत्तम्मि सया सद्धाइगुणेहिं संजुदो णाणी। दाणं जो देोदे सयं णवदाणविहीहिं संजुत्तो ॥३६० सिक्खावयं च तदियं तस्स हवे सव्वसोक्खसिद्धियर Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) दाणं चउविहं पि य सब्वे दाणाण सारयरं ॥३६१॥ - भाषार्थ-जो ज्ञानी श्रावक उत्तम मध्यम जघन्य तीन प्रकार पात्रनिके निमित्त दाताके श्रद्धा प्रादि गुणनिकरि युक्त होयकरि अपने हस्तकरि नवधा भक्ति करि संयुक्त हवा संता नितपति दान देहै. तिस श्रावकके तीसरा शिताव्रत होय है. सो दान कैसा है पाहार अभय औषध शास्त्रदानके भेदकरि च्यारि प्रकार है. बहुरि यह अन्य जे लौकिक धनादिकका दान तिनिमें अतिशयकरि सार है, उत्तम है. बहुरि सर्व सिद्धि अर सुखका करनहारा है. भावार्थ-तीन प्रकार पात्रनिमें उत्कृष्ट तौ मुनि, मध्यम अणुव्रती श्रावक, जघन्य अविरत सम्यग्दृष्टी हैं. बहुरि दातारके सात गुण श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, शक्ति ए सात हैं तथा अन्य प्रकार भी कहे हैं. इस लोकके फलकी बांछा नकरै, क्षमावान् होय, कपट रहित होय, अन्यदाताते ईर्षा न होय, दीयेका विषाद न करे, दीयेका हर्ष करै, गर्व न करें ऐसे भी मात कहे हैं. बहुरि प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजनकरणा, प्रणाम करणा, मनकी शुद्धता, वचनकी शुद्धता, कायकी शुद्धता, आहारकी शुद्धता ऐसें नवधा भक्ति है, ऐसे दातारके गुण सहित पात्रकू नवधा भक्तिकरि नित्य च्यारि प्रकार दान देहै ताके तीसरा शिक्षाबत होय है. यह भी मुनिपणकी शिक्षाके अर्थ है जो देना सीखै तैसे प्रापळू मुनिभये लेना होयगा ॥ ३६०-३६१॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) भागे आहार आदि दानका माहात्म्य कहै हैं,भोयणदाणेण सोक्खं ओसहदाणेण सत्थदाणं च । जीवाण अभयदाणं सुदुल्लहं सव्वदाणाणं ॥ ३६२ ।। ___ भाषार्थ-भोजन दानकरि सर्व सुख होय है । बहुरि औषध दानकरि सहित शास्त्रदान पर जीवनकू अभय दान है सो सर्व दाननिमें दुर्लभ पाइए है उत्तम दान है । भावार्थ इहां अभयदान• सर्वतें श्रेष्ठ कया है ॥ ३६२ ॥ ___आगे पाहारदान• प्रधानकरि कहै हैं,-- भोयणदाणे दिपणे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि भुक्खतिसाएवाही दिणे दिणे होंति देहीणं ॥३६३॥ भोयणबलेण साहू सत्थं संवदि रचिदिवहं पि। भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ३६४ भाषार्थ-भोजन दान दीये संत तीन ही दान दीये होय हैं जातें भूख तृषा नामका रोग प्राणीनिकै दिन दिन प्रति होय है । बहुरि भोजा के बलकार साधु रात्रि दिन शास्त्रका अभ्यास करै है बहुरि भोजनके देने करि प्राणभी रक्षा होय है । ऐसें भोजनके दानकरि औषध शास्त्र भ. भयदान ए तीनं ही दीये जानने । भावार्थ-भूख वृषा रोग मेटनेतें नौ आहारदान ही औषधदान भया। आहारके ब. लते शास्त्राभ्यास सुखसू होनः ज्ञानदान भी एही भया । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९) आहार ही तैं प्राणोंकी रक्षा होय तातैं एही अभयदान भया ऐसें ही दान में तीनू गर्भित भये ।। ३६३ - ३६४ ॥ मागे दानका माहात्म्यहीकूं फेरि कहे हैं, - इहपरलोयणिरीहो दाणं जो देदि परमभीए । रयणन्तयेसु ठविदो संघो सयलो हवे तेण ॥ ३६५ ॥ उत्तमपत्तविसेसे उत्तमभत्तीए उत्तमं दाणं । एयदि विय दिपणं इंदसुहं उत्तमं देदि ॥ ३६६ ॥ भाषार्थ - जो पुरुष ( श्रावक ) इसलोक परलोक के फलकी वांछा रहित हवा संता परम भक्तिकरि संघके निमित्त दान दे है ता पुरुषने सकल संघकूं रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रविषै स्वाध्या | बहुरि उत्तम पात्रका विशेषके अर्थ उत्तम भक्तिकरि उत्तम दान एक दिन भी दीया हुवा उत्सम इन्द्रपदका सुखकं दे । भावार्थ- दानके दीये चतुर्विध संघकी थिरता होय है सो दान के देनेवालेने मोक्षमार्ग ही चलाया कहिये । बहुरि उत्तम ही पात्र उत्तम ही दाताकी भक्ति पर उत्तम ही दान सर्व ऐसी विधि मिले ताका उत्तम ही फल होय | इन्द्रादिक पदवीका सुख मिलै है || ३६५-६६६ ॥ मागें चौथा देशाबकाशिक शिक्षाव्रतकूं कहें हैं,पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) बासादिकयपभाणं दिणे दिणे लोहकामसमणत्थं । सावज्जवज्जणटुं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ 1 भाषार्थ - जो श्रावक पहलै सर्व दिशानिका परिमाण कया था तिनका फेरि संवरण करै, संकोचे, बहुरि तेसें ही पूर्व इन्द्रियनिका विषयनिका परिमाण भोगोपभोग परिमाण कीया था तिनि फेरि संकोचे । कैसें सो कहे हैं ? वर्ष आदि तथा दिन दिन प्रति कालकी मर्यादा लीये करै । ताको प्रयोजन कहै हैं - अन्तरंग तौ लोभकषाय अर काम कहिये इच्छा ताके शमन कहिये घटावने के अर्थ तथा बाह्य पाप हिसादिक के वर्जने के अर्थ करें, तिस श्रावककै चौथा देशावकाशिक नामा शिक्षाव्रत होय है। भावार्थ- पहले दिग्वि रति जतमें मर्यादा करी थी सो तो नियमरूप थी । अब इहां तिसमें भी कालकी मर्यादा लीये घर हाट गांव आदि तांईकी गमनागमनकी मर्यादा करै तथा भोगेश्भोग व्रतमें यमरूप इन्द्रियविषयनिकी मर्यादा करी थी तःमें भी कालकी मर्यादा लीये नियम करै । इहां सत्तरा नियम कहे हैं तिनिकूं पालै । प्रतिदिन मर्यादा करबो करै, यामें लोभका तथा तृष्णा पांछाका संकोच होय है, बाघ हिंसादि पापनिकी हाणि होय है । ऐसें प्यार शिक्षाव्रत कहे सो ए प्यारों ही श्रावक अणुव्रत के यत्नतें पालनेकी तथा महाव्रतके पालने की शिक्षारूप हैं ।। ३६७-३६८ ॥ आगे तसल्लेखनाकं संक्षेपकरि कहै हैं, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) वारसवएहिं जुत्तो जो संलेहण करेदि उवसंतो । सो सुरसोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ३६९ भाषार्थ-जो श्रावक बारहवूननिकरि सहित हवा अंत समय उपशम भावनिकरि युक्त होय सल्लेखना करै है सो स्वर्गके सुख पायकरि अनुक्रमतें उत्कृष्ट सुख जो मोक्षका सुख सो पावै है । भावार्थ-सल्लेखना नाम कषायनिका अर कायके क्षीण करनेका है सो श्रावक वारह व्रत पाले. पीडें परणका समय जाण तब पहली सावधान होय सर्व वस्तुसूं ममत्व छोडि कषायनिकू क्षीणकरि उपशम भावरूप मंद कपायरूप होय रहै । अर कायकू अनुक्रमतें ऊणोदर नीरस आदि तपनिकरि क्षीण करै । पहले ऐसे कायकू क्षीण करें तौ शरीरमें मलके मूत्रके निमित्त जो रोग होय हैं वे रोग न उपजै । अंतसमै असावधान न होय । ऐसे सल्लेखना करे अंतसमय सावधान होय अपने स्वरूपमें तथा अरहंत सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप चितवनमें लीन हूवा तण व्रतरूप संवररूप परिणाम सहित हूवा संता पर्यायकू छोडै तो स्वर्गके सुखनिकू पावै । बहुरि तहां भी यह बाछा रहै जो मनुष्य होय व्रत पालू ऐसे अनुक्रमते मोक्ष सुखकी प्राप्ति होय है। एकं पि वयं विमलं सहिद्री जह कुणेदि दिढचित्तो। तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए णियमा ॥ ३७.।। भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव हदचित्त हूवा संता एक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) भी व्रत अतीचाररहित निर्मल पालै तौ नानाप्रकारकी अ. द्धिनिकरि युक्त इन्द्रपणा नियमकरि पावै. भावार्थ-इहां एक भी व्रत प्रतीचाररहित पालनेका फल इन्द्रपणा नियमकरि कह्या. तहां ऐसा प्राशय मृचे है जो व्रतनिके पालनेके प. रिणाम सर्वके समानजाति हैं. जहां एक व्रत दृढचित्तकरि पालै तहां अन्य तिसके समान जातीय व्रत पालनेके अर्थ अविनाभावीपणा है सो सर्व ही वर पाले कहे. बहुरि ऐसा भी है जो एक आखडी त्याग• अन्तसमै ढविचकरि ५. कडि ताविषै लीन परिणाम भये मंतै पर्याय छुटै तौ तिसकाल अन्य उपयोगके अभावतें बहा धर्म्य ध्यान सहित परगतिकू गमन होय तब उच्चगति ही पावै. यह नियम है. ऐसा आशयनै एक व्रतका ऐसा माहात्म्य कह्या है. इहां ऐसा न जानना जो एक व्रत तौ पालै अर अन्य राप सेया करै ताका मी ऊंचा फल होय. ऐसे तो चोरी छोडै पात्री सेयवो करें हिंसादिक करवो करै ताका भी उच्च फल होय सो ऐसा नाहीं है. ऐसे दूजी व्रतपतिमाका निरूपण कीया. बारह मेदकी अपेक्षा यह तीसरा भेद भया ।। ३७० ॥ ____ श्रागें तीजी सायायिकमातमाका निरूपण करै हैं,जो कुणइ काउसग्गं वारसआवत्तसुजुदो धीरो । णमुणदुर्ग पि करतो चदुप्पणामो पसण्णप्पा ३७१ चिंतंतो ससरूवं जिणबिंब अहव अक्खरं परमं । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) ज्झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ३७२ भाषार्थ - जो सम्यग् ष्टी श्रावक बारह आवर्त सहित च्यारि प्रणामसहित दोय नमस्कार करता संता प्रसन्न है आत्मा जाका, धीर दृढचित्त हूवा संता कायोत्सर्ग करै, तहां अपने चैतन्यमात्र शुद्ध स्वरूपकूं ध्यावता चितवन करता संता र अथवा जिनबिंब चितवता रहै. अथवा परमेष्ठोके वाचक पंच नमोकारकूं चितवता रहै. अथवा कर्मके उदयके रसकी जातिका चितवन करता रहे तार्के सामायिक व्रत होय है. भावार्थ - सामायिक वर्णन तौ पूर्वै शिक्षाव्रतमें कीया था जो राग द्वेष तजि समभावकरि क्षेत्र काल भासन ध्यान मन वचन कायकी शुद्धताकरि कालकी मर्यादाकरि एकांत स्थान में बैठे. सर्व सावद्ययोगका त्यागकरि धर्मध्यानरूप प्रवर्चे ऐसें कया था. इहां विशेष कह्या जो कायसूं मपत्त्र छोडि कायोत्सर्ग करे तहां यदि अंतविषै दोय तौ नमस्कार करै घर च्यारि दिशाके सन्मुख होय च्यारि शिरोनति करै, बहुरि एक एक शिरोनतिके विषै मन वचन कायकी शुद्धताकी सूचना रूप तीन तीन श्रावर्त्त करै ते बारह आवर्त भये ऐसें करि कायं ममत्व छोडि निज स्वरूपविषै लीन होय जिन प्रतिमासं उपयोग लीन करें, तथा पंचपरमेष्ठीका वाचक अक्षरनिका ध्यान करै, तथा उपयोग कोई बाधाकी तरफ जाय तौ तहां कर्मके उदयकी जाति चितवै. यह साता वेदनीका फल है. यह साताके उदयकी जाति हैं. यह अं O' Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) तरायकी उदयकी जाति है. इत्यादि कर्मके उदयकूं चितवै यह विशेष कहा. बहुरि ऐसा भी विशेष जानना जो शिक्षाव्रतमें तौ मन वचनकायसंबंधी कोई प्रतीचार भी लागे तथा काली मर्यादा आदि क्रियामें हीनाधिक भी होय हैं बहुरि इहा प्रतिमाकी प्रतिज्ञा है सो अवीचार रहित शुद्ध पलै है, उपसर्ग आदिके निमिततें टले नाहीं है ऐसा जानना. याके पांच अतीचार हैं. मन वचनं कायका डुलावना अनादर करणा, भूलिजागा ए अतीचार न लगावै. ऐसे सामायिक प्रतिमा बारह भेदकी अपेक्षा चौथा भेद भया । ॥। ३७१-३७२।। आगे प्रोषधमाका भेद कहैं हैं, - समितेरसिदिवसे अवरहे जाइऊण जिणभवणे । किरियाकम्मं काऊ उववासं चउविहं गहिय ३७३ गिहवावारं चत्ता रा गमिऊण धम्मचिंताए । पच्चूहे उट्टित्ता किरिया कम्मं च काढूण || ३७४ || सत्यवभासेण पुणो दिवसं गमिऊण बंदणं किच्चा । रति दूण तहा पच्चूहे बंदणं किच्चा ॥ ३७५ ॥ पुज्जणविहिं च किञ्चापत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि भुंजाविऊण पत्तं भुंजतो पोसहो होदि ॥ ३७६ ॥ भाषार्थ - सातें तेरसिके दिन दोय पहर पीछें जिन चै Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) त्यालय जाय अपराह्नको सामायिक आदि क्रिया कर्मकरि च्यारि प्रकार पाहारका त्यागकरि उपवास प्रहण करै. यूहका समस्त व्योपारकू छोडिकरि धर्म ध्यानकरि तेरसि सातकी राति गमावै. प्रभात उठिकरि सामायिक क्रिया कर्म करै. आ चौदसिका दिन शास्त्राभ्यास धर्म ध्यानकरि गमाय अपराह्नका सामायिक क्रिया कर्म करि गति तैसे ही धर्मध्यान करि गमाय नवमी पूर्णमासीकै प्रभात सामायिक बन्दनारि जिनेश्वरका पूजन विधानकरि तीन प्रकारके पात्रकौं पडगाहि बहुरि तिस पात्रकौं भोजन कराय श्राप भो. जन करै ताकै प्रौषध होय है. भावार्थ-पहलै शिक्षात्रतमें प्रौषधकी विधि कही थी, सो भी इहां जाननी. गृहव्यापार भोग उपभोगकी सामग्री समस्तका त्यागकरि एकांतमें जाय बैठे अरे सोलह पहर धर्मध्यानमें गमावणी. इहां विशेष इतनाजो तहां सोलह पहरका कालका नियम नाहीं कह्या या अर अतीचार भी लागै. अर इहां प्रतिमाकी प्रतिज्ञा है यामें सोलह पहरका उपवास नियमकरि अतीचार रहित करै है. अर याके प्रतीचार पांच हैं. जो वस्तु जिस काल राखी होय तिसका उठावना मेलना तथा सोक्ने बैठनेका संधारा करना सो विना देख्या जाण्या, विना यतनत करै सो तीन भतीचार तौ ए. भर उपवासकेविषै अनादर करै, प्रीति नाही करै अर क्रिया कर्ममें भूलि जाय ए पांच प्रतीचार लगावै नाहीं ॥ ३७३-३७६ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) आगे प्रोषधका माहात्म्य कहे हैं,एक पि णिरारंभ उववासं जो करेदि उवसंतो। बहुविहसंचियकम्मं सो णाणी खवदि लीलाए ३७७ . भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी प्रारम्भका त्यागकरि उपशम भाव मंदकषाय रूप हूवा संता एक भी उपवास करै है सो बहुत भवमें संचित कीये बांधे जे कर्म, तिनिकौं लीलापात्रमें क्षय करै है. भावार्थ-कषायविषय आहारका त्यागकरि इसलोक परलोकके भोगकी प्राशा छोडि एक भी उ. पवास करै सो बहुत कर्मकी निर्जरा करै है तौ जो प्रोषधमतिमा अंगीकारकरि पक्षमें दोय उपवास करै ताका कहा कहणा ? स्वर्गसुख भोगि मोक्षकू पावै है ॥ ३७७ ॥ ___ आगे प्रारम्भ आदिका त्यागविना उपवास करै ताकै कर्मनिर्जरा नाही हो है ऐसें कहै हैं,उववासं कुठवतो आरंभं जो करेदि मोहादो। सो णियदेहं सोसदि ण झाडए कम्मलेस पि ३७८ भाषार्थ-जो उपवास करता संता गृहकार्यके मोहत गृ. हका आरम्भ करै है सो अपनी देहकू सोख है कर्म निजरा का तो लेशयात्र भी ताकै नाही होय है. भावार्थ-जो विषय कषाय छाडयां विना केवल आहारमात्र ही छोडै है. गृहकार्य समस्त करै है, सो पुरुष देहहीकू केवल सोख है ताके कर्मनिर्जरा लेस मात्र भी नहीं हो है ।। ३७८ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) आये सचित्तत्यागमतिमाकौं कहै हैं,सच्चित्वं पत्फलं छल्लीमूलं च किसलयं बीजं ।। जो णय भक्खदि णाणी सचिचविरओ हवे सो वि॥ ___ भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी श्रावक पत्र फल स्वक छालि मूल रूपल बीज ए सचित्त नाही भक्षण कर. सो सचित्तविरती श्रावक कहिये. भावार्थ-जीवरि सहित होय ताकौं सचित्त कहिये है. सो पत्र फल छालि मूल वीज . पळ इत्यादि हरित वनस्पति सचित्रकू न खाय सो सचित्तविरत प्रतिमाला धारक श्रावक होय है *।। ३७२। जो ण यभक्खेदि सयं तस्सण अण्णस्स जुज्जद दाउं भुत्तस्स भोजिदस्सहि णस्थि विसेसो तदो को वि॥ भाषार्थ-बहुरि जो वस्तु पाप न भखै ताकू अन्यकुं देना योग्य नाहीं है जानैं खानेवाले अर खुवावनेवालेमें किछ विशेष नाहीं है कृतका अर कारितका फल समान है तातें जो वस्तु आप न खाय सो अन्धकू भी न खुवाइये तब सचित्त त्याग व्रत परे ।। ३८०॥ * सुषकं पक्कं तत्तं विललवणेहि मिस्सिांद। जं जंतेण य छिण्णं तं सब्वं फासुयं भांणयं ॥ ५ ॥ भाषार्थ -सूखा हुवा, पकाया हुवा, खटाई अर लवणसे, सिला हुवा तथा जो यंत्रसे छिन्नभिन्न किया हुवा अर्थात् शोधाहुबा हो एवा संप हरितकाय प्रासुक कहिये जीवरहित अचित्त होता है। .. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) जो वज्जेदि सचित्तं दुजय जीहा वि णिज्जिया तेण। दयभावो होदि किओ जिणवयणं पालियं तेण ३८१ अर्थ-जो श्रावक सचित्तका त्याग करै है तिसने जिहा इन्द्रियका जीतना कठिन सो भी जीती, बहुरि दयाभाव प्रगट किया, बहुरि जिनेश्वर देवके वचन पाले. भावार्थ-सचित्तका त्यागमें बडे गुण हैं. जिह्वा इन्द्रियका जीतना होय हैं . पाणीनिकी दया पलै है. बहुरि भगवानके वचन पलै है., जात हरित कायादिक सचित्तमें भगवानने जीव कहे हैं सो प्राज्ञा पालन भया. याका अतीचार जो सचित्ततें मिली वस्तु तथा सचित्त बंध संबंधरूप इत्यादिक हैं ते अतीचारलगावे नाहीं तब शुद्ध त्याग होय. तब प्रतिमाकी प्रतिज्ञा होय है. मोगोपभोग व्रतमें तथा देशावकाशिक व्रतमें भी सचित्तका त्याग कया है परन्तु निरतीचार नियमरूप नाही इहां नियमरूप निम्तीचर त्याग होय है. ऐसैं सचित्त त्यागपंचभी प्रतिमा अर बारहमेदनिमें छहा भेद वर्णन किया ३८१ आगें रात्रिभोजनत्याग प्रतिमाकू कहै हैं,जो चउविहं पि भोज्जं रयणीए णेव मुंजदे णाणी । ण य भुंजावइ अण्णं णिसिविरओ सो हवे भोज्जो।। भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी श्रावक रात्रिविष च्यारि प्रकार अशन पान खाद्य स्वाद थाहारकू नाही भोगवै है, नाहीं खाय है, बहुरि परकू नाहीं भोजन करावे है सो श्रा. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९) वक रात्रि भोजनका त्यागी होय है. भावार्थ - रात्रि भोजनका तौ मांतके दोषकी अपेक्षा तथा रात्रिविधै बहुत प्रारंभतें त्रसघातकी अपेक्षा पहली दुजी प्रतिमामें ही त्याग कराये हैं परंतु यहां कृत कारित अनुमोदना अर मन वचन कायके कोई दोष लागै तातें शुद्धत्याग नाहीं. इहां प्रतिमाकी प्रतिज्ञाविषै शुद्ध त्याग होय है ता प्रतिमा कही है ।। ३८२ ॥ जो णिसिभुतिं वज्जाद सो उववास करेदि छम्मा सं संवच्छरस्स मज्झे आरंभं मुयदि रयणीए ॥ ३८३ ॥ भाषार्थ - जो पुरुष रात्रि भोजन कौं छोडै है सो वरस दिनमें छह महीनाका उपवास करें है. बहुरि रात्रि भोजनके त्यागर्तें भोजन संबंधी आरंभ भी त्याग है. बहुरि व्यापार थादिका भी प्रारंभ छोडें है सो महान दया पालै है . भावार्थजो रात्रि भोजन त्यागै सो वरसदिनमें छह महीनाका उपवास करें है. बहुरि अन्य आरंभका भी रात्रि में त्याग करै है बहार अन्य ग्रंथनिमें इस प्रतिमाविषै दिनमें स्त्री सेवनका भी मनवचनकाय कृतकारित अनुमोदनाकरि त्याग का है. ऐ रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमाका निरूपण कीया. यह प्रतिमा छडी बारह भेदनिमें सातवां भेद भया ।। ३८३ ॥ या ब्रह्मचर्य प्रतिमाका निरूपण करै है, सव्वेसि इत्थीणं जो अहिलासं ण कुव्वदे णाणी । मण वाया कायेण य बंभबई सो हवे सदिओ ३८४ १४ --- Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) .. भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी श्रावक सर्व ही च्यारि प्रकारकी स्त्री देवांगना मनुष्यणी तिथंचणी चित्रामकी इत्या. दि स्त्रीका अभिलाष मन वचनकायकरि न करै सो ब्रह्मचर्य व्रतकाधारक हो है। कैसा है ? दयाका पालनहारा है. भावार्थसर्व स्त्रीका मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि सर्वथा त्याग करै सो ब्रह्मचर्य प्रतिमा है ॥ ३८४ ॥ __आगे आरंभविरति प्रतिमाकौं कहै हैं,जो आरंभ ण कुणदि अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णो हिंसासंतठ्ठमणो चत्तारंभो हवे सो हि ॥ ३८५ ॥ __भाषार्थ-जो श्राक्क गृहकार्यसंबंधी कछू भी आरंभ न करै अन्य पास करावै नाही. बहुरि करै ताकौं भला जाण नाहीं सो निश्चयतै आरंभका त्यागी होय है. कैसा है ? हिंसातें भयभीत है मन जाका. भावार्थ-गृहकार्यका आरंभका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनाकरि त्याग करै सो आरंभ त्याग पतिमाधारक श्रावक होय है. यह प्रतिमा आठमी है बारह भेदनिमें नवमा भेद है ॥ ३८५ ॥ प्रागें परिग्रहत्याग प्रतिमाकू कहै हैंजो परिवजह गंथं अभंतर बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ३८६ - भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि श्रावक अभ्यंतरका गर बाह्यका यह जो दो प्रकारका परिग्रह है सो पापका कारण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) रूप है ऐसें मानता संता मानन्द सहित छोडे है सो परिग्रहका त्यागी श्रावक होय है. भावार्थ - अभ्यंतरका ग्रंथमें मिथ्यात्व अनंतानुबंधी प्रत्याख्यानावरण कषाय तौ पहिले लुट गये हैं, बहुरि प्रत्याख्यानावरण अर तिसहीके लार लागे हास्यादिक र वेद तिनिकों घटा है, बहुरि बाह्यके धनधान्य यादि सर्वका त्याग करें है. बहुरि परिग्रहके त्या• बडा आनन्द मान है. जातै तिनिकै सांचा वैराग्य हो है तिनिके परिग्रह पापरूप अर बड़ी आपदा दीखे है. तातें त्याग कर बडा सुख माने है ॥ ३८६ ॥ - बाहिरगंथविहीणा दलिद्दमणुआ सहावदो होंति । अभंतरगंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ३८७ ॥ भाषार्थ - बाह्य परिग्रहकरि रहित तौ दरिद्री मनुष्य स्वभावही होय है. याके त्यागमें अचिरज नाहीं. बहुरि - *यंतर परिग्रहकू कोई भी छोडने कूं समर्थ न होय है. भावार्थ, जो अभ्यंतर परिग्रहकूं छोडै है ताकी बडाई है, अभ्यंतरका परिग्रह सामान्यपणैौ ममत्व परिणाम है सो याकौं छोडे सो परिग्रहका त्यागी कहिये. ऐसें परिग्रहत्याग प्रतिमाका स्वरूप काा. प्रतिमा नवमी है बारह भेदनिमें दशमा भेद है || आगे अनुमोदनविरति प्रतिपाकौं कहे हैं, - जो अणुमणं कुणदिगिहत्थकज्जेसु पावमूलेसु | भवियव्वं भावतो अणुमणविरओ हवे सो दु ॥ ३८८ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) भाषार्थ-जो श्रावक पाप के मूल जे गृहस्य के कार्य ति. निविषै अनुमोदना न करै. कैसा हूवा संता जो भवितव्य है सो होय है ऐसे भावना करता संता सो अनुमोदनविति प्रतिमाधारी श्रावक है. भावार्थ-गृहस्थ के कार्यके आ. हारके निमिच पारम्भादिककी भी अनुमोदना न करै. उ. दासीन हवा घरमें भी बैठे. बाह्य चैत्यालय मठ मंडपमें भी बैठे. भोजनकौं घरका तथा अन्य श्रावक बुलावै ताकै भोजन करि आवै. ऐसा भी न कहै जो हमारे ताई फलाणी वस्तु तयार कीज्यो. जो कुछ गृहस्थ जिमा सोही जीमि आवै सो दसमी प्रतिमाका धारी श्रावक होय है ॥ ३८८ ॥ जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं रायदोससंजुत्तो। उवओगेण विहीणं स कुणदिपावं विणा कज्ज ३८९ भाषार्थ-जो विना प्रयोजन रागद्वेषकरि संयुक्त हवा सन्ता शुभ तथा अशुभ कायकौं चितवन करै है, सो पुरुष विना कार्य पाप उपजावै है. भावार्थ-आप तो त्यागी भया फेरि विना प्रयोजन गृहस्थके शुभकार्य पुत्रजन्ममाप्ति विवाहादिक अर अशुभकार्य काहू कौं पीडा देना मारना बांधना इत्यादि शुभाशुभ कार्यनिकौं चितवन करै रागद्वेष परिणाम करे तो निरर्थक पाप उपजावैताकै दसमी प्रतिमा कैसे होय ? तीसू ऐसी बुद्धि रहै जो जैसी तरह भवितव्य है त होयगः जैसे आहार मिलणा है तैसें मिलि रहैगा. ऐसे परिणाम हैं अनुमतित्याग पल है. ऐसे बारह भेदमें ग्यारहवां भेद कहा। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) आगे उद्दिष्टविरतिप्रतिमाका स्वरूप कहै हैं,जो णव कोडिविसुद्ध भिक्खायरणेण भुजदे भोज्जं। जायणरहियं जोरगं उद्दिट्ठाहारविरओ सो ३९० भाषार्थ-जो श्रावक भोज्य जो आहार ता• नवकोटि विशुद्ध कहिये मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाका पापकू दोष लागै नाहीं, ऐसा भिक्षाचरण करिले, तहां भी -याचना रहित ले. मांगिकरि न ले, सो भी योग्य ले,सचितादिक अयोग्य होय सो न ले, सो उद्दिष्ट आहारका त्यागी है. भावार्थ-घर छोडि मठ मंडपमें रहै, भिमाकरि पाहार ले जो याके निमित्त कोई आहार करै तौ, तिस आहारकू न ले, बहुरि मांगिकरि न ले, बहुरि अयोग्य मांसादिक तथा सचित्त आहार न ले, ऐसा उद्दिष्टविरत श्रावक है॥३९०।। आगे अंतसमयविषै श्रावक आराधना करै ऐसे कहै हैं,जो सावयवयसुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि। सो अच्चुम्मि सग्गे इंदो सुरसेविओ होदि ३९१ भाषार्थ-जो श्रावक व्रतकरि शुद्ध पुरुष है अर अंत समय उत्कृष्ट आराधना दर्शनज्ञानचारित्रतपकं पाराधै है सो अच्युत स्वर्गविष देवनिकरि सेवनीक इन्द्र होय है. भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टी श्रावक ग्यारह प्रतिमाका निरतिचार शुद्ध व्रत पाले है, बहुरि अंत समय, मरणकालविङ्ग दर्शन ज्ञान चरित्र तप आराधनाकू पाराधै है सो अच्युत स्वर्ग: Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) विषै इन्द्र होय है. यह उत्कृष्ट श्रावकके व्रतका उत्कृष्ट फल्न है. ऐसें ग्यारमी प्रतिमाका स्वरूप कह्या, अन्य ग्रंथनिमें याके दोय भेद कहे हैं; पहला भेदवाला तौ एक वस्त्र राखे, केसनिकौं कतरखी तथा पाळणा सौंरावै प्रतिलेखया हस्तादिकसू करै, भोजन बैठा करे अपने हाथ भी करै, अर पात्र में भी करे. बहुरि दूसरा केसनिका लौंच करे, प्रतिलेखण पीछें करें. अपने हाथही में भोजन करें, कोपीन धारै, इ. त्यादि याकी विधि अन्य ग्रन्थनितें जाननी । ऐसें प्रतिमा aौ ग्यारमी भई अर बारह भेद कहे थे, तिनिमें यह बारम भेद श्रावकका भया । अब इहां संस्कृतटीकाकार अन्य ग्रंथनिके अनुसार किछु कथन श्रावकका लिख्या है, सो भी संक्षेपतें लिखिये है. तहां छडी प्रतिमाताई तौ जघन्य श्रावक का है. अर सातमी आटमी नवमी प्रतिमाका धारक म ध्यम श्रावक कहया है । पर दसम ग्यारसी प्रतिमावाला उत्कृष्ट श्रावक कहा है । बहुरि कहया है जो समितिसहित व तौ व्रत सफल है. अर समितिरहित प्रवत् तौ व्रत पालता भी अती है. बहुरि कहया है जो गृहस्थके असि मसि कृषि वाणिज्य के आरंभ में त्रस थावरकी हिंसा होय है, सो हिंसाका त्याग याकै कैसे बरी है. सो याका समाधानके अर्थ कहै हैं जो पक्ष, चर्या, साधकता, तीन प्रवृत्ति श्रावककी कही हैं. तहां पक्षका धारक तो पाक्षिक श्रावक कहिये और चर्याका धारक नैष्ठिक श्रावक कहिये अर साधक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) वाका धारक साधक श्रावक कहिये. तहां पक्ष तौ ऐसा जो मार्गमैं त्रसहिंसाका त्यागी श्रावक कया है, सो मैं प्रसजीवकू मेरे प्रयोजनके अर्थ तथा परके प्रयोजनके अर्य मारूं नाही. धर्मके अर्थ तथा देवताके अर्थ तथा मन्त्रसाधनके अर्थ तथा औषधके अर्थ तथा आहारके अर्थ तथा अन्य भोगकेअर्थ भारूं नाहीं ऐसा पक्ष जाकै होय सो पाक्षिक है. सोयाके असि मसि कृषि वाणिज्य आदि कार्यनिमें हिंसा होय है तौऊ मारनेका अभिप्रत नाहीं है. कार्यका अभिमाय है तहां घात होय है ताकी अपनी निंदा करै है. ऐसे त्रस हिंसा न करनेकी पक्षमात्रतें पाक्षिक कहिये है. यह अप्रत्याख्यानावरण कषायके मंद उदयके परिणाम हैं तातें अवती ही है। व्रत पालनेकी इच्छा है परन्तु निरतिचार व्रत पले नाही तातें पाक्षिक ही कया है. बहुरि नैष्ठिक होय है तर अनुक्रयतें प्रतिमाकी प्रतिज्ञा पल है. याकै अप्रत्याख्यानावरण कषायका अभाव भया तातै पांचवां गुणस्थानकी प्रतिज्ञा निरतिचार पलै. तहां प्रत्याख्यानबरण कषायके तीव्र मंद भेदनित ग्यारह प्रतिमाके भेद हैं. ज्यों ज्यों कषाय मंद होती जाय त्यों त्यों भागिली प्रतिमाकी प्रतिज्ञा होती जाय. तहां ऐसे कया है जो घरका स्वामिपना छोडि गृहकार्य तौ पुत्रादिककू सौंपै अर श्राप यथाकपाय प्रतिमाकी प्रतिक्षा अंगीकार करता जाय, जेते सकल संयम न ग्रहै तेते ग्यास्मी प्रतिमाताई नैष्ठिक श्रावक कहावै. बहुरि जब मरण Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) काल आया जाण तब पाराधनासहित होय एकाग्रचित्तकरि परमेष्ठीका ध्यानमें निष्ठ समाधिकारि प्राण छोडै, सो साधक कहावै, ऐमा व्याख्यान है. यहुरि कया है जो गृहस्थ द्र. व्यका उपार्जन करै ताके छह भाग कर. तामें एक भाग तो धर्मके अर्थ दे. एक भाग कुटुंबके पोषणैमें दे. एक भाग अ. पने भोगके अर्थ खरचै, एक अपने स्वजन समूह अर्थ व्योहारमें खरचै, बाकी दोय भाग रहैं ते अमानत भंडार राख वह द्रव्य बडा पूजन अथवा प्रभावना तथा काल दुकालमें अर्थ श्रावै. ऐसे कीये गृहस्पके आकुलता न उपज है. धर्म सधै है. इहां कथन संकृतटीकाकारने बहुत कीया है. तथा पहले गाथाके कथनमें अन्य ग्रन्थनिका कयन सधै है कथन बहुत कीया है सो संस्कृत टीकातें जानना. इहां तौ गाथाहीका अर्थ संक्षेपकरि लिख्या है. विशेष जाननेकी इच्छा होय सो स्यवसार, बसुनंदिकृतश्रावकाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमितगतिश्रावकाचार, प्राकतदोहाबंध श्रावकाचार, इत्यादि ग्रन्थनितें जान, इहां संक्षेप कथन है, ऐसे बारहभेदरूप श्रावधर्मका कथन कीया ३९१ ____ आगें मुनिधर्मका व्याख्यान करै हैं,जो रयणत्तयजुत्तो खमादिभावेहिं परिणदो णिच्च । सव्वत्थ वि मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो ३९२ भाषार्थ-जे पुरुष रत्नत्रय कहिये निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकरि युक्त होय, बहुरि क्षमादिभाव क Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) हिये उत्तम क्षमाकौं प्रादि देकर दश प्रकारका धर्म तिसकरि नित्य कहिये निरन्तर परिणाप सहित होय, बहुरि मध्यस्थ कहिये सुखदुःख तृण कंचन लाभ अलाभ शत्रु मित्र निन्दाप्रशंसा जीवन मरण आदिविष समभावरूप वर्ते, रागद्वेषकरि रहित होय, सो साधु कहिये. तिसहीकौं धर्म कहिये, जाते जामें धर्म है, सो ही धर्मकी मूर्ति है, सो ही धर्म है। भावार्थ-इहां रत्नत्रयकरि सहित कहने में चारित्र तेरहपकार है सो मुनिका धर्म महावत आदि है सो वर्णन किया चाहिये. सो यहां दश प्रकार धर्मका विशेष वर्णन है तामें महाव्रत आदिका भी वर्णन गर्भित है सो जानना ॥३९२ ॥ ___ अब दशप्रकार धर्मका वर्णन करै हैं,सो चिय दहप्पयारो खमादि भावेहिं सुक्खसारेहि । ते पुण भणिज्जमाणा मुणियव्वा परमभत्तीए ३९३ भाषार्थ-सो मुनिधर्म क्षमादि भावनकरि दश प्रकार है कैसा है सौख्यसार कहिये सुख यात होय है. अथवा सुख याविषे है अथवा सुखकरि सार है ऐसा है. बहुरि ते दशप्रकार आगे कह्या हुवा धर्म भक्तिकरि, उत्तम धर्षानुरागकरि जानने योग्य है. भावार्थ-उत्तमक्षमा, मार्दव, आजेव, सत्य, शौच, संयम, तपः, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य ऐसे दश प्रकार मुनिधर्म है सो याका न्यारा न्यारा व्याख्यान आगे करै हैं सो जानना ॥ ३९३ ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) अब पहिले ही उत्तमक्षमाधर्मकू कहे हैं,कोहेण जो ण तप्पदि सुरणरतिरिएहिं कीरमाणे वि उवसग्गे वि रउददे तस्स खिमाणिम्मलाहोदि ३९४ ___ भाषार्थ-जो मुनि देव मनुष्य तिर्यच आदिकरि रौद्र भयानक घोर उपसर्ग करते सतें भी क्रोधकरि ततायमान न होय तिस मुनिके निर्मल क्षा होय है. भावार्थ-जैस श्रीदत्त मुनि व्यंतरदेवकृत उपसर्ग• जीति केवलज्ञान उपजाय मोक्ष गये, तथा चिलातीपुत्र मुनि व्यंतरकृत उपसर्गकू जीति स. वार्थसिद्धि गये, तथा स्वामिकार्तिकेयमुनि क्रोचराजाकृत उ. पसर्ग जीति देवलोक पाया. तथा गुरुदत्त मुनि कपिल ब्रा. माकृत उपसर्ग जीति मोक्ष गये. तथा श्रीधन्य मुनि चक्र. राजकृत उपसगकौं जीति केवल उपजाय मोक्ष गये, तया पांचसै मुनि दंडक राजाकृत उपसर्ग जीति सिद्धि पाई, तथा राजकुमारमुनि पांशुलश्रेष्ठोकृत उपसर्ग जीति सिद्धि पाई. तया चाणिक्य आदि पांचसै मुनि मन्त्रीकृत उपसर्गकौं जीति मोक्ष गये, तथा सुकुमाल मुनि स्यालनीकृत उपसर्ग सहकरि देव भये, तथा श्रेष्ठीके वाईस पुत्र नदी के प्रवाहविषै पद्मासन शुभ ध्यानकार मरणकरि देव भये, तथा सुकोशल मुनि व्याघ्री. कृत उपसर्ग जीति सर्वार्थसिद्धि गये, तथा श्रीपणिकमुनि ज. लका उपसर्ग सहकरि मुक्ति गये. ऐसे देव मनुष्य पशु अचेतन कुन उपसर्ग सहे, तहां क्रोध न कीया तिनिकै उत्तम क्षमा मई, तैसे उपसर्ग करनेवाले कोष न उपजे, तब उ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) तम क्षमा होय है. तहां क्रोधका निमित्त श्रावै तौ वहां ऐसा चितवन करे जो कोई मेरे दोष कहै ते मोविषै विद्यमान हैं तौ यह कहा मिथ्या कहै है ? ऐसें विचारि क्षमा करणी. बहुरि मोविषै दोष नाहीं है तो यह विना जाण्या कहै है वहां प्र ज्ञानपरि कहा कोप ? ऐसे विचारि क्षमा करणी. बहुरि अज्ञानीका बालस्वभाव चिंतना, जो बालक तो प्रत्यक्ष भी कहै यह तो परोक्ष कहै है, यह ही भला है. बहुरि जो प्रत्यक्ष भी कुवचन कहै तो यह विचारना, जो बालक तौ ताडन भी करे यह तो कुवचन ही कहै है, ताडै नाहीं है, यह ही भला है. बहुरि जो ताडन करें तो यह विचारना जो बालक अज्ञानी तो प्राणघात भी करें, यह ताडै ही है प्राणघात तो न किया यह ही भला है. बहुरि प्राणघात करें तो यह विचाबना, जो अज्ञानी तौ धर्मका भी विध्वंस करें यह प्राणघात करें है, धर्मका विध्वंस तौ नाहीं करे है, बहुरि विचारै जो मैं पापकर्म पूर्वै उपनाये थे, ताका यह दुर्वचनादिक उपसर्ग फल है, मेरा ही अपराध है पर तौ निमित्त मात्र है. इत्यादि चितव उपसर्ग श्रादिकके निमिषतें क्रोध नाहीं उपजै तब उ-चमक्षमाधर्म होय है ॥ ३९४ ॥ धागे उत्तम मार्दव धर्मकों कहे हैं, - उत्तमणाणपहाणो उत्तमतवयरणकरणसीलो वि । अप्पाणं जो हीलदि मद्दवरयणं भवे तस्स ॥ ३९५ ॥ भाषार्थ - जो मुनि उत्तम ज्ञानकरि तौ प्रधान होय, बहुरि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) उत्तम तपश्चरण करणेका जाका स्वभाव होय. तौऊ जो प्रपने आत्मा मदरहित करें अनादररूप करे तिस मुनिके मार्दव नामा धर्मरत्न होय है. भावार्थ-सकल शास्त्रका जाननहारा पंडित होय तौऊ ज्ञानपद न करे. यह विचारै जो म बडे अवधि मन:पर्यय ज्ञानी हैं. केवलज्ञानी सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी हैं. मैं कहा हौं अलक्ष हौं, बहुरि उत्तम तप करें तौक ताका मद न करें. आप सब जाति कुल बल विद्या ऐश्वर्य तप रूप आदिकर सर्व बडे हैं तौऊ परकृत अपमानकों भी स हैं. तहां गर्वकरि कपाय न उपजावै तहां उत्तममार्दवधर्म होय है ।। ३९५ ।। आगे उत्तम धर्मों कहे हैं जो चिंते ण वंकं कुणदि ण वंकंण जंपए वकं । णय गोवदि णियदोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स ३९६ भाषार्थ - जो मुनि मनविषै वक्रता न चितवै, बहुरि कायकरि वक्रता न करै, बहुरि वचनकरि वक्रता न बोले, बहुरि अपने दोषनिक गोपै नाहीं, छिपाचै नाहीं, तिस मुनिकै आर्जव धर्म उत्तम होय है' भावार्थ- मनवचनकायदिषै सरलता होय जो मनमें विचारै सो ही वचनकरि करें, सो ही कायकरि करे, परकौं अलावा देने ठिगने निमित्त विचारना तो और कहना और करना और तहां माया कषाय प्रवल होय है. सो ऐसें न करें. निष्कपट होय प्रवर्ते, बहुरि अपना दोष Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) छिपावै नाही. जैसा होय तैसा बालकको ज्यों गुरुनिपासि कहै तहां उत्तम आर्जवधर्म होय है.। आगें उत्तम शौचधर्मकौं कहैं हैं,समसंतोसजलेण य जो धोवदे तिहलोहमलपुंजं । भोयणगिडिविहीणो तस्स सुचित्तं हवे विमलं ३९७ भाषार्थ-जो मुनि समभाव कहिये रागद्वेषरहित परि-. गाम अर संतोष कहिये संतुष्ट भाव सो ही भया जल, ता. करि तृष्णा अर लोभ सो ही भया मलका समूह ताकौं धोवै. बहुरि भोजनकी गृद्धि कहिये अति चाह ताकरि रहित होय तिस मुनिका चित्त निर्मल होय है. ताकै उत्तम शौच धर्म होय है. भावार्थ-समभाव लौ तृण कंचनकौं समान जानना, अर संतोष संतुष्टपना, तृप्तिभाव अपने स्वरूप ही विषै सुख मानना, ऐसे भावरूप जलकरि, तृष्णा तौ भागामी मिलनेकी चाह अर लोभ पाये द्रव्यादिकविषै अति लिप्तपणा, ताके त्यागविणे अति खेद करना सो ही भया मल ताके धोक्नेनै मन पवित्र होय है बहुरि मुनिके अन्य त्याग नौ होय ही है. अर आहारका ग्रहण है ताविषै भी तीव्र चाह नाही राखै, लाभ अलाभ सरस नीरसविषै समबुद्धि रहै, तब उत्तम शौचर्म होय है. बहुरि लोभकी च्यारि प्रकार प्रवृत्ति है-जीवितका लोभ, आरोग्य रहनेका लोभ, इन्द्रिय बनी रहनेका लोभ, उपयोगका लोभ । वहां अपना पर अपने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) संबंधी स्वजन मित्र आदिके दोऊ चाहै तब आठ भेदरूप प्रवृत्ति है सो जहां सर्वहीका लोभ नाहीं होय तहां शौचधर्म है ।। प्रागै उत्तम सत्यधर्मकू कहै हैंजिणवयणमेव भासदि तं पालेढुं असकमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ३९८ ____ भाषार्थ-जो मुनि जिनसूत्रहीके वचनकू कहै, बहुरि तिनिमें जो आचार आदि कह्या है ता• पालने असमर्थ होय वौऊ अन्य प्रकार न कहै. बहुरि व्यवहार करि भी अ. लीक कहिये असत्य न कहै सो मुनि सत्यवादी है. ताकै उत्तम सत्य धर्म होय है. भावार्थ-जो जिनसिद्धान्तमें आचार श्रादिका जैसा स्वरूप कह्या होय तैसा ही कहै. ऐसा नाहीं जो आपसं न पाल्या जाय तब अन्यप्रकार कहै यथावत न कहै. अपना अपमान होय तातै जैसे तैसे कहै अर व्यवहार जो भोजन आदिका व्यापार तथा पूना प्रभावना आदिका व्योहार तिस विष भी जिनसूत्रके अनुसार वचन कहै अपनी इच्छातें जैस तेसैं न कहै. बहुरि इहां दश प्रकार सत्यका वर्णन है. नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संदृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य, भावसत्य, समयसत्य. सो मुनिनिका मुनिनित तथा श्रावकनित वचनालापका व्यवहार है. तहां बहुत भी वचनालाप होय तब सूत्र सिद्धांत अनुसार इस दशप्रकारका सत्यरूप बचनकी भी प्रवृत्ति होय है। तहां अर्थ गुण विना भी वक्ता Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) Las की इच्छा काहू वस्तुका नाम संज्ञा करै सो सौ नाम सत्य है १ । बहुरि रूपमात्र करि कहिये जैसे चित्राममें काहूका रूप लिखि कहै कि यह सुपेद बर्ण फलाया। पुरुष है सो रूपसत्य है २. बहुरि किसी प्रयोजनके अर्थ काहूकी मूर्ति स्यापि कहै सो स्थापना सत्य है ३. बहुरि काहू प्रतीतिके अर्थ आश्रयकर कहिये सो प्रतीति सत्य है. जैसे ताल ऐसा परिमाण विशेष है ताके आश्रय कहै यह पुरुषताल है अथवा लंबा करै तौ छोटेकूं प्रतीत्यकरि कहै, ४. बहुरि लोक sraहारके श्राश्रयकरि कहै सो संवृतिसत्य है. जैसे कपल के उपजने अनेक कारण हैं तौऊ पंकविषै भया तातें पंकज कहिये ५. बहुरि वस्तुनिकूं अनुक्रमतें स्थापनेका वचन कहें सो संयोजना सत्य है, जैसे दशलक्षणका मंडल माडै ताम -अनुक्रम चूर्णके कोठे करै अर कहै कि यह उत्तम क्षमाका है, इत्यादि जोडरूप नाम कहै अथवा दूसरा उदाहरण जैसें जोहरी मोतीनिकी लडी करें तिनिमें मोतिनकी संज्ञा थापि लीनी है सो जहां जो चाहिये तिसही अनुक्रपतें मोती यो ६. बहुरि जिस देशमें जैसी भाषा होय सो कहना सो जनपदसत्य है ७. बहुरि ग्राम नगर आदिका उपदेशक वचन सो देशसत्य है जैसें बाडि चौगिरद होय ताकूं ग्राम कहिये ८. बहुरि छद्मस्थके ज्ञान अगोचर अर संयमादिक पालने के अर्थ जो वचन सो भावसत्य है. जैसें काहू वस्तुमें रथके ज्ञानके अगोचर जीव होंय तौऊ अपनी दृष्टिमें Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) जीव न देखि आगम अनुसार कहै कि यह प्रासुक है १. ब. हुरि जो भागमगोचर वातु है तिनिळू आगमके वचनानुपार कहना सो स्.मयसत्य है जैसे पल्य सागर इत्यादिक कहना १०, बहुरि दशप्रकार सत्यका कथन गोम्मटसारमें है तहां सात नाम तो येही हैं अर तीनके नाम इहां तौ देश, संयोजना, समय हैं अर तहां, संभावना, व्यवहार, उपपा ए हैं. बहुरि उदाहरण अन्य प्रकार हैं सो विवक्षाका भेद जानना. विरोध नाही. ऐसे सत्यकी प्रवृत्ति होय है सो जिनसूत्रानुसार वचन प्रवृत्ति करै ताकै सत्यधर्म होय है ॥ ३९८ ॥ ___ आगें उत्तम संयमधर्म कहै हैं,जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकम्मेसु । तणछेदं पि ण इच्छदि संजमभावो हवे तस्स ३९९ भाषार्थ-जो मुनि गमन आगमन भादि सर्व कार्यनि विषै तृणका छेदमात्र भी नाहीं चाहै न करै . कैसा है मुनि ? जीवनकी रक्षाविषे तत्पर है ऐसे मुनिकै संयमभाव होय हैं. भावार्थ-संयम दोय प्रकार कह्या है इन्द्रिय मनका वश करणा पर छह कायके जीवनिकी रक्षा करनी. सो इहां मुनिके आहार विहार करनेविर्ष गमन आगमन आदि का काम पडै तिनि कार्यनिमें ऐसे परिणाम रहैं जो मैं तृण मात्रका भी छेद नाहीं करूं. मेरा निमित्त काहूका अहित न होय, ऐसे यत्नरूप प्रव” है जीवदयाविष ही तत्पर रहै है. इहां टीकाकार अन्य ग्रंयनित संयमका विशेष वर्णन Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) कीया है. ताका संक्षेप-जो संयम दोयप्रकार है. उपेक्षासंयम, अपहतसंयम । तहां जो स्वभावहीत रागद्वेषकू छोडि गुप्ति धर्मविषै कायोत्सर्ग ध्यानकरि तिष्ठै तहां ताके उपेक्षासंयम कहिये. उपेक्षा नाम उदासीनता वा वीतरागताका है.बहुरि अपहृतसंयमके तीन भेद हैं. उत्कृष्ट मध्यम जघन्या तहांचा. लतां बैठतां जो जीव दीखे तासूं श्राप टलिजाय जीवकू सरकाव नाहीं सो उत्कृष्ट है. बहुरि कोमल मयूरकी पीछीकरि जीवकू सरकावै सो मध्यम है. बहुरि अन्य तृणादिकतें सरकावै सो जघन्य है. इहां अपहृत संयमीकू पंच समितिका उपदेश है. तहां आहार विहारके अर्थ गमन करै सो मासुक मार्ग देखि जूडा प्रमाण भूमिकू देखते मंद मंद प्रति यत्न हैं गमन करै. सो ईर्यासमिति है. बहुरि धर्मोपदेश आदिके निमित्त वचन कहै सो हितरूप मर्यादनै लीयां सन्देहरहित स्पष्ट अक्षररूप वचन कहै. बहु प्रलाप आदि वचनके दोष हैं तिनित रहित बोले सो भाषासमिति है. बहुरि कायकी. स्थितिके अर्थ आहार करै सोमनवचनकाय कृत कारित अनुमोदनाका दोष जामें न लागे, ऐसा परका दीया छिया. लीस दोष, बत्तीस अंतराय टालि चौदहमलरहित अपने हाथ विषै बड़ा अतियत्नतें शुद्ध पाहार करै सो एषणा समिति है. बहुरि धर्मके उपकरणनिकू उठावना धरना सो अतिय. लतें भूमिकं देखि उठावना धरना सो आदान निक्षेपण स.' मिति है. बहुरि अगका मल मूत्रादिक क्षेपण सो स थावर जीवनिकू देखि टालिकरि यत्नतें क्षेपना सो प्रतिष्ठापना Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) समिति है. ऐसे पांच समिति पाल तिनिके संयम पले है. जाते ऐसा कया है जो यत्नाचार प्रवते है ताके वाद्य जीव कू वाधा होय तौऊ बंध नाहीं है अर यत्नरहित प्रवत है ताके बाह्य नीव मरो तथा मति मरो बंध अभ्य होय है.ब. हुरि अपहृत संयमके पालनेके अर्थ आठ शुद्धीनिका उपदेश है. भावशुद्धि १ कायशुद्धि २ विनयशुद्धि ३ ईपिथशुद्धि ४ भिक्षाशुद्धि ५ प्रतिष्ठापनाशुद्धि ६ शयनासनशुदि ७ वाक्यशुद्धि८। तहां भावशुद्धि तौ कर्मका क्षयोपशमजनित है सो तिस विना तौ प्राचार प्रकट नहीं होय. शुद्ध उज्वल भीतिमें चित्राम शोभायमान दीख जैसें. बहुरि दिगंबररूप सर्व विकारनित रहित यत्नरूप जाविषै प्रवृति शान्त मुद्रा जाळू देखै अन्यकै भय न उपजै तथा पाप निर्भय रहै ऐसी का. यशुद्धि है. बहुरि जहां अरहंत आदिविषै भक्ति गुरुनिके अ. नुकूल रहना ऐसे विनयशुद्धि है. बहुरि मुनि जीवनिके ठिकाने सर्व जाने हैं तातें अपने ज्ञानत सूर्यके उद्योगते नेत्र इंद्रियसे मार्ग• प्रतियत्नतै देखिकरि गमन करना सो ईपिथशुद्धि है. बहुरि भोजनकू गमन करै तब पहले तो अपने मल मृत्रकी बाधाकू परखै, अपना अंग• नीकै प्रतिलेख, बहुरि आचार सूत्रमें कह्या तैसे देश काल स्वभाव विचारै. बहुरि एती जायगां पाहारकौं प्रवेश कर नाही. गीत नृत्य वादिघकी जिनकै आजीविका होय, तिनके घर जाय नाही. जहां प्रसूति भई होय तहां जाय नाही. जहां मृत्यु भई होय तहां Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२७) जाय नाही. वेश्याकै जाय नाही. पापकर्म हिंसाकर्म होयतहां जाय नाही. दीनका घर, अनाथका घर, दानशाला, यह शाला, यज्ञ, पूजनशाला, विवाह आदि मंगल जहां होंग इनिकै आहार निमित्त जाय नाही. धनवानकै जाना किनिर्धनके जाना ऐसा विचार नाही. लोक निंद्य कुलके घर जाय नाही. दीनत्ति करै नाही. प्राशुक पाहार ले. आगममें कह्या तैसें दोष अंतराय टालि निर्दोष आहार ले, सो भिसाशुद्धि है. इहां लाभ अलाभ सरस नीरसविष समानबुदि राखै है. सो भिक्षा पांच प्रकार कही है. गोचर १ अक्षम्र. क्षण २ उदरानिपशमन ३ भ्रमराहार ४ गतेपूरण ५. तहां गऊकी ज्यों दातारकी सम्पदादिककी तरफ न देखै, जैसा पाया तैसा आहार लेनेहीमें चित्त राखै, सो गोचरी वृत्ति है. बहुरि जैसे गाडीको वांगि ग्राम पहुंचे, तैसें संयमका साधक काय, ताकं निर्दोष आहार दे संयम साथै, सो अक्षम्रक्षण है. बहुरि अग्नि लागीकू जैसे तैसे पाणीत बुझाय घर बचावै, तैसे क्षुधा श्रमिक सरस नीरस पाहारकरि बुझाय अपना परिणाम उज्ज्वल राखै सो उदरामिपशमन है. बहुरि भ्रमर जैसैं फूलकं बाधा नाहीं कर पर वासना ले, तैसे मुनि दातारकू बाधा न उपजाय आहार ले सो भ्रमराहार है. बहुरि जैसैं शुभ्र कहिये खाडा ताकू जैसे तैसे भरतकरि भरिये तैसैं मुनि स्वादु निःस्वादु आहारकरि उदर भरे सो गर्नपूरण कहिये. ऐसे भिक्षाशुद्धि है, बहुरि मल मूत्र श्लेष्म थूक आदि क्षेपै सो जीवनिळू देखि यत्नतें क्षेपै सो प्रतिष्ठा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) पना शुद्धि है. बहुरि शयनासनशुद्धि जहां स्त्री दुष्ट जी नपुंसक चोर मद्यपायी जीववधके करणहारे, नीच लोक व सते होंय तहां न वसै, बहुरि शृंगार विकार आभूषण सुन्दर वेश ऐसी जो वेश्यादिक तिनिकी क्रीडा जहां होय, सुंदर गीत नृत्य वादित्र जहां होते होंय, बहुरि जहां विकार के कारण नग्न गुह्यप्रदेश जिनमें दीखें ऐसे चित्राम होंय, बहुरि जहां हस्य महोत्सव घोडा श्रादिक शिक्षा देनेका ठि काना तथा व्यायामभूमि होय, तहां मुनि न वसै. जिनतें क्रोधादिक उपजै ऐसे ठिकाने न वसै. सो शयनासनशुद्धि ta कायोत्सर्ग खडा रहनेकी शक्ति होय तेतैं स्वरूप में लीन होय खडे रहै पीछें बैठे तथा खेदके मेंटनेकं अल्पकाल सोवै. बहुरि वाक्यशुद्धि जहां आरम्भकी प्रेरणारहित वचन प्रवर्ते युद्ध, काम, कर्कश, मलाप, पैशुन्य, कठोर, परपीडा करनेवाले वाक्य न प्रवर्तें । अनेक विकथाके भेद हैं तिनिरूप वचन न प्रवर्त्ते, जिनिमें व्रत शीलका उपदेश अपना परका जामें हित होय मीठा मनोहर वैराग्यकूं कारण अपनी प्रशंसा परकी निन्दातें रहित संयमी योग्य वचन प्रवर्ते सो वचन शुद्धि है. ऐसें संयम धर्म है. संयमके पांच भेद कहे हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपरा, यथाख्यात ऐसें पांच भेद हैं इनिका विशेष व्याख्यान अ न्यग्रन्थ नितें जानना ॥ ३६९ ॥ आतप धर्म है हैं— Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२९) इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स ४०० ____ भाषा-जो मुनि इस लोक परलोकके सुखकी अपेक्षा सूं रहित हूवा संता, बहुरि सुखदुःख शत्रु मित्र तृण कंचन निदा प्रशंसा प्रादिविषे रागद्वेषरहित समभावी हूवा संता अ. नेक प्रकार कायक्लेश करै है तिस मुनिके निर्मल तपधर्म होय है । भावार्थ-चारित्रके अर्थ जो उद्यम अर उपयोग करें सो तप कह्या है । तहां कायक्लेश सहित ही होय है. तातै मात्माकी विभावपरिणतिका संस्कार हो है ताळू मेटनेका उद्यम करें. अपने शुद्धस्वरूप उपयोग• चारित्रविष थांमै, तहां बडा जोरसू थंभै है सो जोर करना सो ही तप है। सो बाह्य अभ्यंतर भेदतें बारह प्रकार कह्या है । ताका वर्णन आगे चूलिकामें होयगा. ऐसे तप धर्म कह्या ॥ ४० ॥ आगें त्याग धर्मकू कहै हैं,-- जो चयदि मिट्ठभोज उवयरणं रायदोससंजणयं । वसदि ममत्तहेतुं चायगुणो सो हवे तस्स ॥ ४०१॥ भाषार्थ-जो मुनि मिष्ट भोजन छोडे,रागद्वेषका उपजाबनहारा उपकरण छोडै, ममत्वका कारण वसतिका छोडै, तिस मुनि के त्यागनामा धर्म होय है. भावार्थ-मुनिके संसार देह भोग के ममत्वका त्याग तो पहले ही है । बहुरि जिन वस्तूनिमें कार्य पडै है तिनिकू मुख्यकरि कहा है. पाहारसुं काम पडे Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) तहां तौ सरस नीरसका ममत्व नाहीं करै. बहुरि धर्मोपकरण पुस्तक पीछी कमंडलु जिनमूं राग तीब्र बंधै ऐसे न राख, जो गृहस्थजनके काम न पावै. बहुरि बडी वस्तिका रहनेकी जायगासं काम पडै सो ऐसी जायगां न बसै जाते ममत्व उपजै, ऐसे त्यागधर्म कह्या ॥ ४०१ ॥ ___आर्गे पाकिंचन्य धर्म• कहै हैं,तिविहेण जो विवज्जइ चेयणमियरं च सव्वहा संग लोयववहारविरदो णिग्गंथत्वे हवे तस्स ॥ ४०२॥ ___ भाषार्थ-जो मुनि चेतन अचेतन परिमहळू सर्वथा मन बचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि छोडै, कैसा हूबा संता, कोकके व्यवहारसू विरक्त हवा संता छोडै, तिस मुनिके निग्रंथपणा होय है. भावार्थ-मुनि अन्य परिग्रह तौ छो. ही हैं परन्तु मुनिपणामें योग्य ऐसे चेतन तो शिष्य संघ अर अचेतन पुस्तक पिच्छिका कमंडलु धर्मोपकरण पर आहार बस्तिका देह ये अचेतन तिनिसू भी सर्वथा ममत्व छोडै ऐसा विचार जो मैं तो प्रात्या ही हों अन्य मेरी किछ भी नाही मैं अकिंचन हों, ऐसा निर्ममत्व होय ताके प्राकिंचन्य धर्म होय है ॥ ४०२॥ आगे ब्रह्मचर्य धर्मकू कहै हैं,जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं । कामकहादिणियत्तो णवहा बंभ हवे तस्स ॥ ४०३ ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) .. भाषार्थ-जो मुनि स्त्रीनिकी संगति न करे, तिनिका रूपडूं नाही निरखे, बहुरि कामकी कथा आदि शब्दकरि स्मरणादिकरि रहित होय ऐसें नवधा कहिये मनवचनकाय, कृत कारित अनुमोदनाकरि करै तिस मुनिके ब्रह्मचर्य धर्म होय है. भावार्थ-इहां ऐसा भी जानना जो ब्रह्म आत्मा है ताविषै लीन होय सो ब्रह्मचर्य है । सो परद्रव्यविषे प्रात्मा लीन होय तिनिविषै स्त्रीमें लीन होना प्रधान है जाते काम मनविष उपजै है सो अन्य कषायनितें भी यह प्रधान है । भर इस कामका आलंबन स्त्री है सो याका संसर्न छोडे अपने स्वरूपविषै लीन होय है । तात याकी संगति करना स निरखना, याकी कथा करनी, स्मरण करना, छोड़े ताके ब्रह्मचर्य होय है । इहां टीकामें शीलके अठारह हजार भेद ऐसे लिखे हैं। अचेतन स्त्री-काष्ट पाषाण अर लेपकृत, तिनिक मनवचनकाय अर कृत कारित अनुमोदना इनि छह गुणे अठारह होय । तिनिकं पांच इंद्रियनित गुणे निव्वे होय । द्रव्य पर भावतें गुणे एकसो अस्सी ( १८०)होंग क्रोध मान माया लाभ इनि च्यारित गुणे सातसौ वीस ७२० होय । बहुरि चेतन स्त्री देवांगना मनुष्यणी तियेचणी तिनि कं कृत कारित अनुमोदनातै गुणे नव (९) होय, विनिक मन वचन काय इनितीन गुणे सचाईस २७ होंय, पांच इन्द्रियनित गुणे एकसौ पैंतीस १३५ होय, द्रव्य पर भावकरि गुणे दोयसौसत्तरि २७० होय, इनिक च्यारि संज्ञा आहार भय मैथुन परिग्रहत गुणे एक हजार अस्सी १०८० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) होय इनिकं अनंतानुंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण संज्वलन कोष मान माया लोभ रूप सोलह कषायनित गुणे सतराहजार दोयसे अस्सी १७२८० होय भर अचेतन स्त्रीके सातसौ बीस भेद मिलाये अठारह हजार १८००० होय ऐसें भेद हैं बहुरि इनि मेदनिकू अन्य प्रकार भी कीये हैं सो अन्य ग्रन्थनितें जानने, ए आत्माकी पश्णतिके विकारके भेद हैं सो सर्व ही छोडि अपने स्वरूप में रमै तब ब्रह्मचर्य धर्म उत्तम होय है ॥ ४०३ ॥ मागे शीलवानकी बडाई कहे हैं, उक्तं च, जो ण वि जादि वियारं तरुणियण कडक्खवाणविद्धोवि सो चैव सूरसूरो रणसूणो णो हवे सूरो ॥ १ ॥ भाषार्थ - जो पुरुष स्त्रीजन के कटाक्षरूप बाणनिकरि विंध्या भी विकारकूं प्राप्त न होय है सो शूरवीरनिमें प्रधान है, अर जो रणविषै शूरवीर है सो शूरवीर नाहीं है. भावार्थयुद्धमें साम्हा होय मरनेवाले तो सूरवीर बहुत हैं अर जे स्त्री वश न होय हैं ब्रह्मचर्यव्रत पालें हैं ऐसे विरले तेही बढे साहसी हैं शूरवीर हैं, कामको जीतनेवाले ही बड़े सुभट हैं । ऐसे यह दश प्रकार धर्मका व्याख्यान कीया । आगे याकूं संकोच हैं, - एसो दहप्पयारो धम्मो दहलक्खणो हवे णियमा । अपणो ण हवदि धम्मो हिंसा सुहमा वि जत्थ त्थि ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) भावार्थ - ऐसे दश प्रकार धर्म है सो ही दशलक्षण स्वरूप धर्म नियमकरि है. बहुरि अन्य जहां सूक्ष्म भी हिंसा होय सो धर्म नाहीं है. भावार्थ- जहां हिंसाकरि भर विसकूं कोई अन्यपती धर्म था है, तिसकूं धर्म न कहिये. यह दशलक्षणस्वरूप धर्म कहया है सो ही धर्म नियमकरि है ४०४ आगे इस गाथामें कहया है जो जहां सूक्ष्म भी हिंसा होय तहां धर्म नाहीं तिस ही अर्थ स्पष्टकरि कहै हैं, - हिंसारंभ ण सुहो देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु । हिंसा पावं ति मदो दया पहाणी जदो धम्मो ॥४०५॥ भाषार्थ - जातें हिंसा होय सोपान है, ऐसें कहया है. बहुरि धर्म है सो दया प्रधान है, ऐतें कहया है, तातें देव के निमित्त तथा गुरुके कार्यके निमित्त हिंसा आरम्भ सो शुभ नाहीं है. भावार्थ - अन्यपती हिंसामें धर्म थाएँ हैं. मीमांसक तो यह करे हैं, तहां पशुनिकों होने हैं ताका फल शुभ क है हैं, बहुरि देवीके भैरूंके उपासक बकरे यादि मारि देवी भैरूकै चढ़ावे हैं ताका शुभ फल माने हैं. बौद्धपती हिंसाकरि मांसादिक आहार शुभ कहे हैं. बहुरि श्वेताम्बरनिके केई सूत्रनिमें ऐसें कही है जो देव गुरु धर्मके निमित्च चक्रवर्तिकी सेनाने चूरिये जो साधु ऐसैं न करै है तो धनन्त संसारी होय. कहूं मद्यमांसका आहार भी लिखा है. इनि सर्वनिका निषेध इस गाथामें जानना जो देव गुरुके कानिमित्त हिंसाका प्रारम्भ करे है सो शुभ नाहीं. धर्म है Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) सो दयाप्रधान ही है. बहुरि ऐसे भी जानना जो पूजा प्र. तिष्ठा चैत्यालयका निर्मापण संघयात्रा तथा वसतिकाका निर्मापण गृहस्थनिके कार्य हैं ते भी मुनि आप न करै, न करावे, न अनुमोदना करै. यह धर्म गृहस्थनिका है सो जैसे इनिका सूत्रमें विधान लिख्या है तेसै गृहस्थ करै, गृहस्थ मुनिकू इनिका प्रश्न करै तौ कहै जिन सिद्धांतमें गृहस्यका धर्म पूजा प्रतिष्ठा आदि लिख्या है तैसें करो. ऐसे कहनेमें हिंसाका दोष तो गृहस्यके ही है. इसमें तिस श्रद्धान भक्ति धर्मकी प्रधानता भई तिस संबंधी पुण्य भया तिसके सीरी मुनि भी हैं, हिंसा गृहस्थकी है. ताके सीरी नाही. बहुरि गृहस्थ भी हिंसा करने का अभिप्राय करै तौ अशुभ ही है, पूजा प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करे है. कार्यमें हिंसा होय सो गृ. हस्यके कैसे टलै ? सिद्धांतमें ऐसा भी कहया है जो अला अपराध लगै बहुत पुण्य निपजै ऐसा कार्य गृहस्थकू योग्य है. गृहस्य जिसमें नफा जाणे सो कार्य करै. थोडाद्रव्य दीये बहत द्रव्य भावै सो कार्य कर. किंतु मुनिनिकै ऐसा कार्य नाही होय है. तिनिकै सर्वया यत्न ही है ऐसाजानना ४०५ देवगुरूण णिम्मित्वं हिंसारंभो वि होदि जदि धम्मो। हिंसारहिओ धम्मो इदि जिणवयणं हवे अलियं ॥ __भाषार्थ-जो देव गुरुके निमित्त हिंसाका आरम्भ भी यतिका धर्म होय तौ जिन भगवानके ऐसे वचन हैं जो धर्म हिंसारहित है सो ऐसा वचन अलीक ( झूठा) ठहरे. भा. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) वार्थ-जाते धर्म भगवानने हिंसारहित कहा है ताः देव गुरुके कार्यके निमित्त भी मुनि हिंसाका प्रारम्भ न करे. जे श्वेताम्बर कहै हैं सो मिथ्या है ॥४०६॥ ____ आगे इस धर्मका दुर्लभपणा दिखावै हैंइदि एसो जिणधम्मो अलहपुव्वो अणाइकाले वि। मिछत्तसंजुदाणं जीवाणं लद्धिहीणाणं ॥४०७॥ भाषार्थ-ऐसे यह जिनेश्वर देवका धर्म अनादि कालविध मिध्यावकरि संयुक्त जे जीव जिनिके कालादि कन्धि नाही भाई, तिनिकै अलब्धपूर्वक है पूर्वं कबहूं पाया नाही भावार्थ-मिथ्यात्वकी अलट जीवनिक अनादि कालतें ऐसी है जो जीव अजीवादि तत्स्वार्थनिका श्रद्धान कबहूं हूवा नाही, दिना तत्वार्थश्रद्धान अहिंसाधमकी प्राप्ति कसैं होय ? ४०७ आगे कहै हैं कि अलब्धपूर्वक धर्मकू पायकरि केवल पुण्यका ही आशय करि न सेवणा,एदे दहप्पयारा पावकम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायव्वा ४०८ ___भाषार्थ- दश पकार धर्मके भेद कहे, ते पापकर्मके तौ नाश करनेवाले कहे बहुरि पुण्य कर्मके उपजावन हारे कहे हैं परन्तु केवल पुण्यहीका अर्थ प्रयोजनकरिनाही अंगीकारकरने । भावार्थ-सातावेदनीय, शुभवायु, शुभनाम, शुभगोत्र तो पुण्यकर्म कहे हैं.अरच्यारिघातिकर्म भर असातावेदनीय अशु Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६ ) भनाम अशुभप्रायु अशुभगोत्र पापकर्म कहे हैं सो दश लक्षण धर्मवू पापका नाश करनेवाला पुण्यका उपजामनहारा कहया तहां केवल पुण्य उपजाबनेका अभिप्राय राखि इनिकू न सेवणे जातें पुराय भी बंध ही है. ए धर्म तौ पाप जो घाति कर्म ताके नाश करनेवाला है. अर अधातिमें अशुभ प्रकृति हैं तिनिका नाश करै है. अर पुण्य कर्म हैं ते संसारके - भ्युदयकू देहैं सो इनित तिसका भी व्यवहार अपेक्षा बन्ध होय है तौ स्वयमेव होय ही है. तिसकी बांछा करगा तो संसारकी बांछा करना है, सो यह तो निदान भया, मोक्षका अर्शकै यह होय नाही. जैसे किसाण खेती नाजके अर्थ करे है ताके पास स्वयमेव होय है. ताकी बांछा काहेळू करे मोक्षके अर्थीकं पुण्यबंधकी बांछा करना योग्य नाही ४०८ पुण्णं पि जो समच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सग्गइ हेउं पुण्णखयेणेव णिवाणं ॥ ४०९॥ ___ भाषार्थ-जो पुण्यकौं भी चाहै है तिस पुरुषने संसार चाया. जाते पुण्य है सो सुगतिका बंधका कारण है अर मोक्ष है सो भी पुण्यका भी तयकरि होय है. भावार्थ-पु. ण्यतै सुगति होय है. सो जाने पुण्य चाह्या तिसने संसार चाहया सुगति है सो संसार ही है. मोक्ष तौ पुण्यका भी क्षय भये होय है. सो मोक्षका अर्थीकौं पुण्यकी बांछा करणा योग्य नाहीं॥४०९ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) जो अहिलसेदि पुणं सकसाओ विसयसोक्खतह्वाए दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ४१० ॥ भाषार्थ - जो कषायसहित भया संता विषयसुखकी तृपुण्यकी अभिलाषा करे है तार्के विशुद्धता मंदक - वायके अभावकरि दूर व है. बहुरि पुण्य कर्म है सो वि शुद्धता है मूल कारण जाका, ऐसा है. भावार्थ - जो विषयनिकी तृष्णाकरि पुण्यकौं चाहे है सो तीव्र कषाय है. अर पुण्यबंध होय सो मंदकषायरूप विशुद्धि तातैं होय है सो राय चाहे ताकै आगामी पुरायबन्ध भी नाहीं होय है, निदानमात्र फल होय तौ होय ॥ ४१० ॥ पुण्णास ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती | इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥ भाषार्थ - जातें पुराकी बांधाकरि तौ पुण्यबन्ध नाहीं होय है अर बांछा रहित पुरुषकै पुरायका बंध होय है. तातें भी यतीश्वर हौ ऐसा जाणिकरि पुण्य विषै भी बांछा - दर मत करो. भावार्थ - इहां मुनिराजकौं उपदेश का है. जो पुण्यकी बातें पुरायबन्ध नाहीं तौ प्राशा मिटै बंधे है तातें भाशा पुण्यकी भी मति करौ, अपने स्वरूपकी प्राप्तिकी आशा करौ ॥ ४११ ॥ पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसा एहि परिणदो संतो । ता मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि बंछा ॥ ४१२ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) भाषार्थ-जातें जीव है सो मंदकषायरूप परिणया संता पुरषको बांधे है. ताते पुण्यबंधका कारण मंदकषाय है, वांछा पुण्यबन्धका कारण नाहीं है. पुण्यबंध मंदकषायत होय है, अर याकी बांछा है सो तीव्र कषाय है. तात बांछा न करणी. निर्वाचक पुरुषकै पुण्य बंध होय है. यह लौकिक भी कहै है जो चाह करै ताकू किछू मिले नाही. विना चा. हिवालेकौं बहुत मिले है. तात बांछाका तौ निषेध ही है. इहां कोई पूछ अध्यात्म ग्रंथनिमें तौ पुण्यका निषेध बहुत कीया अर पुराणनिमें पुण्यहीका अधिकार है सो हम तौ यह जाणे हैं संसारमें पुण्यही बड़ा है, याहीत तो इहां इन्द्रियनिक सुख मिले हैं याहीत मनुष्य पर्याय, भली संगति, भला शरीर मोक्ष साधनेके उपाय मिल हैं, पापते नरक नि: गोद जाय तब मोक्षका भी साधन कहां मिले ? तातें ऐसे पुण्यकी बांछा क्यों न कीजिये ? ताका समाधान-यह वह्या सो तौ सत्य है परन्तु भोगनिके अर्थ केवल पुण्यकी बांछा का अत्यंत निषेध है भोगनिके अर्थ पुण्यकी बांछा करै ताके प्रथम तौ सातिशय पुण्य बंधै ही नाही, अर इहां तपश्चरणादिककरि किछ पुण्य बांधि भोग पावै, तहां प्रति तृष्णात भोगनिकौं सेवै तब नरक निगोद ही पावै अर बंध मोक्षके स्वरूप साधनेके अर्थ पुन्य पावै ताका निषेध है नाही,पुण्य. ते मोक्षसाधनेकी सामग्री मिलै ऐसा उपाय राख तौ तहां परंम्पराय मोतहीकी बांछा भई, पुण्यकी तौ बांछा न भई. जैसे कोई पुरुष भोजन करनेकी बांछाकरि रसोईकी सामग्री Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३९ ) भेली करै तिनिको बांछा पहली होय तौ भोजनही को बांछा कहिये. बहुरि भोजन की बांळा विना केवल सामग्रीहीकी बांछा करै तौ सामग्री मिल भी प्रयास मात्र ही भया. किछू फल तौ न भया. ऐसैं जानना. पुराखनिमें पुरायका अधिकार है सो भी मोक्षहीके अर्थ है संसारका ठौ तहां भी निषेध ही है ॥ ४१२ ॥ आगे दश लक्षण धर्म है सो दया प्रधान है अर दया है सोई सम्यक्त्वका मुख्य चिह्न है जातें सम्यक्त्व है सो जीव अजीव भाव बंध संवर निर्जरा मोक्ष इनि तत्वार्थनिके ज्ञानपूर्वक श्रद्धान स्वरूप है. सो यह होय तब सर्व जीवनिक आप समान जाये ही, तिनिकै दुःख होय तक आपकी क्यों जाणै तब विनिकी करुणा होय ही. अर - पना शुद्ध स्वरूप जाणै कषायनिकौं अपराध दुःखरूप जाणे इति अपना घात जाणे तब आपकी दया कषायभाव के अ भावat मानें ऐसें अहिंसाको धर्म जाणै हिंसाको अधर्म जानै ऐसा श्रद्धान सो ही सम्यक्त्व है. ताके निःशंकितकूं आदि देकरि घाठ अंग हैं. तिनिकौं जीव दया ही परि लगाय कहे हैं. तहां प्रथम निःशंकितक कहे हैं,किं जीवदया धम्मो जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो इश्चैवमादिसंका तदकरणं जाणि णिस्संका ॥ ४१३ ॥ - भाषार्थ - यह विचार जो कहा जीव दया धर्म है कि यविषै पशुनिका वधरूप हिंसा होय है सो धर्म है ? इत्या Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) दिक धर्मविषै संशय होय शंका है. याका न करणां सो नि:शंका है. भावार्थ-इहां आदि शब्दतै कहा दिगम्बर यती. निहीकौं मोक्ष है. कि तापस पंचाग्नि आदि तप करै तिनिकौं भी है अथवा दिगम्बरकौं ही मोक्ष है कि श्वेताम्बर कौं है अथवा केवली कवलाहार करै है कि नाहीं करै है अथवा स्त्रीनिवौं मोक्ष है कि नाही अथवा जिनदेव वस्तुकौं अनेकांत व ह्य है सो सता है कि असत्य है ऐसी आशंका नक सो निःशंकित अंग है ।। ४१३ ॥ दयभावो वि य धम्मो हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो इदि संदेहाभावो णिस्सका णिम्मला होदि ॥ ४१४॥ भाषार्थ-निश्चय दयाभाव ही धर्म है हिंसाभाव धर्म न कहिये ऐसे निश्चय भये संदेहका अभाव होय सो ही निर्मल निशंकित गुण है. भावार्य-अन्यमतीनैं मान्या जो विपरीत देव धर्म गुरुका तथा तत्त्वका स्वरूप ताका सर्वथा निषेधकरि जिनमतका कह्या श्रद्धान करना सो निःशंकित गुण है शंका रहे जेते श्रद्धान निर्मल होय नाहीं ॥४१४॥ ___आगे निकांक्षित गुणकौं कहै हैं,जो सग्गसुहणिमित्तं धम्म णायरदि दूसहतवेहि । मुक्खं समीहमाणो णिकंक्खा जायदे तस्स ॥४१५॥ ___भाषार्थ-जो सम्पादृष्टी दुद्धर तपकरि भी स्वर्गसुख के अर्थ धर्मकौं अाचरण न करै तिसकै निकांक्षित गुण होय Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) है. कैसा है तिस दुद्धर तपकरि मोक्षकी ही बांछा करता संता है. भावार्थ - जो धर्मकौं श्राचरण करें दुद्धर तप करै सो मोक्षही अर्थ कर स्वर्ग प्रादिके सुख न चाहै ताकै निःकां क्षित गुण होय है ॥ ४१५ ॥ या निर्विचिकित्सा गुणकौं, कहै हैं, - दहविहधम्मजुदाणं सहावदुग्गंध असुइदेहेसु । जं णिंदणं ण कीरइ णिव्विदिगिंछा गुणे सो हु ४१६ भाषार्थ - जो दशप्रकारके धर्मकरि संयुक्त जे मुनिराज तिनिका देह सो प्रथम तो देहका स्वभाव ही करि दुर्गंध अशुचि है बहुरि स्नानादि संस्कार के अभावतैं बाहयमें वि. शेषकर अशुचि दुर्गंध दीखे है ताकी अवज्ञा न करै सो निविचिकित्सा गुण है. भावार्थ- सम्यग्दृष्टी पुरुषकी प्रधान दृष्टि सम्यक्त्वज्ञानचारित्रगुणनि परि पडै है देह तौ स्वभाव ही करि अशुचि दुर्गंध है तातैं मुनिराजनिकी देहकी तरफ कहा देखे ! तिनिके रत्नत्रयकी तरफ देखे तब काहेकौं ग्लानि आवै. यह ग्लानि न उपजाना सो ही निर्विचिकित्सा गुण जाकै सम्यक्त्व गुण प्रधान न होय ताकी दृष्टि पहली देहपरि पडै तब ग्लानि उपजै तब यह गुण न होय हैं ॥ ४१६ || आगें मूढदृष्टि गुणक कहै हैं, - भयलज्जालाहादो हिंसारंभो ण मण्णदे धम्मो । जो जिणवयणे लीणो अमूढदिट्ठी हवे सो हु ॥११७॥ १६ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) भाषार्थ-जो भयकरि तथा लज्जाकरि तथा लाभकार हिंसाके आरम्भकौं धर्म नाहीं माने, सो पुरुष अमृढदृष्टिगुण संयुक्त है. कैसा है जिनवचनविषै लीन है भगवानने धर्म अहिंसा ही कया है ऐसी दृढ श्रद्धा युक्त है. भावार्थ-अन्य मती यज्ञादिक हिंसा धर्म थापै है ताकौं राजाके भयतै तया काह व्यन्तरके भय तथा लोककी लज्जा तथा किछु ध. नादिकके लाभत इत्यादि अनेक कारण हैं तिनित धर्म न मानै ऐसी श्रद्धा राद जो धर्म तौ भगवानने अहिंसा ही कह्या है ताकै अमूढदृष्टि गुण है. इहां हिंसारम्भके कहने में हिंसाके प्ररूपक देव शास्त्र गुरु आदिविष भी मूढष्टि न होय है ऐसा जानना ।। ४१७॥ भागें उपगृहन गुणकौं कहै हैं,जो परदोसं गोवदि णियसुकयं णो पयासदे लोए। भवियव्वभावणरओ उवगृहणकारओ सो हु ४१८ ___ भाषार्थ--जो सम्यग्दृष्टी परके दोषकौं तौ गोपै ढाकै ब हुरि अपना सुकृत कहिये पुण्य गुण लोकविर प्रकाश नाही कहता न फिरै. बहुरि ऐसी भावनामें लीन रहै जो भवितव्य है सो होय है तथा होयगा सो उपग्रहन गुण करने वाला है. भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके ऐसी भावना रहे है जो क. मका उदय हे तिस अनुसार मेरे लोकमें प्रवृत्ति है सो होणी है सो होय है. ऐसी भावनाते अपना गुणको प्रकाशता फिर नाही, परके दोष प्रगट करै नाही, बहुरि साधर्मी जन तथा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४३) पूज्य पुरुषनिमें कोई कर्मके उदयनै दोष लागे तो ताओं छिपावै, उपदेशादिकरि दोष छुडावै, ऐसै न करै जामें किनिकी निन्दा होय, धर्मकी निन्दा होय, धर्म धर्मात्ममें दोपका अभाव करना है सो छिपावना भी अभाव ही करना है. जाकौं लोक न जानै सो प्रभाव तुल्य ही हैं ऐसे उपगृहन गुण होय है ॥ ४१८॥ ___आगे स्थितिकरण गुणकौं कहै हैं,धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं पि सुदिढयदि ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥ ___ भाषार्थ-जो अन्यकौं धर्म में चलायमान होतेकौं धर्मविषै स्थापै तथा अपने प्रात्माकौं भी चलनेते रद कर तिसकै निश्चयः स्थितिकरण गुण होय है. भावार्थ-धर्म” चिगनेके अनेक कारण हैं सो निश्चय व्यवहाररूप धर्मः परकौं तथा आपकू चिगता जाणि तथा उपदेश” तथा जैसे होय तेसैं दृढ करे, ताकै स्थितिकरण गुण होय है ॥ ४१९ ॥ __आगें वात्सल्य गुणकू कहै हैं,जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। पियवयणं जपंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥ ४२०॥ भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव धार्मिक कहिये सम्यग्दृष्टी श्रावक मुनि निविष तौ भक्तिवान् होय, बहुरि तिनिके अ. नुसार प्रवर्त्त, परम श्रद्धाकरि प्रियवचन बोलता संता प्रवत्त Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) • तिस भव्य वात्सल्यगुण होय है. भावार्थ - वात्सल्य गुण में धर्मानुराग प्रधान है उत्कृष्टकरि धर्मात्मा पुरुषनिसूं जाकै भक्ति अनुराग होय तिनिमें प्रियवचन सहित प्रवचै तिनिकूं भोजन गमन आगमन आदिकी क्रियाका अनुचर होय प्रवर्ते, गाय बछरेकीसी प्रीति राखे ताकेँ बात्सल्य गुण होय है ॥ ४२० ॥ आगे प्रभावना गुणकं क है हैं, - जो दसभेयं धम्मं भव्वजणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स २१ भाषार्थ - जो सम्यग्दृष्टी दशभेदरूप धर्मकौं भव्य जी - afts free अपने ज्ञानकरि प्रगट करें तथा अपनी आमrat दशप्रकार धर्मकरि प्रकासै ताकै प्रभावना गुण होय है. भावार्थ - धर्मका विख्यात करना सो प्रभावना गुण है. सो उपदेशादिककरि तौ परके विषै धर्म प्रगट करै, अर - ना आत्माकौं दशविध धर्म अंगीकारकरि कर्म कलंकतै रहितकरि प्रगट करै ताकेँ प्रभावना गुण होय है ।। ४२१ ॥ जिणसासणमाहप्पं बहुविहजुचीहिं जो पयासेदि । तह तिब्वेण तवेण य पहावणा णिम्मला तस्स २२ भाषार्थ - जो सम्यग्दृष्टी पुरुष अपने ज्ञानके बलतें अनेक प्रकार युक्तिकरि बादीनिका निराकरणकार तथा न्याय व्याकरण छंद अलंकार साहित्य विद्याकरि वक्तापणा वा शास्त्र- : # Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) निकीरचना करि तथा अनेकमकार युक्तिकरिवादीनिकानि. राकरणकरि तथा अनेक अतिशय चमत्कार पूजा प्रतिष्ठा तथा महान् दुदर तपश्चरणकरि जिनशासनका माहात्म्य प्रगद करै ताकै प्रभावना गुण निर्मल होय है. भावार्थ-यह प्र. भावना गुण बडा गुण है यात अनेक अनेक जीवनिकै धमकी रुचि श्रद्धा उपजि आवै है तातें सम्यग्दृष्टी पुरुषनिकै अवश्य होय है ॥ ४२२ ॥ ____आगे निःशंकित आदि गुण किस पुरुषकै होंय ताकौं जो ण कुणदि परतात्तं पुण पुण भावेदि सुद्धमप्पाणं। इंदियसुहणिरवेक्खो णिस्संकाईगुणा तस्स ॥ २३ ॥ ___ भाषार्थ-जो पुरुष परकी निंदा न करै बहुरि शुद्ध प्रास्माकौं बार बार भाव बहुरि इन्द्रिय सुखकी अपेक्षा. बांछा रहित होय ताकै निःशंकित आदि अष्टगुण अहिंसाधर्मरूप सम्यक्त्व होय है. भावार्थ-इहां तीन विशेषण हैं तिनिका तापर्य यह है कि जो परकी निंदा करै ताकै निर्विचिकित्सा पर उपगृहन स्थितिकरण गुण कैसे होय तथा बात्सल्य कैसे होय ताते परका निंदक न होय तब ये चार गुण होय हैं. बहुरि जाकै अपना आत्माका वस्तु स्वरूपमें शंका संदेह होय तथा मूढ दृष्टि होय सो अपने आत्माकौं वारम्बार शुद्ध कैसैं भावै तातै शुद्ध आपकौं भाव ताहीकै निशिंकित वया अमूढदृष्टि गुण होय. तथा प्रभावना भी ताहीक होय Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) बहुरि जाकै इन्द्रियसुखकी वांछा होय ताकै निःकांक्षित गुण नाहीं होय. इन्द्रिय सुखकी बांछातें रहित भये ही नि:कांक्षित गुल होय. ऐसें आठ गुण के संभवने के तीन विशेषण हैं | आगे एक हैं- ये आठ गुण जैसे धर्मविषै कहे तैसें देव गुरु आदिविषै भी जानने, णिस्संका पहुदिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुचे । जाणेहि जिणमयादो सम्म विसोहया एदे ॥ २४ ॥ भाषार्थ - ए निःशंकित आदि आठ गुण कहे ते धर्मविषे प्रकट होते कहे तैसे ही देवके स्वरूपविषै तथा गुरुके स्वरूपविषै तथा षद्रव्य पंचास्तिकाय सप्त तत्व नव पदाथेनिके स्वरूपविषै होय हैं. निनिकौं प्रवचन सिद्धान्ततैं जानने. ए आठ गुण सम्यक्त्वकौं निरतिचार विशुद्ध करने - वाले हैं. भावार्थ - देव गुरु तत्वविषै शंका न करणी, तिनिकी यथार्थ श्रद्धा इन्द्रिय सुखकी बांछा रूप कांक्षा न करणी, तिनिमें ग्लानि न ल्यावनी, तिनिविषै मूढदृष्टि न राखणी, तिनिके दोषनिका अभाव करना तथा तिनिका ढांकना, तिनिका श्रद्धान दृढ करना, विनिकै वात्सल्य विशेष अनुराग करना, तिनकी महिमा प्रकट करनी ऐसें म्राठ गुण इनिविषै जानने. इनिकी कथा आगे सम्यग्दृष्टो भये तिनिकी जिनशास्त्रनितें जाननी, अर ये आठों गुण सम्पक्त्वके अतीचार दूरकरि निर्मल करनहारे हैं ऐसें जानना ।। ४२४ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) आगे इस धर्मके करनेवाला तथा जाननेवाला दुर्लभ है ऐसें कहै हैं, - धम्मं ण मुणदि जीवो अहवा जाणेइ कहवि कट्टेण । काउं तो वि ण सक्कादे मोहपिसाएण भोलविदो ॥ भाषार्थ - या संसार में प्रथम तो जीव धमकौं जाणे ही नाहीं है बहुरि कोई प्रकार बडा कष्टकरि जो जा भी तौ मोहरूप पिशाचकरि भ्रमित किया हुवा करनेकौं समर्थ नाहीं होय है. भावार्थ - अनादिसंसारतें मिध्यात्वकरि भ्रमित जो यह प्राणी प्रथम तौ धर्मकौं जाणे ही नाहीं है बहुरि कोई काललब्धितें गुरुके संयोगत ज्ञानावरणीके क्षयोपशमतें जाने भी तो ताका करना दुर्लभ है ।। ४२५ ।। मागे धर्मका ग्रहणका माहात्म्य दृष्टांतकरि कहे हैं, - जह जीवो कुणइ रई पुत्तकल कामभोगे । तह जइ जिणिदधम्मे तो लीलाए सुहं लहादे २६ भाषार्थ - जैसे यह जीव पुत्र कलत्रविषै तथा काम भोगविषै रति प्रीति करे है तैसें जो जिनेन्द्रके वीतराग धर्मविषे करै तौ लीला मात्र शीघ्र कालमें ही सुखकूं प्राप्त होय है। भावार्थ - जैसी या प्राणीके संसारविषै तथा इंन्द्रियनिके विषय प्रीति है तैसी जो जिनेश्वरके दश लक्षण धर्म स्वरूप जो वीतराग धर्म ताविषे प्रीति होय तौ थोडेसे ही कालविषै मोक्षकूं पावै ॥ ४२६ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) कहै हैं जो जीव लक्ष्मी चाहे हैं सो धर्मविना कैसे होय :लच्छ बंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणई । वीएण विणा कुत्थ वि किं दीसदि सस्सणिप्पत्ती ॥२७॥ भाषार्थ - यह जीव लक्ष्मीकों चाहे है बहुरि जिनेन्द्रका का मुनि श्रावक धर्मविषै आदर प्रीति नाहीं करै है तौलक्ष्मीका कारण तौ धर्म है, तिस विना कैसे वे ? जैसे वीज विना धान्यकी उत्पत्ति कहूं दीखै है ? नाहीं दीखे है. भावार्थ - बीज विना धान्य न होय तैसें धर्मविना संपदा न होय यह प्रसिद्ध है || ४२७ ॥ या धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति कहे हैं, - जो धम्मत्थो जीवो सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं ता परदव्वं वज्जइ जणणिसमं गणइ परदारं ॥ २८ ॥ भाषार्थ - जो जीव धर्मविषै तिष्ट है सो वैरीनिके समू हविषै क्षमाभाव कर है बहुरि परका द्रव्यकों तजै है, अंगीकार नाहीं करै है . बहुरि परकी स्त्रीकूं कन्या माता बहन समान गिणे है ॥ ४२८ ॥ ता सव्वत्थ वि कित्ती ता सव्वस्स वि हवेइ वीसासे । ता सव्वं पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणई ॥ २९॥ भाषार्थ - जो जीव धर्मविषै तिष्टै है तो सर्व लोकमें ताकी कीर्त्ति होय है. बहुरि ताका सर्वलोक विश्वास करें Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४९) है. बहुरि सो पुरुष सर्वौं प्रियवचन कहै है जात कोई दुःख न पावै है. बहुरि सो पुरुष अपने घर परके मनकौं शुद्ध उ. ज्वल करै है कोईके यासू कालिमा न रहै. तैसैं याकै भी कोईसं कालिमा न रहै है. भावार्थ-धर्म सर्वप्रकार सुखदाई है। आगे धर्मका माहात्म्य कहै हैं,उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ॥ ४३०॥ भाषार्थ-सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मकरि संयुक्त जीव है सो तिर्यंच भी देव पदईकौं पावै है. बहुरि चांडाल है सो भी देवनिका इन्द्र प्तम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मकरि होय है। अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तम रयणं जीवस्स सुधम्मादो देवा विय किंकरा होंति ॥३॥ भाषार्थ-या जीवकै उत्तम धर्मः अग्नि तौ हिम (शीतल पाला) हो जाय है. बहुरि सर्प है सो उत्तम रत्ननिकी माला हो जाय है बहुरि देव हैं ते भी किंकर दास होय हैं। उकं च गाथा,-- तिक्खं खग्गं माला दुजयरिउणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पिआमयं महापया संपया होदि ॥१॥ __ भाषार्थ-उत्तम धर्म सहित जीवकै तीक्ष्ण खड्ग सो फूलमाला होय जाय है. बहुरि दुर्जय इसा जो जीत्या न जाय रिषु जो वैरी सो भी सुखका करवावालासुजन कहिये मित्र Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) समान होय है, बहुरि हलाहल जो जहर सो भी अमृतसमान परिणवै है, बहुत कहा कहिये महान् बडी भापदा भी संपढ़ा होय जाय है ॥ १ ॥ आलियवयणं पि सञ्चं उज्जमरहिये विलच्छि संपत्ती | धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि ३२ भाषार्थ - धर्म के प्रभावकरि जीवके मूंठ वचन भी सत्य वचन होय हैं, बहुरि उद्यम रहितके भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होय है बहुरि अन्यान्य कार्य भी सुखका करनहारा होय है भावार्थ - इहां यह अर्थ जानना जो पूर्वै धर्म सेया होय तौं ताके प्रभाव इहां झूठ बोलै सो भी सांची होय जाय. उयमविना भी संपत्ति मिले, अन्याय चालै तौ भी सुखी रहै. अथवा कोई झूठ वचनका तूदा ( वायदा) लगावै तौ धीजमें ( अंत में) सांचा होय, अन्याय कीया लोक कहै है तौ न्यायवालेकी सहाय ही होय ऐसा भी जानना । धर्मरहित जीवकी निंदा कहै हैं,देवो विधम्मचचोमिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की विधानरहिओ णिवडइ णरए ण संपदे होदि भाषार्थ - धर्मकरि रहित जीव हैं सो मिध्यात्वका वसकरि देव भी वनस्पतिका जीव एकेन्द्रिय आय होय है. बहुरि चक्रवर्ती भी धर्मकरि रहित होय तब नरकविषै पडै है जातें पाप है सो संपदा अर्थ नाहीं है । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) धम्मविहीणी जीवो कुणइ असज्झपि साहसं जइविं तो विपावदि इट्टं सुट्टु अणिट्ठे परं लहदि ३४ भाषार्थ - धर्मरहित जीव है सो यद्यपि बडा असहवे योग्य साहस पराक्रम करै तौऊ ताके इष्ट वस्तुकी प्राप्ति न होय केवल उलटा अतिसैकरि अनिष्टकं प्राप्त होय है । भावार्थ- पापके उदयतें भली करतें बुरा होय है यह जगप्रसिद्ध है ॥ ४३४ ॥ इय पच्चक्खं पिच्छिय धम्माहम्माण विविमाहप्पं । धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ३५ भाषार्थ हे प्राणी हो या प्रकार धर्म अर अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखिकरि तुम धर्मकूं आदरौ र पापकूं दूरहोतें परिहरौ. भावार्थ - प्राचार्य दशमकार धर्म का स्वरूप कहिकरि अधर्मका फल दिखाया. अब इहां यह उपदेश कीया है जो हे प्राणी हौ ! जो प्रत्यक्ष धर्म अधर्मका फल लोकविषै देखि धर्मकूं आदरौ पापकं परिहरौ. आचार्य बडे उपकारी हैं निष्कारण आापकूं किछू चाहिये नाहीं. निस्पृह भये संते जीवनिके कल्याणही के अर्थ बारंवार कहिकरि प्राणीनिक चेत करावे हैं, ऐसे श्रीगुरु बन्दने पुजने योग्य हैं. ऐसें यतिधर्मका व्याख्यान किया । दोहा । मुनिश्रावक भेद, धर्म दोय परकार । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२) · ताकू सुनि चितवो सतत, गहि पावौ भवपार ॥१२॥ इति धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ १२ ॥ अथ द्वादश तपांसि कथ्यंते. आगे धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिकाकू कहता सता आचार्य बारहप्रकार तपके विधानका निरूपण करै है,बारसभेओ भणिओ णिज्जरहेऊ तवो समासण, तस्स पयारा एदे भणिजमाणा मुणेयवा ॥ ३६॥ ___ भाषार्थ-तप है सो बारह प्रकार संक्षेपकरि जिनागमः विष कह्या है. कैसा है ?कर्म निजराका कारण है तिसके प्र. कार भागें कहेंगे ते जानने. भावार्थ-निर्जराका कारण तप है सो बारहप्रकार है. वाडके अनशन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश ऐसे छः प्रकार. बहुरि अन्तरंगका प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान ऐसे छह प्रकार. इनिका व्याख्यान अब करिये हैं तहां प्रथम ही अनशन नाम तप• च्यारि गाथाकरि कहै हैं,उवसमणं अक्खाणं उववासो वण्णिदो मुर्णिदेहि । तमा भुजुता वि य जिदिदिया होंति उववासा ॥ ३७ ॥ भाषार्थ--मुनीन्द्र हैं तिनिने इन्द्रियनिका उपवास कहिये विषयनिमें न जानै देना पनकं अपने आत्मस्वरूपविर्षे लगावणा सो उपवास. कहा है. तातें जितेन्द्रिय हैं ते Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) आहार करते भी उपवास सहित ही कहिये. भावार्थ-इंद्रि यका जीतना सो उपवास सो यतिगण भोजन करते भी उपवासे ही हैं जाते इंद्रियनिकू वशीभूतकरि प्रवत हैं। जो मणइंदियविजई इहभवपरलोयसोक्खाणिरवेक्खो अप्पाणे चिय णिवसइ सज्झायपरायणो होदि ॥ ३८ ॥ कम्माण णिजरहें आहारं परिहरेइ लीलाए। एगादणादिपमाणं तस्स तवो अणसणं होदि ॥४३९॥ भाषार्थ-जो मन इंद्रियनिका जीतनहारा है बहुरि इस भव परभवके विषयसुखनिविष अपेक्षा रहित है बांछा नाही कर है बहुरि अपने प्रात्मस्वरूप ही विष वस है. अथवा स्वा. ध्यायविषै तत्पर है । बहुरि एक दिनकी मर्यादातें कर्मनिकी निर्जराके अर्थ क्रीडा कहिये लीलामात्र ही क्लेश रहित हषत आहारको छोडै है ताकै अनशन तप होय है. भावार्यउपवासका ऐसा अर्थ है जो इंद्रिय मन विषयनिविष भट्टतित रहित होय प्रात्मामें बसै सो उपवास है. सो ईद्रियनिका जीतना विषयनिकी इसलोक परलोक सम्बन्धी बांछा न करनी, कै तौ आत्मस्वरूपविषे लीन रहना, के शास्त्रके अभ्यास स्वाध्यायविषै मन लगावणा ए तौ उपवासविष प्रधान हैं. बहुरि क्लेश न उपजै जैसे क्रीडामात्र एक दिनकी मर्यादारूप पाहारका त्याग करना ऐसे उपवास नामा अन. शन तप होय है ॥ ४३८-४३९ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) उववासं कुव्वाणो आरंभ जो करेदि मोहादो । तस्स किलेसो अवरं कम्माणं णेव णिज्जरणं ॥ ४० ॥ भाषार्थ - जो उपवास करता संता मोहतें आरंभ गृहकार्यादिक्कं करै है ता पहिलै तौ गृहकार्यका क्लेश था ही बहुरि दुसरा भोजन विना क्षुधा तृष्णाका क्लेश भया ऐसें होतें क्लेश ही भया कर्मका निर्जरण तौ न भया. भावार्थआहारको तौ छोडै र विषय कषाय आरंभकूं न छोडे ताकै मागें तौ क्लेश था हो दुसरा क्लेश भूख तिसका भया ऐसे उपवास में कमकी निर्जरा कैसे होय १ कपकी निर्जरा तौ सर्व क्लेश छोडि साम्यभाव करें होय है, ऐसा जानना ॥ ४४० ॥ आगें अवमोदर्य तपकूं दोय गाथाकरि कहै हैं, - आहारगिरिहिओ चरियामग्गेण पासुगं जोग्गं । अप्पयरं जो भुंजइ अवमोदरियं तवं तस्स ॥ ४१ ॥ भषार्थ - जो तपस्वी आहारकी अनिचाहरहित हूवा सुत्रोक्त चर्याका मार्गकरि योग्य प्रासूक आहार अतिशय करि अल्प ले, तिसकै अमोदर्य तप होय है. भावार्थ- मुनि श्राहारके छियालीस दोष टाले है बत्तीस अंतराय टाले है चौ. दह मल रहित मासु योग्य भोजन ले है तौऊ ऊनोदर तप करे, तामें अपने आहार के प्रमाण थोडा ले, एक ग्रासतें Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५५ ) लगाय बत्तीस ग्रास ताई आहारका प्रमाण कहया है तामें यथा इच्छा घटती ले सो भवमोदर्यतप है । ४४१ ॥ जो पुण कित्तिणिमित्तं मायाए मिट्ठभिक्खलाहट्टं । अप्पं भुजदि भोज्जं तस्स तवं णिष्फलं विदियं ॥ ४२ ॥ भावार्थ- जो मुनि कीर्त्तिके निमित्त तथा माया कपट करि तथा मिष्ट भोजनके लाभके अर्थ अल्प भोजन करे है तपका नाम करे है तार्के तो दूसरा अवमोदर्य तप निष्फल है. भावार्थ- जो ऐसा विचारे अल्प भोजन कियेसूं मेरी कीर्ति होयगी. तब कपटकार लोककौं भुलावा दे किछूमयोजन साधने के निमित्त तथा यह विचारे जो थोडा भोजन किये भोजन मिष्ट रससहित मिलेगा ऐसे अभिप्रायतें ऊनोदर तप करे तो ताके निष्फल है. यह तप नाहीं पाखंड है। आर्गे वृत्तिपरिसंख्यान तपकौं कहै हैं, गादिगिहपमाणं किं वा संकष्पकप्पियं विरसं । भोज्जं पसुव्व भुंजइ विचिपमाणं तवो तस्स ॥ ४३ ॥ भाषार्थ - जो मुनि आहारकूं उतरे तब पहले मनमें ऐसी मर्याद करि चालै जो आज एक ही घर पहले मिलेगा तौ श्राहार लेवेंगे नातर फिर श्रावेंगे तथा दोय घर तांई जांयगे ऐसें मर्याद करै, तथा एक रस ताकी मर्याद करें तथा देनेवालेकी मर्याद करै तथा पात्रकी मर्याद करै ऐसा दातार ऐसी रीवि एसे पात्रमें लेकर देवैगा तौ लेवेंगे. तथा श्राहारकी Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६) अर्यादकरै सरस तथा नीरस तथा फलाणा अन्न मिलेगा नौ लेवैगे इत्यादि वृत्तिकी संख्या गणना मर्गदा मनमें विचार चालै तैसे ही मिले तो लेप अन्यथा न लेय. बहुरि आहार लेय तब पशु गऊ प्रादिकी ज्यों करै. जैसे गऊ इतउत देखें नाही चरनेहीकी तरफ देख तेसै ले, तिसके दृचिपरिसंख्याजतप है. भावार्थ-भोजनकी आशाका निराप करनेकौं यह तप है संकल्प माफिक विधि मिलना दैव योग है यह बड़ा कठिन तप महामुनि करै हैं ॥ ४१३ ॥ ____ आगे रस परित्यागतपकौं कहै हैं,संसारदुक्खतट्ठो विससमविमयं विचिंतमाणो जो। णीरसभोज्जंभुंजइ रसचाओ तस्स सुविसुद्धो॥४४॥ भाषार्थ-जो मुनि संमार दुःखमूं तप्तायमान हूवा ऐसे विचार करता है जो इन्द्रियनिके विषय हैं ते विष सरीखे हैं विष खाये एकवार मरै है विषय सेये बहुत जन्म मरण होय हैं. ऐसा विचारि नीरस भोजन करै है ताकै रसपरित्याग तप निर्मल होय है. भावार्थ-रस छह प्रकार के हैं घृत तैल दधि मिष्ट लवण दुग्ध ऐसे बहुरि खाटा खारा मीठा कडु. वा तीखा कषायला. ए भी रस कह्या है विनिका जैसैं इ. च्छा होय तैसें त्याग करै. एक ही रस छोडै, दोय रस छोडै तथा सर्व ही छोडै ऐसे रसपरित्याग तप होय है. इहाँ कोई पूछ रसत्यागकौं कोई जाणे नाहीं मनहींमें त्याग करे वो ऐसे ही चिपरिसंख्यान है यामें वामें कहा विशेष ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७) ताका समाधान, वृत्ति परिसंख्यानमें तौ अनेक रीतिनिकी संख्या हैं इहां रसहीका त्याग हैं यह विशेष है. बहुरि यह भी विशेष जो रसपरित्याग तो बहुत दिनका भी होय ताडूं श्रावक जाणि भी जाय र वृत्तिपरिसंख्यान बहुत दिनका. होय नाहीं ॥ ४४४ ॥ भागें विविक्तशय्यासन तपळू कहै हैं,जो रायदोसहेदू आसणसिज्जादियं परिचयई। अप्पा णिविसय सया तस्स तवो पंचमो परमो॥ भाषार्थ-जो मुनि रागद्वेषके कारण जे भासन पर शय्या इनि आदिकौं छोडे बहुरि सदा अपने प्रात्मस्व. रूपविषै बसे भर निषिय कहिये इन्द्रियनिके विषयनित विरक्त होय तिम मुनिके पांचमा तप विविक्तशय्यासन उत्कृष्ट होय है. भावार्थ-आसन कहिये बैठनेका स्थान अर शय्या कहिये सोचनेका स्थान, भादि शब्दसे मलमूत्रादि क्षेपनेका स्थान, ऐसा होय जहां रागद्वेष न उपनै अर वीतरागता बघे ऐसा एकान्त स्थानक होय तहां बैठे सोवै. जाते मुनिनिकौं अपना अपना स्वरूप साधना है इन्द्रियविषय सेवने नाहीं हैं तातै एकान्त स्थानक कहा है ॥ ४४५ ॥ पूजादिसु णिरवेक्खो संसारसरीरभोगणिविण्णो । अभंतरतवकुसलो उवसमसीलो महासंतो ॥ ४४६॥ जो णिवसेदि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) अण्णत्थ वि एयंते तस्स वि एदं तवं होदि ॥४४७॥ भाषार्थ-जो महामुनि पूजा आदिविषै तौ निरपेक्ष है अपनी पूना महिमादिक नाहीं चाहै है, बहुरि स्वाध्याय ध्यान आदि जे अंतरंग तर तिनिविष प्रवीण है, ध्यानाध्य. यनका निरन्तर अभ्यास राखे है, बहुरि उपशमशील कहिये मंद कषायरूप शान्तपरिणाम ही है स्वभाव जाका, बहुरि महा पराक्रमी है, क्षमादिपरिणाम युक्त है, ऐसा महामुनि मसाण भूमिविषै तथा गहन वनविष तथा जहां लोक न प्रदत्त, ऐसे निर्जनस्थानविषै तथा महाभयानक उद्यानविषै तथा अन्य भी ऐसा एकान्त स्थानविषै जो वसै ताके निश्चय यह विविकशय्यासन तप होय है. भावार्थ-महामुनि विविक्तशय्यासन तप करै है सो ऐसें एकान्त स्थान में सोवे बैठे है जहां चित्तके क्षोभके करनेहारे कछू भी पदार्थ न होय. ऐसे सूने घर गिरिकी गुफा वृक्ष के मूल तथा स्वयमेव गृहस्थानके बणाये उद्यानमें वस्तिकादिक देव मन्दिर तया मसाणभूमि इत्यादिक एकांत स्थानक होंय तहां ध्यानाध्यपन करे है जाते देहतै तौ निर्ममत्व है विषयनित विरक्त है, अपने आत्मस्वरूपविषै अनुरक्त है सो मुनि विविक्तः शय्यासनतपसंयुक्त है ॥ ४४६-४४७॥ आगे कायक्लेशतपकू कहै हैं,दुस्सहउवसग्गजई आतावणसीयवायखिण्णो वि । जो ण वि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५९) भाषार्य-जो मुनि दुःसह उपसर्गका जीतनहारा आतापसीत वातकरि पीडित होय खेदकुं प्राप्त न होय, चिचमें क्षोम क्लेश न उपजे तिस मुनिके कायक्लेश नामा तप होय है। भावार्थ-महामुनि ग्रीष्मकालमें तौ पर्वतके शिखर आदि विष जहां सूर्यके किरणिनिका अत्यन्त आताप होय तलें भूमि शिलादिक तप्तायमान होय तहां अातापनयोग धारे हैं. बहुरि शीतकालमें नदी आदिके तटविष चोडे जहां अति शीत पडै दाह वृक्ष भी दाहे जांय तहां खडे हैं. बहुरि चतुर्मासमें वर्षा वरसै प्रचंड पवन चाले दंशमशक का ऐसे समय वृक्षके तले योग धारे हैं. तथा अनेक विकट आसन करे हैं ऐसे अनेक कायक्लेशके कारण मिलावे हैं अर सा. म्यभावः चिग नाहीं हैं. जाने अनेक प्रकारके उपसर्गके जीतनहारे हैं तातै चिचविषै जिनके खेद नाहीं उपज है. अपने स्वरूपके ध्यानमें लगे हैं तिनके कायक्लेशनामा तप होय है. जिनके काय तथा इंद्रियनिसू ममत्व होय है तिनिके चिचमें क्षोभ हो है ए मुनि सर्वते निस्पृह व हैं तिनकू काहेका खेद होय ? ऐसे छहप्रकर वाह्यतपका निरूपण किया, ___ आगे छहप्रकार अंतरंग तपका व्याख्यान करै हैं ताँ प्रथम ही प्रायश्चित्तनामा तपकू कहै हैं,दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुवाणं पि ण इच्छइ तस्स विसोही परो होदि ४४९ भाषार्थ-जो मुनि माप दोष न करै अन्य पास दोष Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) न करावै दोष करता होय ताळू इष्ट भला न जाणे तिसकै उत्कृष्ट विशुद्धि होय है. भावार्थ-इहां विशुद्धि नाम प्रायश्चिः तका है जातें 'प्रायः' शब्दकरि तौ प्रकृष्ट चारित्रका ग्रहण है ऐसा चारित्र जाके होय सो 'माया' कहिये साधु लोक ताका चित्त जिस कार्यविष होय है सो प्रायश्चित्त कहिये, सो आत्माकै विशुद्धि करै सो पायश्चित है बहुरि दुसरा अर्थ ऐसा भी है जो प्रायः नाम अपराधका है ताका चित्त कहिये शुद्ध करना सो भी प्रायश्चित्त कहिये. ऐसे पूर्व कीये अपराधते जातें शुद्धता होय सो प्रायश्चित्त है. ऐसे जो मुनि मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि दोष नाही लगावै ताकै उत्कृष्ट विशुद्धता होय. यही प्रायश्चित्तं नामा तप है ।। ४४९॥ अह कहवि पमादेण य दोसो जदि एदितं पि पयडेदि णिदोससाहुमूले दसदोसविवज्जिदो हो, ॥ ४५० ॥ ___ भाषार्थ-अथवा कोई प्रकार प्रमादकरि अपने चारित्रमें दोष आया होय तौ ताईं निर्दोष जे साधु प्राचार्य उनके निकट दश दोषवर्जित होयकरि प्रकट करै आलोचना करै. भावार्थ-अपने चारित्रमें दोष प्रमादकरि लग्या होय तौ १ यत्याचारोक्तं दशप्रकारे प्रायश्चित्तं । १ आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विओसग्गो। बवछेदो मूलं,पि य परिहारा चेव सद्दहणं ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) • आचार्य पास जाय दशदोषवर्जित भालोचना करें. ते प्रेमाद- इन्द्रिय ५ निन्द्रा १ कषाय ४ विकथा ४ स्नेह १ थे पांच हैं तिनके पंदरह भेद हैं भंगनिकी अपेक्षा बहुत भेद होय हैं तिनिकरि दोष लागे है. बहुरि आलोचनाके दर्श दोष हैं तिनिके नाम प्राकंपित १ अनुमानित २ वादर ३ सूक्ष्म ४ दृष्ट ५ प्रच्छन्न ६ शब्दाकुलित ७ बहुजन ८ अव्यक्त ९ तत्सेवी १० ए दश दोष हैं. तिनिका अर्थ ऐसा जो प्राचार्यकूं उपकरणादि देकरि आपकी करुणा उपजाय आलोचना करें जो ऐसें कीये प्रयश्चित थोडा देसी, ऐसा विचारै तौ यह आकंपितदोष है. बहुरि वचन ही करि प्राचार्यनिकी बडाई श्रादिकरि बालोचना करै अभिप्राय ऐसा राख जो आचार्य मोसूं प्रसन्न रहे तौ प्रायश्चित्त थोडा बतावै, ऐसें अनुमानित दोष है, बहुरि प्रत्यक्ष दृष्टदोष होय सो कहै अदृष्ट न कहै सो दृष्टदोष है. बहुरि स्थूल बढा दोष तौ कहै सूक्ष्म न कहै सो वादरदोष है, बहुरि सूक्ष्म दोष ही कहै वादर न कहै यह जनावै यानें सूक्ष्म ही कह दिया सो बादर काकूं छिपावै सो सूक्ष्मदोष है. बहुरि छिपाकर ही कहै कोई अन्य अपना दोष कला है तब (१) विकहा तहा कषाया इंदिय णिद्दा तहेव पणओ य । चर चर पण मेगेगं होदि पमादा हु पण्णरसा ॥ १ ॥ [ २ ] आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठ वादरं च सुहमं च । छष्णं सद्दाउलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ २ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) कहै ऐसा ही दोष मोकं लाग्या है ताका नाम प्रकट न करें सो प्रच्छन्न दोष है. बहुरि बहुत शब्दका कोलाहल विष दोष कहै अभिप्राय ऐसा कोई और न सुणै तहां शब्दाकुलित दोष है. बहुरि गुरु पासि आलोचनाकरि फेरि अन्य गुरुपासि आलोचना करै अभिप्राय ऐसा जो याका प्रायश्चित्त देखें, अन्य गुरु कहा क्तावै, ऐसैं बहुजननामा दोष है. ब. हुरि जो दोष व्यक्त होय सो कहै अभिप्राय ऐसा-जो यह दोष छिपाया छिपे नाहीं कहया ही चाहिये. सो अव्यक्त दोष है. बहुरि अन्य मुनिने लाग्या दोषकी गुरुषासि आलोचनाकरि प्रायश्चित्त लिया देखकरि तिल समान आपकू दोष लाग्या होय ताकी आलोचना गुरुषासि न करै आपही प्रा. यश्चित्त लेवे, अभिप्राय दोष प्रगटकरनेका न होय सो त. सेवी दोष है. ऐसे ददोषरहित सरलचित्त होय बालककी ज्यों आलोचना करै ।। ४५० ॥ जं किंपि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सखाए। जो पुण हियए संकदि किं थोवं किमु वहुवं वा ४५१ भाषार्थ-दोषकी आलोचना करे पीछे जो किछु आचार्य प्रायश्चित्त दीया तिस सर्व ही• श्रद्धाकरि कर. हृदयविष ऐसे शंका संदेह न करै जो ए प्रायश्चित्त दिया सो थोडा है कि बहुत है. भावार्थ-प्रायश्चित्त के तत्त्वार्थ सूत्रमें नव भेद कहे हैं. आलोचन प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युसर्ग तपश्च्छेद परिहार उपस्थापना, तहां पालोचना नौ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६३) दोषका यथावत् कहना, प्रतिक्रमण-दोषका मिथ्या करावना, तदुभय-आलोचन प्रतिक्रमण दोऊ करावना, विवेकआगामी त्याग करावना, व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करावना, तप, छेद कहिये दीक्षा छेदन, बहुत दिनके दीक्षितळू थोड़े दिनका करना, परिहार-संघबाहय करना, उपस्थापना फेरि नवा सिरतें दीक्षा देना. ऐसे नव हैं इनिके भी अनेक भेद हैं. तहां देश काल अवस्था सामर्थ्य दृषणका विधान देखि यथाविधि आचार्य प्रायश्चित्त देहैं ताकू श्रद्धाकरि अंगीकार करै तामें संशय न करै ॥४५१ ॥ पुणरवि काउं णेच्छदि तं दोसं जइवि जाइ सयखंडं। एवं णिच्चयसहिदो पायच्छिचं तवो होदि ॥ ४५२ ॥ भाषार्थ-लाग्यादोषका प्रायश्चित्त लेकरि तिस दोष... किया न चाहै जो आपके शतखंड भी होय तौ न करै ऐसे निश्चय सहित प्रायश्चित्त नामा तप होय है. भावार्थऐसा दिढचित्त करै जो लाग्या दोषकों फेरि अपना शरीरके शतखंड होय जाय तौऊ सो दोष न लगावै सो प्रायः श्चित्त तप है ॥ ४५२ ॥ जो चिंतइ अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी। विकहादिविरचमणो पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५३ ॥ __ भाषार्थ-जो बानी मुनि श्रात्माकू ज्ञानस्वरूप फेरि फेरि वारंवार चितवन करै, बहुरि विकयादिक प्रमादनिते Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) विरक्त हूवा संता ज्ञानहीकू निरन्तर सेवै, ता श्रेष्ठपायश्चित होय. भावार्थ-निश्चय प्रायश्चित्त यह है जामें सर्वप्रायश्चितके भेद गर्मित हैं जो प्रमादर्ते रहित होय अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप प्रात्माका ध्यान करना यात सर्व पापनिका प्रलय होय है ऐसे प्रायश्चित्तनामा अभ्यन्तर तपका भेद कहया ॥ ४५३ ॥ ___ आगे विनय तपकौं गाथा तीनिकरि कहै हैं,विणयो पंचपयारो देसणणाणे तहा चरिचे य । वारसभेयम्मि तवे उवयारो बहुविहो णेओ ॥ ४५४ ॥ भाषार्थ-विनय पांच प्रकार है दर्शनदि ज्ञानविष तथा चारित्रविष बारह भेदरूप तपविषै पर उपचार विनय सो यह बहुत प्रकार जानना ॥ ४५४ ।। दसणणाणचरिचे सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। वारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसि ४५५ ___ भाषार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र इनिविषै बहुरि बारहमेदरूप ताकेविषै जो विशुद्ध परिणाम होय सो ही तिनिका विनय है. भावार्थ-सम्यग्दर्शनके शंकादिक अतीचार रहित परिणाम सो दर्शनका विनय है. बहुरि ज्ञानका संशयादिर. हित परिणाम अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय है.व. हुरि चारित्रकौं अहिंसादिक परिणामकरि अतीचाररहित पालना सो चारित्रका विनय है. बहुरि तसे ही तपके भेद Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५) निकौं निरखि देखि निर्दोष पालने सो तपका विनय है ४५५ रयणतयजुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ ४५६ भाषार्थ-जो रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका धारक मुनिनिके अनुकूल भक्तिकरि आचरण करै जैसैं राजाके पाकर गजाके अनुकूल प्रवत हैं तैसे साधुनिके अनुकूल प्रवचै सो उपचार विनय है. भावार्थ-जैसे राजाके चाकर किंकर लोक राजाके अनुकूल प्रवत हैं, ताकी आज्ञा माने, हुकम होय सो करें तथा प्रत्यक्ष देखि उठि खडा होय, सन्मुख होय. हाथहू जोडे, प्रणाम करें, चालै तब पीछे होय चालें, ताके पोमाख आदि उपकरण संवारें. तैसे ही मु. निनिकी भक्ति मुनिनिका विनय कर तिनकी आज्ञा पाने प्रत्यक्ष देखै तब उठि सन्मुख होय हाथ जोडै प्रणाम करें चलें तब पीछे होय चालै उपकरण संवारै इत्यादिक तिनका विनय करै सो उपचार विनय है।॥ ४५६ ॥ ____ आगें वैवानृत्य तपकौं दोय गाथाकरि कहै हैं,जो उवयरदि जदीणं उवसग्गजराइखीणकायाणं। पूजादिसु णिरवेक्खं विजावच्चं तवो तस्स ॥ ४५७ ॥ भाषार्थ-जो मुनि यति उपसर्गकरि पीडित होय तिनिका तथा जरा रोगादिककरि क्षीणकाय होय तिनिका अपनी चेष्टात तया उपदेश तथा प्रा वस्तु” उपकार करें Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) ताकेँ वैयावृत्य नामा तप होय है. सो कैसे करे आप अपने पूजा महिमा प्रादिविषै अपेक्षा वांछातें रहित जैसें होय तैसें करे. भावार्थ - निस्पृह हूवा मुनिनिकी चाकरी करै सो वैयाहृत्य है. तहां प्राचार्य उपाध्याय तपस्वी शैक्ष्य ग्लान गण कुल संघ साधु मनोज्ञ ये दश प्रकार के यति वैयावृत्य करने योग्य कहे हैं. तिनका यथायोग्य अपनी शक्तिसारूं वैयानृत्य करे ।। ४५७ ॥ जो वावरइसरूवे समदमभावाम्म सुद्धिउवजुत्तो । लोयववहारविरदो विज्ञावचं परं तस्स ॥ ४५८ ॥ भाषार्थ - जो मुनि शपदमभावरूप जो अपना आत्मस्वरूप ताके विषै शुद्ध उपयोगकरि युक्त हूवा प्रवर्तै अर लोकव्यवहार बाह्य वैयावृत्यसं विरक्त होय, ताकै उत्कृष्ट निश्चय वैयावृत्य होय है. भावार्थ- जो मुनि सम कहिये राग द्वेष रहित साम्यभाव, बहुरि दम कहिये इन्द्रियनिकौं विषय निर्विषै न जाने देना, ऐसा जो अपना आत्मस्वरूप ताविषै लीन होय, ताकै लोकव्यवहाररूप बाह्य वैयावृत्य काहे होय ? ताकै निश्चय वैयावृत्य ही होय है. शुद्धोपयोगी मुनिनिकी यह रीति है ॥ ४५८ ॥ आगे स्वाध्याय तपकौं छह गाथानिकरि कहे हैं, -- परततीणिरवेक्खो दुट्टवियप्पाण णासणसमत्थो । तच्चविणिच्चयहेदू सज्झाओ झाणसिद्धिय ॥ ४५९॥ भाषार्थ - जो मुनि परकी निन्दाविषै निरपेक्ष होय बां Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) छारहित होय है. बहुरि दुष्ट जे मनके खोटे विकल्प तिनिके नाश करनेकू समर्थ होय ताक तचके निश्चय करनेका कारण पर ध्यानकी सिद्धि करनेवाला स्वाध्यायनामा तप होय है. भावार्थ-जो परकी निंदा करनेविष परिणाम राखै अर आत्तरौद्रव्यानरूप खोटे विकल्प मनमें चितवन कीया करै ताकै शास्त्रनिका अभ्यासरूप स्वाध्याय कैसैं होय ताते तिनिकौं छोडि स्वाध्याय करै ताकै तत्वका निश्चय होय अर धर्म्यशुक्लध्यानकी सिद्धि होय, ऐसा स्वाध्याय तप है ॥ ४५६ ॥ पूजादिसु णित्वेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्चीए । कम्ममलसोहणटुं सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥४६० ॥ भाषार्थ-जो मुनि अपनी अपनी पूजा महिमा आदिविषै तौ निरपेक्ष होय, बांछारहित होय अर भक्तिकरि जि. नशास्त्र पढे, बहुरि कर्ममलके सोनेके अर्थ पढे ताकै श्रुतका लाभ सुखकारी होय. भावार्थ-जो पूजा महिमा आदिके अर्थ शास्त्रकू पढे है ता| शास्त्रका पढना सुखकारी नाही. अपने कर्मक्षयके निमित्त जिनशास्त्रनिहीकौं पढ़ ताके सुखकारी है ॥ ४६०॥ . जो जिणसत्थं सेवइ पंडियमानी फलं समीहंतो। साहाम्मयपडिकूलो सत्थं पि विसं हवे तस्स ४६१ भाषार्थ-जो पुरुष जिनशास्त्र तौ प? है अर प्रापकै Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) पूजा लाभ सत्कारकू चाहै है पर साधी सम्यग्दृष्टी जैनी जननित प्रतिकूल है सो पंडितपन्य है. पंडित तौ नाही अर आपकू पंडित मानै ताकू पंडितमन्य कहिये सो ऐसाकै मो ही शास्त्र विषरूप परिणमै है. भावार्थ-जैनशास्त्र भी पढिकरि तीवकषायी भोगाभिलाषी होय जैनीनित प्रतिकूल रहै सो ऐसा पंडितंमन्यके शास्त्र ही विष भया कहिये. जो यह मुनि भी होय तौ भेषी पाषंडी ही कहिये ॥ ४६१ ॥ जो जुद्धकामसत्थं रायदोसेहिं परिणदो पढइ । लोयावंचणहेतुं सज्झाओ णिप्फलो तस्स ॥ ४६२ ॥ भाषार्थ-जो पूरुष युद्धके शास्त्र कामकथाके शास्त्र रा. गद्वेष परिणामकरि लोकनिकौं ठगनेके अर्थ पढे है ताके स्वा. ध्याय निष्फल है. भावार्थ-जो पुरुष युद्धके, कामकौतूहलके, मंत्र ज्योतिष वैद्यक आदि लौकिक शास्त्र लोकनिके उगनेर्ले पढे है, ताकै काहेका स्वाध्याय है. इहां कोई पूछ मुनि भर पंडित तौ सर्व ही शास्त्र पहै हैं ते काहेकौं पढ़े हैं. ताका समाधान-रागद्वेषकरि अपने विषय आजीविका पोषनेकं लोकनिके ठगनेकौं पटै ताका निषेध है. बहुरि जो घ. मर्थीि हूवा कछू प्रयोजन जानि इनि शास्त्रनिकौं पटै, ज्ञान बढावना, परका उपकार करना, पुण्यपापका विशेष निणय करना, स्वपर मतकी चरचा जानना, पंडित होय तो धर्मकी प्रभावना हो, जो जैन मतमें ऐसे पंडित हैं इत्यादिक प्रयो Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६९) जन है. दुष्ट अभिमायतै पढे ताका निषेध है ॥ ४६२॥ जो अप्पाणं जाणदि असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं । जाणगरूवसरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥ ४६॥ ___ भाषार्थ-जो मुनि अपने आत्माकौं इस अपवित्र शरीरसे भिन्न ज्ञायकरूप स्वरूप जाणे सो सर्व शास्त्र जाणै.भा. वार्थ-जो मुनि शास्त्र अभ्यास अल्प भी कर है पर अपना प्रात्माका रूप ज्ञायक देखन जाननहारा इस अशुचि शरीर” भिन्न शुद्ध उपयोगरूप होय जाणे है, सो सर्व ही शास्त्र जान है. अपना स्वरूप न जान्या पर बहुत शास्त्र पढे तौ कहा साध्य है ? ॥ ४६३ ॥ जो ण विजाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं । सो ण विजाणदि सत्थं आगमपाढं कुणंतो वि १६४ भाषार्थ-जो मुनि अपने प्रात्माकौं ज्ञानस्वरूप शरीरतें भिन्न नाहीं जाने है मो आगमका पाठ करै तौऊ शास्त्र कौं नाहीं जाने है. भावार्थ-जो मुनि शरीर” भिन्न ज्ञानस्व.. रूप प्रात्माकौं नाहीं जाने है सो बहुत शस्त्र पढे है तोऊ विना पढ्या ही है. शास्त्रके पढनेका सार तौ अपना स्वरूप जानि रागद्वेषरहित होना था सो पढिकर भी ऐसान भया' तो काहेका पढ्या ? अपना स्वरूप जानि ताविष स्थिर होना. सो निश्चयस्वाध्यायतप है. वाचना पृच्छना अनुप्रेक्षा पानाय धर्मोपदेश ऐसे पांचप्रकार व्यवहारस्वाध्याय है सो Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) यह व्यवहार निश्चयके अर्थ होय सो व्यवहार भी सत्यार्य है विना निधय व्यवहार थोथा है ॥ ४६४॥ ___ आर्गे व्युत्सर्ग तपकौं कहै हैं,जल्लमललितगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो । मुहधोवणादिविरओ भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो ६५ ससरूवचिंतणरओ दुजणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममचो काओसग्गो तवो तस्स ॥ ६६ ॥ भाषार्थ-जो मुनि जल्ल कहिये पसेव पर मल तिनि. करि तौ लिप्त शरीर होय, बहुरि सह्या न जाय ऐसा भी तीव्र रोग आवै, ताका प्रतीकार न कर इलाज न करै, मु. खका धोवणा आदि शरीरका संस्कार न करै भोजन अर सेज्या आदिकी बांछा न करै, बहुरि अपने स्वरूप चिंतबनविव ग्त होय, लीन होय, बहुरि दुर्जन सजनविष मध्यस्थ होय, शत्रु मित्र वराबर जानै, बहुत कहा कहिये दे. हविषै भी मानारहित होय, ताकै कायोत्सर्ग नामा तप होय है. मुनि कायोत्सर्ग करै है, तब सर्व बाह्य अभ्यंतर परिग्रह त्यागकरि सर्व बाह्य पाहारविहारादिक क्रियासू रहित होय कायस् ममत्व छांडि अपना ज्ञानस्वरूप आत्माविषै रागद्वेषरहित शुद्धोपयोगरूप होय लीन होय है, विस काल जो प्र. नेक उपसर्ग आवो, रोग प्रायो, कोई शरीरकौं काटि ही डारी, स्वरूप चिग नाही, काहः रागद्वेष नाहीं उपजावै है ताकै कायोत्सर्ग तप होय है ।। ४६५-४६६ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) जो देहपालणपरो उवयरणादीविसेससंसचो। वाहिरववहाररओ काओसग्गो दो तस्स ॥ ४६७ ॥ भाषार्थ-जो मुनि देहके पालनेविषै तत्पर होय, उपकरण आदिकवि विशेष संसक्त होय, बहुरि बाह्य व्यवहार लोकरंजन करनेविषै रत होय, तत्पर होय ताक कायोत्सर्ग तप काहते होय ? भावार्थ-जो मुनि बाह्य व्यवहार पूजा प्र. तिष्ठा आदि तथा ईर्यासमिति आदि क्रिया ताकौं लोक जानैं यह मुनि है ऐसी क्रिया तत्पर होय अर देहका आहारादिकतै पालना उपकरणादिकका विशेष संवारना शिष्य ननादिकतें बहुत ममता राखि प्रसन्न होना इत्यादिक में लीन होय अर अपना स्वरूपका यथार्थ अनुभव जाकै नाहीं तामें कबहूं लीन होय ही नाही कायोत्सर्ग भी करै तौ खड़ा र. हना आदि बाह्य विधान करले तौ ताकै कायोत्सर्ग तप न कहिये निश्चय विना बाह्यव्यवहार निरर्थक है ॥ ४६७॥ अंतो मुहुचमेचं लीणं वत्थुम्मि माणसं णाणं । ज्झाणं भण्णइ समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ६८ ___ भाषार्थ-जो मनसंबंधी ज्ञान वस्तुविष अंतर्मुहूर्तमात्र लीन होय एकाग्र होय सो सिद्धान्तविष ध्यान कया है सो शुभ बहुरि अशुभ ऐसे दोय प्रकार कया है. भावार्थ-ध्यान परमार्थतें ज्ञानका उपयोग ही है जो ज्ञानका उपयोग एक ज्ञेय वस्तुमें अन्तर्मुहूर्तमात्र एकाग्र ठहरै सो ध्यान है सो शुभ भी है अर अशुभ भी है ऐसे दोय प्रकार है ॥ ४६ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) आगे शुभ अशुभध्यानके नाम स्वरूप कहै हैं,असुहं अह रउई धम्मं सुकं च सुहयरं होदि। आदं तिव्वकसायं तिव्वतमकसायदो रुदं ॥ ६६९॥ ____ भाषार्थ-आर्तध्यान रौद्रध्यान ए दोऊ तो अशुभध्यान हैं बहुरि धर्मध्यान अर शुक्लध्यान ए दोऊ शुभ पर शुभतर हैं तिनिमें आदिका आध्यान तौ तीव्र कषायतें होय है पर रौद्रध्यान अति तीव्र कषाय होय है ॥ ४६६ ॥ मैदकसाथ धम्मं मंदतमकसायदो हवे सुक्कं । अकसाए वि सुयट्टे केवलणाणे वि तं होदि ॥४७०॥ भाषार्थ-धर्म ध्यान है सो मंदकषायतें होय है. बहुरि शुक्लभ्यान है सो अतिशयकरि मंदकषायतें होय महामुनि श्रेणी चढे तिनिके होय है. पर कषायका अभाव भये श्रुतज्ञानी उपशांतकषाय क्षीणकषाय तथा केवलज्ञानी सयोगी अयोगी जिनके भी कहिये है. भावार्थ-धर्मध्यान तौ व्यक्तरागसहित पंच परमेष्ठी तथा दशलक्षणस्वरूप धर्म तथा प्रा. मस्वरूपविष उपयोग एकाग्र होय है ताते याकू पन्दपाय सहित है ऐसा कह्या है. बहुरि शुक्लध्यान है सो उपयोगमें व्यक्तराग नौ नाहीं अर अपने अनुभवमें न आवै ऐसा मूमराग सहित श्रेणी चढ़े है तहां आत्मपरिणाम उज्वल होय हैं यातें शुचि गुणके योगनैं शुक्ल कया है. ताकू मन्दतम. कषाय कहिये अतिशय मंदपायतें होय है ऐसा कया है तथा कमायके प्रभाव भये भी कहया है।॥ ४७०॥. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३ ) आगे प्राध्यानकूं कहे हैं, - दुक्खयरविसयजोए केण इमं चयदि इदि विचितंतो । चेट्ठदि जो विक्खित्तो अहं ज्झाणं हवे तस्स ॥ ४७१ ॥ मण हर विसय विजोगे कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सोचिय अहं हवे ज्झाणं ॥ ४७२ ॥ भाषार्थ - जो पुरुष दुःखकारी विषयका संयोग होते ऐसा चितवन करें जो यह मेरे कैसे दूर होय ? बहुरि तिमके संयोग तैं विक्षिप्तचित्त भया संता चेष्टा करै, रुदनादिक करै तिस के प्रतिध्यान होय है. बहुरि जो मनोहर प्यारी विषय सामग्रीका वियोग होतें ऐसा चितवन करे जो ताहि मैं कैसें पाऊं, ताके वियोग संताप रूप दुःखस्वरूप प्रवर्त्ते, सो भी श्रार्त्तध्यान है. भावार्थ- आर्त्तध्यान सामान्य तौ दुःख क्लेश रूप परिणाम है, तिस दुःखमें लीन रहे अन्य किछू चेत र नाहीं ताकूं दोष प्रकारकरि कथा. प्रथम तौ दुःखकारी सामग्रीका संयोग होय ताकूं दुरि करनेका ध्यान रहै. दूसरा इह सुखकारी सामग्रीका वियोग होय ताके मिल्लावनेका चितवन ध्यान रहै सो आर्चध्यान है. अन्य ग्रंथनिमें च्यारि भेद कहे हैं - इष्टवियोगका चितवन, ध्यनिष्टसंयोगका चितवन, पीडाका चितवन, निदानबंधका चितवन, सो इहां दोय कहे तिनिमें ही अंतर्भाव भये. अनिष्टसंयोग के दूरि करने में तौ पीडा चितवन प्राय गया, अर इष्टके मिलावने की वांछा L Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) में निदानबंध भायगया. ये दोऊ ध्यान अशुभ है पापबंध करै हैं धर्मात्मा पुरुषनिकै त्यजने योग्य हैं ।। ४७२ ॥ आगे रौद्रध्यानौं हैं हैं,हिसाणंदेण जुदो असच्चवयणेण परिणदो जो दु। तत्थेव अथिरचित्तो रुदं ज्झाणं हवे तस्स ॥ ४७३ ॥ ___भाषार्थ-जो पुरुष हिंसाविषै आनन्दकरि संयुक्त होय. बहुरि असत्य वचन करि परिणमता रहै तहां ही विक्षिप्तचित्त रहै तिसकै रौद्रध्यान होय है. भावार्थ-हिंसा जो जीवनिका घात तिसकौं करि अति हर्ष माने, शिकार आ. दिमें आनन्दतै प्रवत्तै, परके विघ्न होय, तब अति संतुष्ट होय बहुरि झूठ बोलि करि अपना प्रवीणपणा मान, परके दोषनिकौं निरन्तर देखे, कहै तामें आनंद मानै ऐसे ए दोय भेद रौद्रध्यानके कहे ॥ ४७३॥ ___आगें दोय भेद और कहै हैं,परावसयहरणसीलो सगीयावसयेसुरक्खणे दक्खो। तग्गयचित्ताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं पि ॥ ७४ ॥ . भाषार्थ-जो पुरुष परकी विषय सामग्रीकू हरणे का स्वभावसहित होय, बहुरि अपनी विषय सामग्रीकी रक्षा कर. णेविष प्रवीण होय, तिनि दोऊ कार्यनिविषे लीनचित निरन्तर राख, तिस पुरुषकै यह भी रौद्रध्यान ही है. भावार्थ, परकी सम्पदाकौं चोरनेविष प्रीण होय चोरीकरि हर्ष मानै Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५ ) बहुरि अपनी विषय सामग्रीकूं राखने का अति यत्न करै ताकी रक्षाकरि आनन्द माने ऐतैं ये दोष भेट रौद्रध्यानके भये. ऐसैं ये चारों भेदरूप रौद्रध्यान अतितीव्र कषायके योग होय हैं, महापाप रूप हैं. महापापबन्धकूं कारण हैं. सो धर्मात्मा पुरुष ऐसे ध्यानकौं दूरिहीतें छोडे हैं. जेते जगतकौं उपद्रव के कारण हैं तेते रौद्रध्यानयुक्त पुरुष वर्णै है. जातैं पापकरि हर्षमानै सुख मानै ताकौ धर्मका उपदेश भी नाहीं लागे है. अति प्रमादी हूवा अचेत पानी में मस्त रहै है || ४७४ ॥ आगे धर्मध्यानकूं कहें हैं, - विण्णिवि असुहे ज्झाणे पावणिहाणे य दुक्खसंताणे । च्चा दूरे वज्जह धम्मे पुण आयरं कुणहु ॥ ७५ ॥ भाषार्थ - हे भव्य जीव हो ! श्रार्च रौद्र ये दोऊं ही ध्यान अशुभ हैं पापके निधान दुःखके संतान जाणिकरि दृरिहीर्ते छोडौ, बहुरि धर्मध्यानविषै आदर करौ. भावार्थ - मार्चरौद्र दोऊं ही ध्यान अशुभ हैं भर पाएके भरे हैं अर दुःखहीकी संतति इनिमें चली जाय है. तातैं छोडिकरि धर्मध्यान क रनेका श्रीगुरुनिका उपदेश है ।। ४७५ ।। धर्मका स्वरूप है हैं, - धम्मो वत्सहावो खमादिभावो य दसावहो धम्मो । रयणचयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ७६ ॥ भाषार्थ - वस्तुका स्वभाव सो धर्म है. जैसे जोबका द Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) र्शन ज्ञान स्वरूप चैतन्यस्वभाव सो याका एही धर्म है. बहुरि क्षमादिक भाव दश प्रकार सो धर्म हैं. बहुरि रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र सो धर्म है. बहुरि जीवनिकी रक्षा करना सो भी धर्म है. भावार्थ-अभेदविवक्षाकरि तौ वस्तुका स्वभाव सो धर्म है जीवका चैतन्य स्वभाव सो ही याका धर्म है. बहुरि भेद विवक्षाकरि दशलक्षण उत्तम क्षमादिक तथा रत्नत्रयादिक धर्म है. बहुरि निश्चयते तो अपने चैतन्यकी रक्षा विभावपरिणतिरूप न परिणमना अर व्यवहारकरि परजीवकौं विभावरूप दुःख क्लेशरूप न करना ताहीका भेद जीवकौं प्राणांत न करना यह धर्म है ॥ ४७६ ॥ ___ आगे धर्मध्यान कैसे जीव होय सो कहै हैं,धम्मे एयग्गमणो जो ण हि वेदेइ इंदियं विसयं । वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स ॥ ७ ॥ ___ भाषार्थ-जो पुरुष ज्ञानी धर्मविर्षे एकाग्रमन होय वत्ते, बहुरि इन्द्रियनिके विषयनिकौं न वेदै. बहुरि वैराग्यमयी होय, तिस बानीकै धर्मध्यान होय है. भावार्थ-ध्यानका स्व रूप एक ज्ञेयकै विष ज्ञानका एकाग्र होना है. जो पुरुष ध. मविष एकाग्रचित्त करै तिस काल इन्द्रिय विषयनिकौं न वेदै ताकै धर्मध्यान होय है. याका मूल कारण संसारदेहभोगसं वैराग्य है विना वैराग्यके धर्ममें चित्त भै नाहीं ॥७७॥ सुविसुद्धरायदोसो वाहिरसंकप्पवज्जिओ धीरो। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७७) एयग्गमणो संतो जं चिंतइ तं पि सुहज्झाणं ॥७८॥ ____ भाषार्थ-जो पुरुष रागद्वेषः रहित हूवा संता बाबके संकल्पकरि वर्जित हूवा धीरचित एकाग्रपन हूवा सन्ता जो चितवन करै सो भी शुभध्यान है. भावार्थ-जो रागद्वेषमयी वा वस्तुसंबन्धी संकल्प छोडि एकाग्रचित्त होय काहूका चलाया न चलै ऐसा होय चितवन करे सो भी शुभ ध्यान है॥ ४७८ ॥ ससरूवसमुन्भासो णट्टममचो जिदिदिओ संतो। अप्पाणं चिंतंतो सुहज्झाणरओ हवे साहू ॥ ७९ ॥ भाषार्थ-जो साधु अपने स्वरूपका है समुद्भास कहिये प्रगट होना जाकै ऐसा हुवासंता, तथा परद्रव्यविषै नष्ट भया है ममत्व भाव जाकै ऐसा हूवा संता, तथा जीते हैं इन्द्रिय जान, ऐसा हुआ संता आत्माकौं चितवन करता सन्ता प्रव सो साधु शुभध्यानकेविरें लीन होय है. भावार्थ-जाकै अपना स्वरूपका तो प्रतिभास भया होय अर परद्रव्यविष म. मत्व न करै अर इन्द्रियनिकौं वश कर ऐसे प्रात्माका चितवन करै सो साधु शुभ ध्यानविष लीन होय है, अन्यकै शुभध्यान न होय है ॥ ४७९॥ बजियसयलवियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुभित्ता। जं चिंतइ साणंदं तं धम्मं उत्तम झाणं ॥४८॥ — भाषार्थ--जो समस्त अन्य विकल्पनिकू बर्जकरि आत्म Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) स्वरूपविष मनकू रोककरि आनंदसहित चितवन होय सो उत्तम धर्मध्यान है. भावार्थ-जो समस्त अन्य विकल्पनितूं रहित आत्मस्वरूपविषै मनकू थांभनेते आनन्दरूप चिन्तवन रहै सो उत्तम धर्मध्यान है. इहां संस्कृत टीकाकार धर्मध्यानका अन्य ग्रंथनिके अनुसार विशेष कथन किया है. ताकौं संक्षेपकरि लिखिये है-तहां धर्मध्यानके च्यारि भेद कहे हैं. आझाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय, ऐसें. तहां जीवादिक छह द्रव्य पंचास्तिकाय सप्ततत्व नव पदार्थनिका विशेष स्वरूप विशिष्ट गुरुके अभाव तथा अ. पनी मंदबुद्धिके वशतै प्रमाण नय निक्षेपनि साधिये ऐसा जान्या न जाय तब ऐसा श्रद्धान करै जो सर्वज्ञ वीतराग देबने कह्या है सो हमारै प्रमाण है ऐसे आज्ञा मानि ताके अनुसार पदार्थनिमैं उपयोग यांम* सोपाज्ञाविचय धर्मध्यान है १. बहुरि अपाय नाम नाशका है सो जैसे कर्मनिका नाश होय तैसैं चितवै तथा मिथ्यात्वभाव धर्मविषै विघ्नके कारण हैं तिनिका चितवन राखै-अपने न होनेका चितवन करै परके मेटनेका चितवन करै सो अपायविचय है २. बहुरि विपाक नाम कर्मके उदयका है सो जैसा कर्म उदय होय ताका तैसा स्वरूपका चितवन करै सो विपाकविचय है ३. बहुरि लोकका स्वरूप चितवना सो संस्थान विचय है ४. बहुरि दशप्रकार भी कया है-अपायविचय उपायविचय जीवविचय प्राशाविचय विपाकविचय अजीवविषय Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतुविचय विरागविचय भवविचय संस्थानविषय. ऐसे इनि दनिका चितवन सो ए च्यारि भेदनिका विशेष कीये हैं. बहुरि पदस्थ पिंडस्थ रूपस्थ रूपातीत ऐसे च्यारि भेदरूप धर्मध्यान होय है. तहां पद तौ अक्षरनिके समुदायका नाम है सो परमेष्ठीके वाचक अक्षर हैं जिनकू मंत्र संज्ञा है सोतिनि अक्षरनिक प्रधानकरि परमेष्ठीका चितवन करै तहां विस अक्षरमें एकाग्रचित्त होय सो तिसका ध्यान कहिये । तहां नमोकार मन्त्रके पैंतीस अक्षर हैं ते प्रसिद्ध हैं तिनिविषै मन लगावै तथा तिस ही मन्त्रके भेदरूप कीये संक्षेप सोलह अ. क्षर हैं "अरहंत सिद्ध पाइरिय उवज्झाय साँहू" ऐसे सोलह अक्षर हैं. बहुरि इसहीके भेदरूप 'अरहंत सिद्ध' ऐसे छह अक्षर हैं बहुरि इसहीका संक्षेप " असिग्राउ सा" ये आदिअक्षररूप पांच अक्षर हैं. बहुरि "अरहंत" ए च्यारि अक्षर हैं. बहुरि "सिद्ध" अथवा "अह" ऐसे दोय अक्षर हैं बहुरि "30" ऐसा एक अक्षर है. यामें पंचपरमेष्ठीका आदि सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञासिद्व तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । रूपस्थं सर्वचिदूपं रूपातीतं निरंजनं ॥ [२] अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः । [३] णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरीयाणं । णमो उवझायाणं णमो लोए सव्वसाढणं ॥१॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०) अक्षर सर्व हैं. परहंतका प्रकार अशरीर जे सिद्ध तिनिका प्रकार प्राचार्यका श्राकार उपाध्यायका उकार मुनिका मकार ऐसे पांच अपर अ+अ+या+उ+म="ओम्" ऐसा सिद्ध होय है. ऐसे ए मंत्रवाक्य हैं सो इनिका उच्चारणरूपकरि मनविष चितवनरूप ध्यान करै. तथा इनिका गच्य अर्थ जो परमेष्ठी तिनिका अनन्तज्ञानादिरूा स्वरूप विचारि ध्यान करना, बहुरि अन्य भी बारह हजार श्लोकरूप नमस्कार ग्रन्ग हैं ताके अनुसार तथा लघुबह सिद्धचक्र प्रतिष्ठा ग्रंथनिमें मन्त्र कहे हैं तिनिका ध्यान करना, मन्त्रनिका केताइक कयन भंस्कृत टीकामें है सो तहाँ जानना. इहां सं. क्षेप लिख्या है. ऐसे पदस्थध्यान है. बहुरि पिंड नाम श. रीरका है तिसविष पुरुषाकार अमूर्तीक अनन्तचतुष्टयकरि संयुक्त जैसा परमात्माका म्वरूप तैसा आत्माका चितवन करना सो पिंडस्थध्यान है. बहुरि रूप कहिये अरहंतका रूप समवसरणविषै धाविकर्मरहित चौंतीस अतिशय आठ प्रातिहार्यकरि सहित अनन्तचतुष्टयमंडित इन्द्र आदिकरि पूज्य परम औदारिक शरीरकरि युक्त ऐसा भरहंतकुं ध्यावै तथा ऐसा ही संकल्प अपने प्रात्माका करि आपकू ध्याचे सो रूपस्थ ध्यान है. बहुरि देहविना बाह्यके अतिशयादिकविना अपना परका ध्याता ध्यान ध्येयका भेदविना सर्व विकल्प[४] अरहंता असरोरा आइरिया तह उवझया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणी ओंकारो पंचपरमेहो ॥१॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) रहित परमात्मस्वरूपविषै लयकूं प्राप्त होय सो रूपातीत ध्यान है, ऐसा ध्यान सातवें गुणस्थान होय तब श्रेणीक पाढे यह ध्यान व्यक्तरागसहित चतुर्थ गुणस्थानतें लगाय सातवां गुणस्थान ताई अनेक भेदरूप प्रवर्त्त है ॥ ४८० ॥ मागें शुक्लध्यानकौं पांच गायाकरि कहें हैं, - जत्थ गुणा सुविसुद्धा उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं । सा वि जत्थ सुक्का तं सुकं भण्णदे ज्झाणं ॥ ४८१ ॥ भाषार्थ - जहां भले प्रकार विशुद्ध व्यक्त कषायनिके अमुभवरहित उज्वल गुरा कहिये ज्ञानोपयोग आदि होय, बहुरि कर्मनिका जहां उपशम तथा क्षय होय, बहुरि जहां लेश्या भी शुक्ल ही होय, तिसकौं शुक्लध्यान कहिये है. भावार्थ - यह सामान्य शुक्लध्यानका स्वरूप का विशेष आगे कहै हैं . बहुरि कर्म के उपशमनका भर क्षपणका विधान अन्य ग्रन्थनितैं टीकाकार लिख्या है सो आगें लिखियेगा । आगे विशेष भेदनिकूं कहे हैं, - पडिसमयं सुज्झतो अणतगुणिदाए उभयसुद्धीए । पढमं सुक्कं ज्झायदि आरूढो उभय सेणीसु ॥ ४८२ ॥ भाषार्थ - उपशमक अर क्षपक इनि दोकं श्रेणीनि विषै आरूढ हूवा संता समय समय अनंतगुणी विशुद्धता कर्मका उपशमरूप तथा क्षयरूपकरि शुद्ध होता संता मुनि प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार नामा ध्यावै है. भावार्थ - इल Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) मिथ्यात्व तीन, कषाय अनंतानुबंधी च्यारि प्रकृतिनिका उपशम तथा क्षय करि सम्यग्दृष्टी होय. पीछें अप्रमत्त गुणस्थानविषै सातिशय विशुद्धतासहित होय श्रेणीका प्रारम्भ करै, तब पूर्वकरण गुणस्थान होय शुक्लध्यानका पहला पाया प्रव, तहां जो मोहकी प्रकृतिनिकूं उपशमावने का प्रारंभ करे तो पूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इनि वीनू गुणस्थानविषै समय समय अनन्तगुणी विशुद्धताकरि वद्धर्मान होता संता मोहनीय कर्मकी इकईस प्रकृतिनिकूं उपशमकरि उपशांत कषाय गुणस्थानकं प्राप्त होय है. अर कै मोहकी प्रकृतिनिकुं क्षपावनेका प्रारंभ करै तौ तीनू गुणस्थानविषै इकईस मोहकी प्रकृतिनिका सत्तामेंसूं नाशकरि क्षीणकषाय बारहवां गुरुस्थानकं प्राप्त होय है. ऐसें शुक्लध्यानका पहला पाया पृथक्त्ववितर्कवीचार नामा प्रवर्तें है. तहां पृथक कहिये न्यारा न्यारा वितर्क कहिये श्रुतज्ञानके अक्षर अर अर्थ अर वीचार कहिये अर्थका व्यंजन कहिये अक्षररूप वस्तुका नामका अर मन वचन कायके योग इनिका पलटना सो इस पहले शुक्लध्यान में होय है. तहां अर्थ तौ द्रव्य गुण पर्याय है सो पलटै, द्रव्यसूं द्रव्यान्तर गुणसूं गुणान्तर पर्याय पर्यायान्तर, बहुरि तैसें ही बणं वर्णान्तर बहुरि तैसें ही योगं योगांतर है । इहां कोई पूछे - ध्यान तौ एकाग्रचितानिरोध है पलटने - कूं ध्यान कैसे कहिये ? ताका समाधान - जो जेतीवार एक Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८३) परि यंभे सो तो ध्यान भया पलटया तब दूसरे परि थंभ्या सो भी ध्यान भया ऐसे ध्यानके संतानकं भी ध्यान कहिये। इहां संतानकी जाति एक है ताकी अपेक्षा लेणी. बहुरि उ. पयोग पलटै सो इसके ध्याताकै पलटावनेकी इच्छा नाहीं है जो इच्छा होय तौ रागसहित यह भी धर्म ध्यान ही ठहरै. इहां रागका अव्यक्त भया सो केवलज्ञानगम्य है ध्याताके ज्ञान गम्य नाही. भाप शुद्ध उपयोगरूप हवा पलटनेका भी ज्ञाता ही है. पलटना क्षयोपशम ज्ञानका स्वभाव है सो यह उपयोग बहुत काल एकाग्र रहै नाही याकू शुक्ल ऐसा नाम रागके अव्यक्त होनेही कह्या है ॥ ४८२ ॥ आगें दूजा भेद कहैं हैं,णिस्सेसमोहविलये खीणकसाओ य अंतिमे काले । ससरूवम्मि णिलीणो सुक्कं ज्झायेदि एयत्तं ४८३ ___ भाषार्थ-आत्मा समस्त मोहकर्मका नाश भये क्षीण कषाय गुणस्थानका अंतके कालविषे अपने स्वरूपविषे लीन हूवा संता एकत्ववितर्कवीचारनामा दूसरा शुक्लध्यानकौं ध्याव है. भावार्थ-पहले पायेमें उपयोग पलटै था सो पलट. ता रहगया एक द्रव्य तथा पर्यायपरि तथा एक व्यंजनपरि तथा एक योगपरि थंभि गया, अपने स्वरूपमें लीन है ही, अब घातिकर्मका नाशकरि उपयोग पलटैगा सो सर्वका प्रस्वक्ष ज्ञाता होय लोकालोककौं जानना यह ही पलटना रहा है ॥ ४८३॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) आगे तीसरा भेद कहे हैं, - "केवलणाण सहावो हमे जोगम्मि संठिओ काए । जं ज्झायदि सजोगजिणो तं तदियं सुहमकिरियं च ॥ भाषार्थ - केवलज्ञान है स्वभाव जाका ऐसा सयोगी जिन सो जब सूक्ष्म काय योग में तिष्ठे तिस काल जो ध्यान होय सो तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामा शुक्ल ध्यान है. भावार्थजब धातिकर्मका नाशकरि केवल उपजै, तब तेरहवां गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली होय है तहां तिस गुणस्थान कालका अंत में अंतर्मुहूर्त शेष रहै तब मनोयोग वचनयोग रुकि जाय अर काययोगकी सूक्ष्मक्रिया रह जाय तब शुक्लध्यानका तीसरा पाया कहिये है. सो इहां उपयोग तौ केवलज्ञान उपया तबही अवस्थित है अर ध्यान में अन्तर्मुहूर्त ठहरना का है सो इस ध्यानकी अपेक्षा तौ इहां ध्यान है नाहीं 'अर योग भनेकी अपेक्षा ध्यानका उपचार है अर उपयोगकी अपेक्षा कहिये तौ उपयोग थंभ ही रहा है किछू जा-नना रह्या नाहीं तथा पलटावनेवाला प्रतिपक्षी कर्म रखा नाहीं तातैं सदा ही ध्यान है अपने स्वरूपमें रमि रहे हैं. ज्ञेय भारसीकी ज्यों समस्त प्रतिबिंबित होय रहे हैं, मोहके -नाश काहू विषै इष्ट अनिष्टभाव नाहीं है ऐसें सूक्ष्मक्रियामतिपाती नामा तीसरा शुक्लध्यान प्रवर्त्ते है ॥ ४८४ ॥ भागे चौथा भेद कहै हैं, - - विणri faar कम्मचउक्कस्स खवणकरणट्टं । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८५ ) जं ज्झायदि अजोगिजिणो णिक्किरियं तं चउत्थं च भाषार्थ - केवली भगवान् योगनिकी प्रवृत्तिका अभावकरि जब अयोगी जिन होय हैं तब अघातियाकी प्रकृति सत्ता में पिच्यासी रहीं हैं तिनिका क्षय करनेके अर्थ जो घ्यावे है सो चौथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामा शुक्लध्यान होय है. भावार्थ - चौदहवां गुणस्थान अयोगीजिन है तहाँ स्थिति पंचलघु अक्षरप्रमाण है. तहां योगनिकी प्रवृत्तिका अभाव है सो सत्ता में अघातिकर्मकी पिच्यासी प्रकृति हैं ति निके नाशका कारण यह योगनिका रुकना है तातें इसकौं ध्यान कहया है. सो तेरहवां गुणस्थानकी ष्यों इहां भी ध्यानका उपचार जानना किछू इच्छापूर्वक उपयोगका यांभनेरूप ध्यान है नाहीं, इहां कर्म प्रकृतिनिके नाम तथा और भी विशेष कथन अन्यग्रंथनिके अनुसार हैं सो संस्कृतarai जानना, ऐसें ध्यान तपका स्वरूप कला ॥ ४८५ ॥ ठीका प्रागें तपके कथन कौं संकोच हैं, - C एसो वारसमेओ उग्गतवो जो चरेदि उवजुतो । सो खविय कम्मपुंजं मुत्तिसुहं उत्तमं लहई ||४८६॥ भाषार्थ - यह बारह प्रकारका तप कह्या जो मुनि इनिविषै उपयाग लगाय उग्र तीव्र तपकौं आचरण करें है सो मुनि मुक्ति के सुखकों पावै है. कैसा है मुतिसुख खेपे हैं कर्मके पुंज जानें बहुरि अक्षय है. अविनाशी है. भावार्थ - तप Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६) तैं कर्मकी निर्जरा होय है भर संवर होय है सो ए दोऊं ही मोक्षके कारण हैं सो जो मुनिवत लेयकरि बाह्य अभ्यंतर भेदकर कहा जो तप ताक तिस विधानकरि श्राचरे है सो मुक्ति पावै है, तब ही कर्मका अभाव होय है. याही अविनाशी बाधा रहित आत्मीक सुखकी प्राप्ति होय है. ऐसें बारह प्रकारके तपके धारक तथा इस तपका फल पावें ते साधु च्यारि प्रकारकरि कहे हैं. अनगार, यति, मुनि, ऋषि, तहां सामान्य साधु गृहवासके त्यागी मूलगुणनिके धारक ते अनगार हैं. बहुरि ध्यानमें तिष्ठे श्रेणी मांडें ते यति हैं, बहुरि जिनको अवधि मन:पर्ययज्ञान होय तथा केवलज्ञान होय ते मुनि हैं. बहुरि ऋद्धिधारी होंय ते ऋषि हैं. तिनके च्यारि भेद. राजऋषि, ब्रह्मऋषि, देवऋषि, परमऋषि, तहां विक्रिया ऋद्धिवाले राजऋषि, अक्षीण महानस ऋद्धिवाले ब्रह्मऋषि, आकाशगामी देवऋषि, केवलज्ञानी परमऋषि हैं ऐसें जानना ॥ ४८६ ॥ आगे या ग्रंथका कर्त्ता श्रीस्वामिकार्तिकेयनामा मुनि हैं सो अपना कर्त्तव्यप्रगट करें हैं, - जिणवयणभावणट्टै सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमणरुंभणटुं च ॥४८७॥ भावार्थ - यह अनुप्रेक्षा नाम ग्रंथ है सो स्वामिकुमार जो स्वामिकार्तिकेय नामा सुनिता रच्या है. गायारूप रचना -करी है. इहां कुमार शब्दकरि ऐसा सूच्या है जो यह मुनि Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८७) जन्महीतै ब्रह्मचारी हैं तानै यह रची है, सो श्रद्धाकरि रची है. ऐसा नाहीं जो कथनमात्रकरि दिई हो इस विशेषणते अनुप्रेक्षात अति प्रीति सूचै है. बहुरि प्रयोजन कहै हैं कि,. जिन वचनकी भावनाकी अर्थ रच्या है. इस वचन ऐसाजनाया है जो ख्याति लाभ पूजादिक लौकिक प्रयोजनके अर्थ नाहीं रच्या है. जिनवचनका ज्ञान श्रद्धान भया है ताकौं वारम्बार भावना स्पष्ट करना यात ज्ञानकी वृद्धि होय कषायनिका प्रलय होय ऐसा प्रयोजन जनाया है. बहुरि दूजा प्रयोजन चंचल मनकौं थांमनेके अर्थ रची है. इस विशेष. णत ऐसा जानना जो मन चंचल है सो एकाग्र रहै नाही. ताों इस शास्त्रमें लगाइये तो रागद्वेषके कारण जे विषय तिनिविष न जाय. इस प्रयोजनके अर्थ यह अनुप्रेक्षा ग्रंथकी रचना करी है. सो भव्य जीवनिकौं इसका अभ्यास करना योग्य है. जाते जिनवचनकी श्रद्धा होय, सम्यग्ज्ञानकी बधवारी होय. पर मन चंचल है सो इसके अभ्यासमें लगै अन्य विषयनिविष न जाय ॥ ४८७ ॥ ___ मागे अनुमेक्षाका माहात्य कहि भव्यनिकौं उपदेशरूप फलका वर्णन करै हैं,वारसअणपेक्खाओ भणियाह जिणागमाणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावइ सो पाइउ सोक्खं ॥ भाषार्थ-ए बारह अनुप्रेक्षा जिन आगमके अनुसार ले भगटकरि कही हैं ऐसा वचनकरि यह जनाया हेमे में क. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) ल्पित न कही हैं पूर्व अनुसार कही हैं सो इनिकौं जो भव्य जीव पटै अथवा सुणै अर इनिकी भावना करैवारम्बार चिं. तवन करै सो उत्तम सुख जो बाधारहित अविनाशी स्वात्मीक सुख, ताकौं पावै. यह संभाग्नारूप कर्तव्य अर्थका उपदेश जानना, भव्य जीव है सो पढौ सुणोबारम्बार इनिका चितवन रूप भावना करौ॥ ४८८॥ ___ आगें अन्त्यमंगल करै हैं,-- तिहुयणपहाणस्वामि कुमारकाले वितविय तवयरणं। वसुपुज्जसुयं मल्लिं चरिमतियं संथुवे णिचं ॥४८९॥ __ भाषार्थ-तीन भुवनके प्रधानस्वामी तीर्थंकर देव जिनने कुमार कालविष ही तपश्चरण धारण किया, ऐसे वसुपूज्य राजाके पुत्र वासुपूज्यजिन, अर मल्लिजिन अर चरम कहिये अंतके तीन नेमिनाथ जिन, पार्श्वनाथ जिन, वर्द्धमान जिन ए पांच जिन, तिनिकौं मैं नित्य ही स्तवू हूं तिनिके गुणानुवाद करू हूं बंदू हूं. भावार्थ-ऐसे कुमारश्रमण जे पांच वीर्थकर तिनिकौं स्तवन नमस्काररूप अंतमंगल कीग है. इहां ऐसा सूचै है कि-श्राप कुमार अवस्थामें मुनि भये हैं तातें कुमार तीर्थकरनितें विशेष प्रीति उपजी है तात तिनिके नामरूप अंतमंगल कीया है॥ ४८९॥ - ऐसे श्रीस्वामिकार्तिकेय मुनि यह अनुप्रेक्षा नामा ग्रन्यः समाप्त कीया। भागें इस वचनिकाके होनेका संबन्ध लिखिये हैं Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८९) दोहा। प्राकृत स्वामिकुमार कृत, अनुमेक्षा शुभ ग्रन्थ । .. देशवचनिका तासकी, पढौ लगौ शिवपंथ ॥१॥ चौपई। देश इंढाड़ जयपुर थान । जगतसिंह नृपराज महान। न्यायबुद्धि ताकै नित रहै । ताकी महिमा कोकवि कहै ॥२॥ ताके मंत्री बहुगुणवान । तिनकै मंत्र राजसुविधान ॥ . ईति भीति लोकनिकै नाहिं । जो व्याप तौ झट मिटि जाहिं धर्मभेद सब मतके मले । अपने अपने इष्ट जु चले ॥ जैनधर्मकी कथनी तनी । भक्ति प्रीति जैननिकै धनी ॥४॥ तिनमें तेरापंथ कहाव । धरै गुणीजन करै बढाव ।। तिनिके मध्य नाम जयचंद्र । मैं हूं आतमराम अनंद ॥ ५॥ धर्मरागते ग्रन्थ विचारि । करि अभ्यास लेय मनधारि ॥ भावन बारह चितवन सार ।सो हूं लखि उपज्यो सुविचार ६ देशवचनिका करिये जोय। सुगम होय बांचै सब कोय ॥ यातें रची वनिका सार । केवल धर्मराग निरधार ॥७॥ मूलग्रन्थतें घटि वढि होय । ज्ञानी पंडित सोधौ सोय ॥ अल्पबुद्धिकी हास्य न करें। संतपुरुषमारग यह धरै ॥८॥ बारह भावनकी भावना । बहु लै पुग्ययोग पावना ॥ . तीर्थकर वैराग जु होय । तब भाबै सब राग जु खोय ॥९॥ दीक्षा घारै तब निरदोष । केवल ले अरु पावै मोष ॥ - यह विचारि भावौ भवि जीव । सब कल्याण सु घरौ सदीव ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९०) पंच परमगुरु अरु जिनधर्म । जिनवानी भाषै सव मर्म । चैत्य चैत्यमंदिर पढि नाम । नमूं मानि नव देव सुधाम ११ दोहा। संवत्सर विक्रमतगू, अष्टादशशत जानि । सठि सावण तीज वदि, पूरण भयो सुपानि ॥१२॥ जैनधर्म जयवंत जग, जाको मर्म सु पाय । वस्तु यथारथरूप लखि, ध्यायें शिवपुर जाय ॥१३॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जयचंदजीकृत वचनिकासहित समाप्त । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीजिये ! पांचसौका ग्रंथराज इक्यावन रुपये मेंसिद्धांत ग्रंथ गोम्मटसारजी । (लब्धिसार क्षपदासारजी भी साथमें हैं ) ये ग्रन्थराज पांच वर्ष से हमारे यहां छप रहे थे, सो अब लब्धिसारक्षपणासारजी सहित ६ खंडोंमें छपकर संपूर्ण हो गये । जीवकांड १४०० पृष्ठ कर्मकांड संदृष्टिसहित १६००, पृष्ठ लब्धिसारक्षपणासारजी ११०० पृष्ठ कुळ ४१०० पृष्ठ श्लोक संख्या सबकी अनुमान १, २५००० के होगी । क्योंकि इन सबमें संस्कृतटीका और स्वर्गीय पं० टोडरमलजी कृत वचनिका सहित मूलगाथायें छपी हैं । कागज स्वदेशी ऐंटिक टिकाऊ ५० पौंडके लगाये गये हैं । ऐसा बडा ग्रंथ जैनसमाजमें न तो किसीने छपाया और न कोई आगे को भी छपाने का साहस कर सकता है। अगर इस समस्त ग्रन्थको हाथसे लिखवाया जाय तो ५००) रु० से ऊपर खर्च पडेंगे और १० वर्षमें भी सायद लिखकर पूरा न होगा वही ग्रंथ हाथसे लिखे हुये ग्रंथोंसे भी दो बा - तोंमें पवित्र छपा हुवा - केवल ५१) रुार्यों में देते हैं डांकखर्च ६ ।) जुदा लगेगा । ये ग्रंथराज सिद्धांत ग्रंथोंमें एक ही हैं यह जैनधर्मके समस्त विषय जानने के लिए दर्पण समान हैं । इसके पढ़े बिना - कोई जैनधर्मका जानकार पण्डित ही नहीं हो सकता । मंत्री Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार क्षपणासारजी। ( भाषा और संस्कृतटीका सहित ) भगवान नेमिचन्द्राचार्य जब गोमट्टसारजी सिद्धांत यकी रचना कर चुके और उसमें केवल बीस परूपणाओंका तथा जीवको अशुद्ध दशामें रखनेवाले कर्मोंका ही वर्णन आपाया तो उनने सांसारिक दशासे मुक्त होनेकी रीतिका भी वर्णन करना उपयुक्त समझा । बस ! इसी बातका इस ग्रन्थमें सविस्तर वर्णन है। यदि आपने अपनी अनन्त कालसे संसारमें परिभ्रमणकर प्राप्त हुई पर्यायोंका दिग्दशेन कर लिया है, यदि आपने उन अशुद्ध वैभाविक पर्यायोंको उत्पन्न करानेवाले वास्तविक कर्मरूपी शत्रुओंकी समस्त सेनाको पहिचान लिया है तो आपका सबसे पहिले यह कर्तव्य है कि आप अपनी शुद्ध दशा होनेकी रीति जो प्राचार्य महाराजने इस अन्यमें बतलाई है, उसका मनन अध्ययन करें। पृष्ट कागज, मोटे अक्षरों में पं० टोडरमल्लजी कृत भाषा भाष्य और संस्कृतटीका सहित है । पृष्ठ संख्या ११०० सौ । न्योछावर १२॥) पोष्टेज १।) जुदा। जिन भाइयोंने गोमट्टसारजी पूर्ण लिये हैं उनको तो अवश्य ही यह ग्रंथ मंगाना चाहिये । न्योछावर उनके लिए १०) २० ही है । पोष्टेज जुदा। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रकश्रीलाल जैन काव्यतीर्थ, जैनसिद्धांतप्रकाशक (पवित्र) प्रेस कलकत्ता।