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________________ ( ८३ ) चरमे दीवे अद्धे चरमसमुद्दे वि सव्वे ॥ १४२ ॥ भाषार्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रियं चतुरिन्द्रिय, जे विकलत्रय कहावें ते जीव नियमकरि कर्मभूमिविषै ही होय हैं तथा अंतका आधा द्वीप तथा अंतका सारा समुद्रविषै होय हैं. भोगभूमिविष न होय हैं. भावार्थ-पंच भरत पंच ऐरावत पंच विदेह ए कर्मभूमि के क्षेत्र हैं तथा अंतका स्वयंप्रभ द्वीप के बीच स्वयंप्रभ पर्वत हैं तातें परै आधा द्वीप तथा अंतका स्वयंभूरमा सारा समुद्र एती जायगां विकलत्रय हैं और जायना नाहीं ॥ १४२ ॥ आगे अढाई द्वीपतें बाह्य तिर्यच हैं तिनकी व्यवस्था हैमवत पर्वत सारिखी है ऐस कहै हैंमाणुसखिस्स बहिं चरमे दीवस्स अद्धयं जाव । सव्वत्थे वितिरिच्छा हिमवदतिरिएहिं सारित्था ॥ भाषार्थ - मनुष्य क्षेत्रतैं बारै मानुषोत्तर पर्वततै परें अंतका द्वीप जो स्वयंप्रभ ताका आधाके उरैं बीचिके सर्व द्वीप समुद्रके तिच हैं ते हैमवत क्षेत्रके तिर्यचनि सारिखे हैं. भावार्थ - हैमवतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है. सो मानुषोतर पर्वत पर असंख्यात द्वीप समुद्र प्राधा स्वयंप्रभ नामा अंतका द्वीपांईं समस्तमें जघन्य भोगभूमिकी रचना है वहांके तिचनिकी आयु काय हैमवत क्षेत्रके तिर्यचनिसारिखी है । मागें जलचर जीवनिका ठिकाणा कहै हैं
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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