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________________ (८१) भाषार्थ- जो मन वचन काय इन्द्रिय स्वासोवास आयु है तिनके संयोगः तौ उपजै जीवै,। बहुरि इनिके वियोग” मरै ते प्राण कहिये. ते दश हैं. भावार्थ-जीव ऐसा उसको नित्यपर्याप्तक कहते हैं । भावार्थ-जो पर्याप्ति कमका उदय होनेसे लब्धि (शक्ति) की अपेक्षासे पर्याप्त है किंतु निवृत्ति (शरीरपति बनने) की अपेक्षा पूर्ण नहीं है वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है ॥१॥ लब्ध्यपर्याप्तक जीवके एक अंतर्मुहूर्तमें ६६३३६ क्षुद्रजन्म होते हैं और उतने ही क्षुद्रमरण हाते हैं ॥२॥ . ___ अंतर्मुहूर्तकालमें द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ८०, श्रीन्द्रिय लव्यपर्याप्तक ६०, चतुरिंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ४०, और पंचें: द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक २४ मरण करते हैं तथा जन्म लेते हैं। एकेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव उतने ही समयमें ६६१३२ जन्म मरण करते हैं (इसप्रकार एकेंद्रिय, पिकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रियके समस्त भवोंको मिलानेसे ६६३३६ क्षुद्रभव होते हैं ) ॥३॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये चारों ही बादर और सूक्ष्म इस प्रकार पाठ भेद हुए तथा वादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण और प्रत्येक इस प्रकार तीन भेद वनस्पतीके हुये। इन ग्यारह प्रकारके एकेंद्रिय जीवोंमें हर एक जीके एक अंतमुहूर्तमें ६०१२ जन्म परण होते हैं इसमकार सबोंका योग करनेसे एकेंद्रिय जीवोंके ६६१३२ भव होते हैं ॥४॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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