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________________ (४८) अप्रशस्त. तहां मंद कषाय परिणाम ते तौ प्रशस्त हैं शुभ हैं बहुरि तीवकषाय परिणाम ते अप्रशस्त अशुभ हैं. ऐसें प्रगट जानहु. भावार्थ-सातावेदिनी शुभ आयुः उच्चगोत्र शुभनाम ये प्रकृतियें तो पुण्यरूप हैं. अवशेष चारघातियाकर्म, प्रसातावेदनी, नरकायुः नीचगोत्र अशुभनाम ए प्रकृतियें पापरूप हैं तिनकू कारण प्रास्रव भी दोय प्रकार हैं. तहां मं. दकपायरूप परिणाम तौ पुण्यास्रव हैं और तीव्र कषायरूप परिणाम पापास्रव हैं। आगें मंद तीब्रकषायकू प्रगट दृष्टान्त करि कहै हैं. सव्वत्थ वि पियवयणं दुव्वयणे दुजणे वि खमकरणं। सम्वोस गुणगहणं मंदकसायाण दिटुंता ॥ ९१ ॥ __ भाषार्थ-सर्व जायगां शत्रु तथा मित्र आदिविषै तो प्यारा हितरूप वचन और दुर्वचन सुणिकरि दुर्जनविष भी क्षमा करणा, बहुरि सर्व जीवनिके गुण ही ग्रहण करना, एते मंदकषायनिके उदाहरण हैं। अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं । वेरधरणं च सुइरं तिव्वकसायाण लिंगाणि ॥ ९२॥ ____भाषार्थ-अपनी प्रशंसा करणा पूज्य पुरुषनिका भी दोष ग्रहण करनेका स्वभाव तथा घणे कालताई वैर धारण ए तीवकषायनिके चिन्ह हैं। भागें कहे हैं ऐसे जीवके वास्तवका चितवन निष्फल है। एवं जाणंतो वि हु परिचयणीये वि जोण परिहरइ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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