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________________ ( २१ ) भाषार्थ - जहां तिल तिलमात्र छेदिये है बहुरि शकल कहिये खंड तिनकुंभी तिळतिलमात्र मेदिये है. बहुरि वज्राशिविषै पचाइये है. बहुरि राधके कुंड विषै क्षेपिये है । इच्चैवमाइ दुक्खं जंणरए सहदि एयसमयम्हि । तं. सयलं वण्णेतुं ण सक्कदे सहसजीहोपि ॥ ३७ ॥ भाषार्थ - इति कहिये ऐसें एवमादि कहिये पूर्व गाथा में कहे तिनकूं यदि देकारें जे दुःख, ते नरक विषै एक काल जीव सहै है, तिनको कहनेको जाके हजार जीभ हॉप सो भी समर्थ न हो है. भावार्थ - या गाथामें नरकके दु:खनिका वचन अगोचरपणा का है । बहुरि कहै हैं नरकका क्षेत्र तथा नारकीनके परिणाम दुःखमयी हैं । सव्वं पिहोदि ये खित्तसहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा वि सव्वकालं अण्णुण्णं होंति णेरइया ॥ २८ भाषार्थ – नरकविषै क्षेत्र स्वभाव करि सर्व ही कारणा दुःखदायक हैं, अशुभ हैं. बहुरि नारकी जीव सदा काल परस्पर क्रोध रूप हैं. भावार्थ - क्षेत्र तो स्वभाव कर दुःखरूप है ही. बहुरि नारकी परस्पर क्रोधी हुवा संता वह वाकूं मारै, वह वाकूं मारे है. ऐसें निरंतर दुःखीही रहे हैं। अणभवे जो सुयणो सो वि य णरये हणेइ अइकुविदो एवं तिब्वविवागं बहुकालं विसहदे दुःखं ॥ ३९ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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