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________________ ( ८ ) रिखा है शीघ्र ही बिछुडै है. ग्राविषै संतुष्ट होय स्वरूपकूं न भूलना. आगे देहसंयोगं प्रथिर दिखावे हैंअइलालिओ वि देहो पहाणसुगंधेहिं विविहभक्खैहिं खणमित्तेण वि विहडई जलभरिओ आमघडउव्व ॥ भाषार्थ - देखो यह देह स्नान तथा सुगन्ध वस्तुनि करि संवारया हुवा भी तथा अनेक प्रकार भोजनादि भक्ष्यनिकरि पाल्या हुआ भी जलका भरचा कच्चा घडाकी नाई क्षणमात्रमें विघट जाय है । भावार्थ- ऐसे शरीरविषै स्थिरबुद्धि करना बडी भूल है । आगे लक्ष्मीका अस्थिरपणा दिखावे हैं 7. जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयरजणाणं अपुण्णाणं ॥ १० ॥ भाषार्थ - जो लक्ष्मी कहिये संपदा पुण्यकर्मके उदय सहित जे चक्रवर्ति तिनकैं भी शाश्वती नाही तौ अन्य जे पुरायउदयरहितं तथा अल्प पुण्यसहित जे पुरुष हैं तिनसहित कैसे राग बांधै ? अपि तु नाही बांधै. भावार्थ- या संपदाका अभिमानकर यह प्राणी प्रीति करे है सो वृथा है । आगे याही अर्थको विशेष करि कहै हैं, - कत्थवि ण रमइ लच्छी कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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