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________________ (१०६) छठा गुणस्थानवर्ती मध्यम अंतरात्मा अर सातवां गुणस्थानतैं लगाय बारहमां गुणस्थानताई उत्कृष्ट अंतरात्मा जानना ॥ १९७ ॥ - अब परमात्माका स्वरूप हैं हैं, ससरीरा अरहंता केवलणाणेण मुणियसयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा सव्वुत्तम सुक्ख संपता ॥ १९८ ॥ भाषार्थ-जे शरीरसहित ते अहं हैं। कैसे हैं ? केवलज्ञान जाने हैं सकलपदार्थ जिनू ते परमात्मा हैं. वहुरि शरीरकरि रहित हैं ज्ञान ही है शरीर जिनकें, ते सिद्ध हैं. कैसे हैं ? सर्व उत्तम सुख प्राप्त भये हैं ते शरीररहित परमात्मा हैं. भावार्थ - तेरहमां चौदहमां गुणस्थानवर्ची अरहंत श रीरसहित परमात्मा हैं. अर सिद्ध परमेष्ठी शरीर र हित परमात्मा हैं । अब परा शब्दका अर्थ है हैंणिस्स कम्मणा से अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए वि य सा वि य पत्ती परा होदि ॥ १९९॥ भाषार्थ - जो समस्त कर्म्मका नाश होते संतैं अपने स्वभावकरि उपजै सो परा कहिये. बहुरि कर्मतें उपजे जे औदयिक आदि भाव तिनका नाश होतें उपजै सो भी परा क हिये. भावार्थ- परमात्मा शब्दका अर्थ ऐसा है जो परा कहिये उत्कृष्ट मा कहिये लक्ष्मी जाकैं होय ऐसा आत्माकूं प
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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