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________________ ( २४ ) भाषार्थ - अथवा गर्भविषै भी उपजै तो तहां भी भेले सकुचि रहे हैं हस्तपादादि अंग तथा अंगुली आदि प्रत्यंग जाके, ऐसा हूवा संता दुख स है है. बहुरि योनित नीसरा तीव्र दुःखकू सहै है | बहुरि कैसा होय सो कहैं हैं. बालोपि पियरचत्तो पर उच्छिट्टेण बड्ढदे दुहिदो । एवं जायणसीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥ ४६ ॥ ! भाषार्थ - गर्भ नीसरयां पीछे बाल अवस्था में ही माता पिता मर जांय तब पराई औठिकरि ( उच्छिष्टसे ) बध्या संता मागणेहीका स्वभाव जाका ऐसैं दुःखी हुवा संता काल गया है । बहुरि क हैं यह पापका फल हैपावेण जणो एसो दुक्कम्मवसेन जायदे सव्वो । पुणरवि करेदि पाव ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ॥ ४७ ॥ भाषार्थ - यह लोक जन सर्व ही पापके उदयतें असाता वेदनीय नीच गोत्र अशुभ नाम आयुः आदि दुष्कर्म ताके वशर्तें ऐसे दुःख स हैं हैं. तोऊ फेरि पाप ही करें हैं. पूजा दान व्रत तप ध्यानादि लक्षण पुरायको नाही उपजावै हैं, यह बडा अज्ञान है । विरलो अज्जदि पुष्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो । सबसमभावे सहियो गिंदणगरहाहि संजुत्तो ॥ ४८ ॥ ·
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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