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________________ ( १३ ) ताहि निरन्तर धर्म कार्यनिविषै दे है सो पुरुष पंडितनिकरि स्तुति करने योग्य है. बहुरि ताहीकी लक्ष्मी सफल है. मात्रार्थ - लक्ष्मी पूजा प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान, परका उपकार इत्यादि धर्मकार्यविषै खरची हुई ही सफल है, पंडित - जन भी ताकी प्रशंसा करें हैं । एवं जो जाणित्ता विहलियलोयाण धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्खो तं देहि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ २० ॥ भाषार्थ - जो पुरुष पहिले काा ताको जाणि धर्मयुक्त जे निर्धन लोक हैं, तिनके अर्थ प्रति उपकारकी बांहासों रहित हूवा तिस लक्ष्मीको दे है, ताका जीवन सफल है । भावार्थ - अपना प्रयोजन साधनेके अर्थ तौ दान देनेवाले जगत में बहुत हैं. बहुरि जे प्रतिउपकारकी बांछारहित धर्मात्मा तथा दुःखी दरिद्र पुरुषनिको धन दे हैं, ऐसे विरले हैं उनका जीवितव्य सफल है । धागे मोहका माहात्म्य दिखावै हैंजलवुव्वयसारित्थं धणजुव्वण जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो विणिच्चं अइवलिओ मोहमाहप्पो ॥२१॥ भाषार्थ - यह प्राणी धन यौवन जीवनको, जलके बुद्धबुदासारिखे तुरत विलाय जाते देखते संते भी नित्य मानै है सो यह हू बडा अचिरज है. यह मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान है. भावार्थ- वस्तुका स्वरूप अन्यथा जनावनेको मदपी
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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