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________________ ( २२ ) भाषार्थ-पूर्व भववि जो सज्जन कुटंबका था, सोभी .या नरकवि क्रोधी हुवा घात करें है. या प्रकार तीव्र है विपाक जाका ऐसा दुःख बहुत कालपर्यंत नारकी सहै है. भावार्थ-ऐसे दुःख सागरां पर्यन्त सहे हैं आयु पूरी किये विना तहातै निकसना न हो है। ... आगे तिर्वञ्चगतिसंबन्धी दुःखनिको साढे च्यारि गाथानकरि कहै हैं,तत्तो णीसरिऊणं जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु । तत्थ वि पावदि दुःखंगब्भे वि य छेयणादीयं ॥४॥ .. भाषार्थ-तिस नरकतें निकसिकरि अनेक भेद भिन्न जे तिर्यच, तिनविष उपजै है. तहां भी गर्भविषै दुःख पावै है. अपि शब्द सम्मूर्छन होय छेदनादिकका दुःख पावै है। तिरिएहिं खजमाणो दुट्ठमणुस्सेहिं हण्णमाणो वि । सव्वत्थ विसंतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीम॥४१॥ . भाषार्थ- तिस तियचगतिविष जीव सिंहव्याघ्रादिककरि भख्या हूवा तथा दुष्ट मनुष्य म्लेच्छ व्याध धीवरादिक. करि मारया हूवा सर्व जायगां.त्रास युक्त हूवा रौद्रभयानक दुःखकू विशेष करि सहै है। अण्णुण्णं खज्जता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं ! माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि।।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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