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पुज्जे धाम्म? वि य सुरूवसुयणे महासत्ते ॥ ११ ॥
भाषार्थ- यह लक्ष्मी संपदा कुलवान धैर्यपान पंडित सुभट पूज्य धर्मात्मा रूपवान सुजन महापराक्रमी इत्यादि काहू पुरुषनिविषैहू नाही राचै है. भावार्थ- कोई जानेगा कि मैं बडा कुलका हूं, मेरे बडांकी संपदा है, कहां जाती है तथा मैं धीरजवान हौं फैसै गमाऊंगा. तथा पंडित हौं विद्या. वान हौं, मेरी कौन ले है. मोकू देहीगा तथा मैं सुभट हं कैसे काहूको लेने घोंगा. तथा मैं पूजनीक हूं मेरी कौन ले है. तथा मैं धर्मात्मा हों, धर्मः तौ आवै, छती कहाँ जाय है.' तथा मैं बडा रूपवान हों, मेरा रूप देखि ही जगत प्रसन्न है, संपदा कहां जाय है. तथा मैं सुजन हों परका उपकारी हों, कहां जायगी; तथा मैं बड़ा पराक्रमी.हों, संपदा बढाऊंगा, छती कहां जानै घोंगा; सो यह सर्व विचार मिध्या है. यह संपदा देखते देखते विलय जाय है. काहूकी राखी रहती नाही। ___आगे कहै हैं जो लक्ष्मी पाई ताकों कहा करिये लोई कहिये है, ता भुंजिज उ लच्छी दिजउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला दोतिण्णिदिणाणि चिठेइ ॥१२॥ ____ भाषार्थ-यहु लक्ष्मी जलतरंगसारखी चंचल है। जेते दो तीन दिन ताई चेष्टा करै है, विद्यमान है, तेत भोगवो,