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इस प्रन्थमें मूल गाथा ४८९ हैं जिनमें मुमुक्षुजनोंके लिये प्रायः आवश्यकीय सब ही विषय संक्षिप्त स्पष्टतया वर्णन किये गये हैं. परंतु
मुख्यतया इनमें संसारके दुःख दिखाकर संसारसे विरक्त होनेका उपदेश - है, इसकारण समस्त विषय द्वादश अनुप्रेक्षाके कथन में ही गर्भित करके वर्णन किये गये हैं. मानो घडेमें समुद्र भर दिया गया है।
इस ग्रंथपर एक टीका ता वैद्यक ग्रंथके कत्ती जगत्प्रसिद्ध दिगंबरजैनाचार्य वाग्भट्ट विरचित है. जिसका उल्लेख पिटर्सनसाहव तथा बूथरसा. हव की किसी रिपोर्ट में किया गया है. उसके आदि अन्तके श्लोक छपे हुये एकवार हमारे देखने में आये थे । दूसरी टीका-पद्मनंदी आचार्यकै पट्टपर सुशोभित त्रैविद्यविद्याधरषड्भाषाकविचक्रवर्ति भट्टारक शुभचन्द्राचार्य सागवाडा पट्टाधीशकृत है. जिसमें अनेक प्राचीन जैनग्रंथों के प्रमाणोंसे ७००० श्लोकोंमें विस्तृतव्याख्या की है. तीसरे-किसी महाशयने प्राकृत पदोंकी संस्कृत छाया लिखी है. इसके सिवाय एक प्राचीन गुर्जर भाषामिश्रित टिप्पणिप्रन्थ भी प्राप्त हुवा है. इन्ही सब ग्रंथोंपरसे मूल, तथा जयचन्द्रजीकी दो बचनिकापरसे शुद्ध करके मुद्रणयंत्रद्वारा इस ग्रंथकी मुलभ प्राप्ति की गयी है. मूलपाठमें जहां कहीं पाठान्तर था, कहीं २ टिप्पणीमें दिखाया गया है तथा संस्कृत टीकाकी प्रतिका पाठ शुद्ध समझकर वही पाठ रक्खा गया है।
यद्यपि हमारे कई मित्रोंकी सम्मति थी कि जयचन्द्रकृत वचनिका (भाषाटीका ) ढुढाडीभाषामिश्रित पुराने ढंगकी है. इसको वर्तमानकी प्रचलित हिंदीभाषामें परिवर्तन करके छापना उचित है. परन्तु हमने ऐसा नहिं किया, कारण जैनियोंका जो कुछ हिंदी साहित्य-धर्मशास्त्र, पारलौकिक पदार्थविद्या वा अध्यात्म पुराणादिक हैं वे सब जयपुरीभाषा और