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________________ (१०७) रमात्मा कहिये है. सो समस्त कर्मनिका नाशकरि स्वभावरूप लक्ष्मीकू प्राप्त भये ऐसे सिद्ध, ते परमात्मा हैं. बहुरि घातिकर्मनिका नाशकरि अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीकं प्राप्त भये ऐसे अरहंत ते भी परमात्मा हैं. बहुरि ते ही औदयिक आदि भावनिका नाश कर भी परमात्मा भये कहिये। भागें कोई जीवनिकू सर्वथा शुद्ध ही कहै हैं तिनके मतकू निषेधै हैं,जइ पुण सुद्धसहावा सव्वे जीवा अणाइकाले वि । तोतवचरणविहाणं सव्वेसि णिप्फलं होदि ॥ २० ॥ भाषार्थ-जो सर्व जीव अनादि कालविङ्ग भी शुद्ध स्त्रभाव हैं तो सर्वहीके तपश्चरण विधान है सो निष्फल होय है। ता किह गिलदि देहं णाणाकम्माणि ता कहं कुडइ। सुहिदा वि यदुहिदा वियणाणारूवा कहं होंति २०१ ___ भाषार्थ-जो जीव सर्वथा शुद्ध है तो देहकू कैसे ग्रहण कर है ? बहुरि नाना प्रकारके कर्मनिकू कैसे करै है ? बहुरि कोई सुखी है कोई दुःखी है ऐसे नानारूप कस होय है ? तातें सर्वथा शुद्ध नाहीं है भागें अशुद्धता शुद्धताका कारण कहै हैं,सव्वे कम्माणबद्धा संसरमाणा अणाइकालाम । पच्छा तोडिय बंध सुद्धा सिद्धाधुवा होंति ॥२०॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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