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वृद्धि होना,
कनिजरा
ति होना इत्या
पदहु पढावहु भव्यजन, यथाज्ञान मनधारि । करहु निर्जरा कर्मकी, बार बार सुविचारि ॥६॥
ऐसें देवशास्त्र गुरुको नमस्काररूप मंगलाचरणपूर्वक प्रतिज्ञा करि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षानामा ग्रन्थकी देशभाषामय वचनिका करिये है। तहां संस्कृत टीकाका अनुसार ले, मेरी बुद्धिसारू गाथाका संक्षेप अर्थ लिखियेगा. तामें कहीं चूक होय तौ विशेष बुद्धिमान संवार लीजियो ।
श्रीमत्स्वामिकार्तिकेय नाया आचार्य अपने ज्ञानवैराग्य की वृद्धि होना, नवीन श्रोता जनोंके वैराग्यका उपजना तथा विशुद्धता होनेसे पापकर्मकः निर्जरा, पुण्यका उपजना, शिटाचारका पालना निर्विघ्नत शास्त्रकी समाप्ति होना इत्यादि अनेक भले फल चाहता संता अपने इष्टदेवको नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञाकरि गाथासूत्र कहैं हैतिहुवणतिलयं देवं, वंदित्ता तिहुअणिदपारपुजं । वोच्छं अणुपेहाओ, भवियजणाणंदजणणीओ॥१॥
भावार्थ-तीन भुवनका तिलक, बहुरि तीन भुवनके इंद्र. निकरि पूज्य ऐसा देव है ताहि मैं बंदिकर भव्य जीवनिकौं आनन्दके उपजावनहारी अनुप्रेक्षा तिनहि कहूंगा। भावार्थ
(१) इस जगह भाषानुवादक स्वर्गीय पं० जयचन्द्रजीने समस्त अन्थकी पीठिका (कथनकी संक्षिप्त सूचनिका ) लिखी है सो हमने उसको यहां न रखकर आधुनिक प्रथानुसार भूमिकामें (प्रस्तावनामें ) लिखा है।
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