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________________ ( ७८ ) सम्मुच्छणा मणुस्सा अब्जवखंडेसु होंति णियमेण ते पुण लद्धिअण्णा णाय देवा वि ते दुविहा १३३ भाषार्थ - सम्मूर्च्छन मनुष्य भार्यखंडविषै ही नियम करि होय हैं. ते लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं, बहुरि नारक तथा देव ते पर्याप्त तथा निरृत्यपर्याप्तके भेद करि प्यारि भेद हैं. ऐसें तियेचके भेद पिच्यासी, मनुष्य के नव नारक देवके च्यारि, सर्व मिलि प्रयासवें भेद भये. बहुतनिको समानता करि भेले करि कहिये संक्षेप करि संग्रह करि कहिये ताकूं समास कहिये है. सो यहां बहुत जीवनिका संक्षेप करि कहना सो जीवसमास जानना. ऐसें जीव समास कहे । मागे पर्याप्तिका वर्णन करे हैं, आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासहासमणसाण । परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चैव सीओ ॥ १३४ ॥ भाषार्थ - जो आहार शरीर इन्द्रिय स्वासोवास भाषा मन इनको परिणमनकी प्रवृत्तिविषै सामर्थ्य सो छह प्रकार है. भावार्थ - आत्माकै यथायोग्य कर्मका उदय होतैं आहा-रादिक ग्रहणकी शक्तिका होना सो शक्तिरूप पर्याप्ति कहिये सो छह प्रकार है । शक्तिका कार्य कहै हैं । तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जा हुणिप्पत्ति । सापजती भण्णदि छन्भया जिणवरिंदेहिं ॥ १३५ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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