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________________ (१६०) प्तिपूर्णकै होय, अपर्याप्त अवस्थामें उपजै नाही. बहुरि सं. सारका तट जाकै निकट आया होय निकट भव्य होय, अ पुद्गल परावर्तन काल पहलै सम्यक्त्व उपजै नाही. बहुरि ज्ञानी होय साकार उपयोगवान होय निराकार दर्शनो. पयोगमें सम्यक्त्व उपजै नाहीं ऐसे जीवकै सम्यक्त्वकी उ. त्पत्ति होय है ॥ ३०७॥ भागें सम्यक्त्व तीन प्रकार है. तिनिमें उपशम सम्यक्व पर क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति कैसे है सो कहै हैं,सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो य होइ खइयं केवलिमूले मणुसस्स ॥३०॥ ___ भाषार्थ-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिध्यात्व, अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इनि सात मोहकमकी प्रकृतिनिके उपशम होते उपशम सम्यक्त्व होय है अर इनि सातों मोहकर्मकी प्रकृतिका क्षय होनेः क्षायिक सम्यक्त्व उपजे है. सो यह क्षायिक सम्क्त्व केवलि कहिये केबलज्ञानी तथा श्रुतकेवलीकै निकट कर्मभूमिके मनुष्यकै ही उपजै है, भावार्थ-इहां ऐसा जानना जो क्षायिक सम्यक्त्व. का प्रारम्भ तौ केवलि श्रुतकेवलीके निकट मनुष्यकै ही होय है. अर निष्ठापन अन्यगतिमें भी होय है ॥ ३०८॥ प्रागें क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होय सो कहै हैं,अणउदयादो छहं सजाइरूवेण उदयमाणाणं ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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