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________________ बनेके अर्थि 'भव्यजनानन्दजननी' ऐसा विशेषण दिया है. ताः भव्यजीवनिके मोक्ष होना निकट आया होय तिनिकै आनन्दकी उपजावनहारी एसी अनुप्रेक्षा कहूंगा । बहुरि यहां 'अनुप्रेक्षाः' ऐसा बहु वचनांत पद है सो अनुप्रेक्षा-सा. मान्य चितवन एक प्रकार है तो हू अनेक प्रकार है, तहां भव्य जीवनिको सुनते ही मोनमार्गविषै उत्साह उपजै, ऐसा चितवन संक्षेपताकरि बारह प्रकार है, तिनका नाप तथा भावनाकी प्रेरणा दोय गाथानिविष कहै हैं । अ व असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं । आसव संवरणामा णिज्जरलोयाणुपेहाओ॥२॥ इय जाणिऊण भावह दुल्लह धम्माणुभावणाणिचं । मणवयणकायसुद्धी एदा उद्देसदो भणिया॥३॥ भाषार्थ-भो भव्य जीव हो ! एते अनुप्रेश नाम मात्र जिनदेव कहें हैं, तिनहिं जाणकार मनवचनकाय शुद्ध करि आगे कहेंगे तिसप्रकार निरंतर भावो. ते कौन ? अध्रुव १. अशरण २ संसार ३ एकत्व ४ अन्यत्व ५ अशुचित्व ६ अःस्रव ७ संवर ८ निर्जरा ९ लोक १० दुर्लभ ११ धर्म १२ ऐसे बारह ! भावार्थ-ये बारह भावनाके नाम कहे, इनका विशेष अर्थरूप कथन तो यथास्थान होयहीगा । बहुरि नाम ये सार्थक हैं, तिनिका अर्थ कहा ? अध्रुव तौ अनित्यकों कहिये । जामें शरण नाहीं सो अशरण । भ्रमणकों संसार कहिये । जहां दूसरा नहीं सो एकत्व । जहां सर्वते जुदा सो
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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