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________________ ( ४२ ) गर्व है. कोई वटाय सकै नाही, या जीवकै ऐसा अज्ञान है जो दुःख सहता भी परके ममत्वकू नाहीं छोड़े है ॥ ७७ ॥ ___ आगें कहै हैं या जीवकै निश्चयतें धर्म ही स्वजन है। जीवस्स गिच्चयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ॥७८ - भाषार्थ-या जीवकै अपना हित निश्चयतें एक उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म ही है. काहेत ? जात सो धर्म ही देवलोककू प्राप्त कर है. बहुरि सो धर्म ही सर्व दुःखका नाशरूप मोक्ष• करै है. भावार्थ-धर्मसिवाय और कोऊ हित नाहीं ।। ७८ ।। . भागें कहै हैं ऐसा एकलाजीवकू शरीर भिन्न जानहु । सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । जहि दु मुणिदे जीवो होइ असेसं खणे हेयं ॥७९॥ भाषार्थ-भो भव्य हो ! तुप जीवकू शरीर से भिन्न सप्रकार उद्यम करि जानहु. जाके जाने अवशेष सर्व परद्रव्य क्षणमात्रमें त्यजने योग्य होय हैं. भावार्थ-जब अपना स्वरूपकं जान, तब परद्रव्य हेय ही भात, तातें अपना स्वरूपहीके जाननेका महान उपदेश है ।। ७९ ॥ दोहा। एक जीव परजाय बहु, धारै स्वपर निदान । पर तज़ि आपा जानिक, करौ भव्य कल्यान ॥४॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा समाप्त ॥४॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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