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अन्यत्व । मलिनताकों अशुचित्र कहिये । जो कर्मका भावना सो आस्रव । कर्मका आपना रोकै सो संवर । कर्मका क्षरना सो निर्जरा । जामें षद्रव्य पाइये सो लोक । अतिकठिनतासों पाइए सो दुर्लभ । संसारनै उद्धार करै सों वस्तुस्वरूपादिक धर्म । इस प्रकार इनके अर्थ हैं।
अथ अध्रुवानुप्रेक्षा लिख्यते. प्रथम ही श्रध्रुवानुप्रेक्षाका सामान्य स्वरूप कहै हैं,-- जं किंपिवि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणामसरूवेण वि-णय किंपिवि सासयं आत्थि॥४॥ . भाषार्थ-जो कुछ उपज्या, ताका नियमकरि नाश हो है. परिणाम स्वरूपकरि कछू भी शाश्वता नाही है. भावार्थ सर्ववस्तु सामान्य विशेषस्वरूप हैं. तहां सामान्य तो द्रव्यको कहिये, विशेष गुणपर्यायको कहिये. सो द्रव्य करिकैं तो वस्तुं नित्यही है. बहुरि गुण भी नित्यही है और पर्याय है सो भनित्य है याकों परिणाम भी कहिये सो यहु प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्यायकू उपजता विनशता देखि हर्षविषाद कर है. तथा ताकू नित्य राख्या चाहै है मो इस अज्ञानकरि व्याकुल होय है, ताकों यहु भावना ( अनुप्रेक्षा ) चितवना युक्त है । जो मैं द्रव्यकरि शाश्वता प्रात्मद्रव्य हौं, बहुरि उपजै विनशै है सो पर्यायका स्वभाव है, यामें हर्षविषाद