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(२६८) पूजा लाभ सत्कारकू चाहै है पर साधी सम्यग्दृष्टी जैनी जननित प्रतिकूल है सो पंडितपन्य है. पंडित तौ नाही अर आपकू पंडित मानै ताकू पंडितमन्य कहिये सो ऐसाकै मो ही शास्त्र विषरूप परिणमै है. भावार्थ-जैनशास्त्र भी पढिकरि तीवकषायी भोगाभिलाषी होय जैनीनित प्रतिकूल रहै सो ऐसा पंडितंमन्यके शास्त्र ही विष भया कहिये. जो यह मुनि भी होय तौ भेषी पाषंडी ही कहिये ॥ ४६१ ॥ जो जुद्धकामसत्थं रायदोसेहिं परिणदो पढइ । लोयावंचणहेतुं सज्झाओ णिप्फलो तस्स ॥ ४६२ ॥
भाषार्थ-जो पूरुष युद्धके शास्त्र कामकथाके शास्त्र रा. गद्वेष परिणामकरि लोकनिकौं ठगनेके अर्थ पढे है ताके स्वा. ध्याय निष्फल है. भावार्थ-जो पुरुष युद्धके, कामकौतूहलके, मंत्र ज्योतिष वैद्यक आदि लौकिक शास्त्र लोकनिके उगनेर्ले पढे है, ताकै काहेका स्वाध्याय है. इहां कोई पूछ मुनि भर पंडित तौ सर्व ही शास्त्र पहै हैं ते काहेकौं पढ़े हैं. ताका समाधान-रागद्वेषकरि अपने विषय आजीविका पोषनेकं लोकनिके ठगनेकौं पटै ताका निषेध है. बहुरि जो घ. मर्थीि हूवा कछू प्रयोजन जानि इनि शास्त्रनिकौं पटै, ज्ञान बढावना, परका उपकार करना, पुण्यपापका विशेष निणय करना, स्वपर मतकी चरचा जानना, पंडित होय तो धर्मकी प्रभावना हो, जो जैन मतमें ऐसे पंडित हैं इत्यादिक प्रयो