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________________ - - - प्रागें इस वृद्धिके स्थान कहते हैंमिच्छादो सदिट्ठी असंखगुणिकम्मणिज्जरा होदि। तत्तो अणुवयधारी तत्वो य महव्वई णाणी ॥१०॥ पढ़मकसायचउण्हं विजोजओतह य खवयसीलो य दसणमोहतियस्स य तत्चो उपसमगचत्तारि ॥१०॥ खवगो य खीणमोहो सजोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरि उवरिं असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८॥ भाषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिविर्षे कर त्रय. चर्ती विशुद्ध परिणामयुक्त मिथ्याष्टिकै जो निर्जरा होय है वा असंयत सम्यग्दृष्टिकै असंख्यातगुणी निर्जरा होय है. याते देशव्रती श्रावककै असंख्यात गुणी होय है. यात महाव्रती मुनिनिकै असंख्यात गुणी होय है. यात अनंतानुबंधी कपायका विसंयोजन कहिये अप्रत्याख्यानादिकरू पारणमावना ताकै असंख्यात गुणी होय है. यातें दर्शनमोहेका क्षय करनेवालेकै असंख्यातगुणी होय है. याः उपशम श्रेणीवाले तीन गुणस्थानविर्षे असंख्यात गुणी होय है. यात उपशांत मोह ग्यारहमा गुणस्थानवालेके असंख्यातगुणी होय है. यात क्षपकश्रेणीवाले तीन गुणस्थानविषे असंख्यात गुणी होय है. या क्षीणमोह बारहमा गुणस्थानविौ असंख्यात. गुणी होय है. या सयोग केवलीकै असंख्यातगुणी होय है. याते अयोगकेवलीकै असंख्यातगुणी होय है. ऊपरि ऊपरि
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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