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________________ ( ७७ ) अट्ठ वि गब्भज दुविहा तिविहा सम्मुच्छिणो वि तेवीसा इदि पणसीदी भेया सव्वेसि होति तिरियाणं १३१ ____ भावार्य-सर्व ही तिर्यंचनिके पिच्यासी भेद हैं. तहां गर्भजके आठ ते तो पर्याप्त अपर्याप्तकरि सोलह भये. बहुरि सम्मूर्च्छनके तेईस भेद, ते पर्याप्त अपर्याप्त. लब्ध्यपर्यासकरि गुणहत्तरि भये ऐसें पिच्यासी हैं. भावार्थ- कहे जे कर्मभूमिके गर्भज जलचर थलचर नभचर ते सैनी असैनी करि छह भेद, बहुरि भोगभूमिके. थलचर नभचर सनी ये आठही यति अपर्याप्त भेदकरि सोलह, बहुरि सामूर्छनके पृथ्वी अप तेज वायु नित्य निगोदके सूक्ष्म बादरकरि बारह बहुरि वनस्पती सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित ऐसे चौदह वौ एकेन्द्रिय भेद बहुरि विकलत्रय तीन, बहुरि पंचेन्द्रिय कर्मभूमिके जलचर थल वर नभचर सैनी असैनी करि छह मेद, ऐसें सब मिलि तेईस. ताकै पर्याप्त अपरत लब्ध्यपर्याप्तकरि गुणहत्तरि ऐसे पच्यासा होय है ॥ १३१ ॥ . आगें मनुष्यनिके भेद कहै हैंअजव मिलेच्छखंडे भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु मणुआ हवंति दुविहा णिवित्तिअपुण्णग्गा पुण्णा॥ भावार्थ-मनुष्य भार्यखंडविषै म्लेक्षखंड विर्षे तथा भोगभूमविौं तथा कुभोगभूमिविषे हैं ते च्यारि ही पर्याप्त 1. निवृत्ति अपर्यातकरि आठ भेद भये ।। १३२ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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