SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहां 'देव' ऐसी सामान्य संज्ञा है सो क्रीडा विजिगीषा धुति स्तुति मोद गति कांति इत्यादि क्रिया करै ताकौं देव क. हिये. तहां सामान्यविषै तो चार प्रकारके देव वा कल्पित देव भी गिनिये है. तिनित न्यारा दिखानेके अर्थि 'त्रिभुवनतिलकं' ऐसा विशेषण किया तातै अन्यदेवका व्यवच्छेद (निराकरण) भया, बहुरि तीनभुवमके तिलक इन्द्र भी हैं तिनितें न्यारा दिखावनेके अर्थि 'त्रिभुवनेंद्रपरिपूज्यं' ऐसा विशेषण किया, यात तीन भुवनके इन्द्रनिकरि भी पूजनीक ऐसा देव है ताहि नमस्कार किया, इहां ऐसा जानना कि ऐसा देवपणा हत् सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय साधु इन पंच परमेष्ठीविषे ही संभव है. जाते परम स्वात्मजनित आनंद सहित क्रीडा, तथा कर्मके जीतने रूप विजिगीषा, स्वात्मननित प्रकाशरूप द्युति, स्वस्वरूपकी स्तुति, स्वरूपविष परमप्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति, शुद्धस्वरूपकी प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्यादि देवपणाकी उत्कृष्ट क्रिया सो समस्त एकदेश वा सर्वदेशरूप इनिहीविषै पाईए है. तातै सर्वोत्कृष्ट देवपना इनिहीविषै आया, तातै इनिकों मंगलरूप नमस्कार युक्त है. 'म कहिये पाप ताको गालै तथा ' मंग' कहिये सुख, ताकों लाति ददाति कहिये दे, ताहि मंगल कहिये. सो ऐसे देवको नमस्कार करनेते शुभपरिणाप हो है तातें पापका नाश हो है. शांतभावरूप सुख प्राप्ति हो है, बहुरि अनुपेक्षाका सामान्य अर्थ वारम्बार चितवन करना है । तहां चितवन अनेक प्रकार है, ताके करनेवाले अनेक हैं, तिनित न्यारे दिखा
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy