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________________ भाषार्थ-तिस शक्ति प्रवृत्तिकी पूर्णताकू कारण जे पुद्लके स्कंध तिनकी प्रगटपणे निष्पत्ति कहिये पूर्णता होना ताकू पर्याप्ति ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहया है। भागें पर्याप्त निवृत्यपर्याप्तके कालकू कहै हैं,पंजा गिळंतोमणुपजति ण जाव समणोदि। ता णिव्वतिअपुण्णो मणुपुण्णोभण्णदे पुण्णो ॥१३६॥ भाषार्थ-यह जीव पर्याप्तिक ग्रहण करता संता जैसे मन:पयोतिषं पूर्ण न करै तेतें नित्यपर्याप्त कहिये. बहुरि जब मनःपर्याप्ति पूर्ण होय तब पर्याप्त कहिये, भावार्थ-इहां सैनी पंचेन्द्रिय जीवकी अपेक्षा मनमें धारि ऐसे कथन किया है. अन्य यन्यनिमें जे शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होय तेते नित्यपर्याप्त है. ऐसे कयन सर्व जीवनिका कहया है। __ आगें लब्ध्यपर्याप्तका स्वरूर कहै हैं,उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदिणय समाणोदि । एका विय पजची लद्धिअपुण्णा हवे सो दु ॥१३॥ ___ भाषार्थ-जो जीव स्वासके अठार भागमें मरै एक भी पर्याप्ति पूर्ण न करै सो जीव लब्ध्यपर्याप्तिक कहिये। १ पज्जतस्स य उदये णिय णिय पज्जति णिहिदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥१॥ तिग्णसया छत्तोसा छावठ्ठोसहस्सगाणि मरणानि । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥२॥ सीदीसठ्ठातालं वियले चउवास होति पंचक्खे। -
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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