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भाषामें नहीं है. क्योंकि यह भाषा बहुत सरल है तथा इस भाषाके हजारों ग्रंथ समस्त देशोंके बडे २ जैनमंदिरों में मोजूद हैं तथा बडे २ शहरों और प्रामोंकें पढे लिख जैनी भाई नित्यशः स्वाध्याय भी करते रहते हैं. अतएव इस प्राचीन भाषाका अनादर नहिं करके इस भाषामें ही प्रन्योंका छापना युक्तिसंगत समझकर इस ग्रंथको नवीन भाषामें परिवर्तन नहिं किया गया किन्तु खास विद्वद्वर्य पंडित जयचन्द्रजीकी भाषामें ही छपाया है. परंतु प्रमादवशतः यत्र तत्र इस भाषासंबंधी नियमोंका पालन नहि हुवा हो तो जयपुर निवासी विद्वद्गण क्षमाकरेंगे। * मुम्बयी
- जैनीभाइयोंका दास, ता. १-१०-१९०४ ई० पन्नालाल बाकलीवाल.
वक्तव्य। इस प्रथकी पहिली आवृत्ति नहीं मिल सकनेके कारण हमने सर्व साधारणके हितार्थ यह सुलभ संस्करण कराया है । पहिले गाथाओंके नीचे छाया थी वह इस बार नहीं छपाई गई क्यों कि संस्कृतज्ञ थोडासा ही परिश्रम करनेसे गाथाओं द्वारा भी अपना प्रयोजन सिद्ध कर सक्ते हैं । संशोधनमें यथाशक्ति सावधानी रक्खी हैं पं० जयचंदजी कृत पीठिका
और विषय सूची साथमें छपाकर पहिली त्रुटि दूर करदी गई है। - आशा है पाठक गण ! इस संसारके सच्चे स्वरूपको बतलानेवाले मनकी चंचलताके निवारक प्रन्थका स्वाध्याय कर वास्तविक शांतिका काम करेंगे।
मंत्री.