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________________ (१०८) भाषार्थ - जीव हैं ते सर्व ही अनादिकालतें कर्मकरि बंधे हुये हैं तात संसारविषै भ्रमण करे हैं. पीछे कर्मनिके बंधन तोडि सिद्ध होय हैं, तब शुद्ध हैं और निश्चल होय हैं । आगें जिस बंधकरि जीव बंधे हैं तिस बंधका स्वरूप कहै हैं, ww जो अण्णोष्णपवसो जीवपएसाण कम्मखंधाणं । सव्वबंधाण विलओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥ २०३॥ भाषार्थ - जो जीवनि के प्रदेशनिका अर कम्र्मनिके बंधनिका परस्पर प्रवेश होना एक क्षेत्ररूप सम्बन्ध होना सो जीव प्रदेशबन्ध है, सो यह ही प्रकृति स्थिति अनुभारारूप जे सर्व बंध तिनिका भी लय कहिये एकरूप होना है। आगे सर्व द्रव्यनिविषै जीव द्रव्य ही उत्तम परप तच्च है ऐसा कहै हैं, - उत्तमगुणाण धामं सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परमतच्चं जीवं जाणेहि णिच्छयदो || २०४ || भाषार्थ - जीव द्रव्य है सो उत्तम गुणनिका धाम है ज्ञान आदि उत्तम गुण याहीमें हैं. बहुरि सर्व द्रव्यनिमें यह ही द्रव्य प्रधान है. सर्व द्रव्यनिक जीव ही प्रकास है, बहुरि सर्व तच्चनिमें परम तत्त्व जीव ही है, अनन्तज्ञान सुख आदिका भोक्ता यह ही है ऐसे हे भव्य ! तू निश्वयतें जाणि ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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